वर्ष 2020 के आरंभ से ही दुनिया भर के केंद्रीय बैंकों को असाधारण गति के साथ ताल मिलानी पड़ रही है और आने वाले कुछ समय में यह सिलसिला यूं ही कायम रहने के ही आसार हैं। परिवर्तन की गति और उसके दायरे का अनुमान दुनिया के सबसे महत्त्वपूर्ण केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व के नीतिगत बदलावों के माध्यम से लगाया जा सकता है। वर्ष 2020 की शुरुआत में सब कुछ नियंत्रण में दिख रहा था। जहां अमेरिकी अर्थव्यवस्था लगातार 11वें वर्ष विस्तार की ओर अग्रसर थी तो बेरोजगारी की दर दशक के सबसे निचले स्तर पर थी।
हालांकि जनवरी 2020 में अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में फेड चेयरमैन जेरोम पॉवेल ने कोरोनावायरस को लेकर अनिश्चिततताओं का उल्लेख किया था, लेकिन तब संभवतः किसी ने भी यह अपेक्षा नहीं की होगी कि दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था महज चंद दिनों के भीतर ही एक गहरी आर्थिक मंदी के भंवर में गोते लगा रही होगी। बाद में यह ऐलान किया गया कि मंदी ने फरवरी 2020 में ही दस्तक दे दी थी।
इस स्थिति से निपटने के लिए फेड ने न केवल त्वरित गति से ब्याज दरों में कटौती कर उन्हें करीब शून्य प्रतिशत कर दिया, बल्कि वित्तीय तंत्र में तरलता का व्यापक प्रसार किया और किसी भी निकाय की सहायता के लिए आपात शक्तियां लागू कर दीं। मई 2020 में पॉवेल का एक संवाद ही इसका बड़ा उदाहरण है, जिसमें उन्होंने कहा था, ‘हमने कई ऐसी खतरनाक सीमाएं लांघी हैं, जिन्हें पहले कभी पार नहीं किया गया था।’ उन्होंने आगे कहा था कि हालात कुछ इस प्रकार के बने, जहां भविष्य के परिणामों की परवाह किए बिना ऐसी चीजें करनी पड़ीं। हालांकि ऐसे परिणाम कुछ ज्यादा ही जल्दी सामने आ गए, जिनकी तमाम लोगों ने उम्मीद नहीं की थी।
फरवरी से मई 2020 के बीच फेड का बहीखाता करीब 70 प्रतिशत बढ़ गया। जहां नीतिगत हस्तक्षेप ने आर्थिक बहाली में योगदान दिया, लेकिन अत्यधिक मुद्रा प्रसार ने वह काम भी किया, जो अमूमन उससे होता आया है यानी-कीमतों को बढ़ाना। अमेरिका में मुद्रास्फीति की दर अब 8 प्रतिशत से अधिक है, जो मध्यम-अवधि वाले 2 प्रतिशत के लक्ष्य से भी बहुत ऊंची है। दुनिया के अन्य हिस्सो में यह कहानी और भी जटिल है। मिसाल के तौर पर यूरोप में केंद्रीय बैंक मुद्रास्फीति से निपटने पर विवश हैं, वहीं तमाम उभरती अर्थव्यवस्थाओं में कमजोर रिकवरी के बावजूद मौद्रिक नीति के मोर्चे पर सख्ती की गई है।
निःसंदेह, केंद्रीय बैंकों के हस्तक्षेप से इतर विकसित देशों में भीमकाय राजकोषीय प्रोत्साहन और दुनिया के विभिन्न हिस्सों में आपूर्ति श्रंखला में आए गतिरोध ने भी अपनी भूमिका निभाई। कुछ ही दिन पहले फेड ने नीतिगत दरों में 75 आधार अंकों की बढ़ोतरी की है। यह उसकी लगातार तीसरी बढ़ोतरी है। इस बार पॉवेल ने कहा कि पता नहीं कि फेड के इन कदमों से मंदी की स्थिति आएगी और यदि आई तो न मालूम कितनी बड़ी होगी।
दूसरे शब्दों में कहें तो महामारी से उपजी मंदी से निपटने के लिए उठाए गए कदम एक दूसरी मंदी की ओर धकेल सकते हैं। फेड के हालिया अनुमान यही सुझाते हैं कि इस वर्ष के अंत तक ब्याज दरों में 100 आधार अंकों तक की बढ़ोतरी हो सकती है। फेड द्वारा ब्याज दरों में की जानी वाली भारी बढ़ोतरी के बड़े गहरे परिणाम होंगे। विकसित अर्थव्यवस्थाओं के अन्य बड़े केंद्रीय बैंक फेड की राह से शायद ताल नहीं मिला पा रहे। परिणामस्वरूप, अमेरिकी डॉलर मजबूत होता जा रहा है और इससे वैश्विक मुद्रा बाजारों में उथलपुथल मची हुई है।
अब इस बात को लेकर चिंता और बढ़ गई है कि बड़े केंद्रीय बैंकों द्वारा एक साथ उठाए गए नीतिगत कदमों से वित्तीय परिस्थितियों में अपेक्षा से अधिक सख्ती की स्थिति बन सकती है। जैसा कि विश्व बैंक ने हाल में उल्लेख किया है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था संभवतः मंदी की दिशा में बढ़ जाए और उभरते बाजारों में सिलसिलेवार वित्तीय संकट दस्तक दे सकते हैं।
जिन देशों का विदेशी कर्ज और चालू खाता घाटा बहुत ऊंचा है, उनकी मुश्किलें लगातार बढ़ती जाएंगी। केंद्रीय बैंकों के लिए वर्तमान दौर हालिया दशकों के सबसे चुनौतीपूर्ण पड़ावों में से एक है। यही आसार लगते हैं कि मुद्रास्फीति की स्थिति कुछ समय में स्थिर हो जाएगी, लेकिन ब्याज दरें आने वाले समय में भी मध्यम-अवधि लक्ष्य से ऊपर बनी रहेंगी।
इस प्रकार विकसित अर्थव्यवस्थाओं विशेषकर अमेरिका में एक अवधि के दौरान अपेक्षाकृत ऊंची ब्याज दरें विकासशील देशों में नीति-निर्माताओं के लिए मुश्किलें बढ़ा देंगी, खासकर तब जबकि उत्पादन में नरमी रहने के आसार बरकरार हों। स्पष्ट है कि दुनिया में जो घटित हो रहा है, उससे भारत भी अछूता नहीं। उसने भी महामारी के दौरान तमाम पारंपरिक और गैर-पारंपरिक निर्णय किए और अब बढ़ती महंगाई से जूझ रहा है।
हालांकि भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने नीतिगत समायोजन का काम देरी से शुरू किया, लेकिन फिर भी भारत में अवस्फीति जैसी स्थिति विकसित देशों की तुलना में कम है। इसके बावजूद रिजर्व बैंक को अभी भी मुद्रास्फीति को काबू करने के साथ-साथ मुद्रा बाजार के दबावों से भी निपटना है, क्योंकि ऐसे दबाव कीमतों को प्रभावित कर सकते हैं। विश्व के कई देशों की मुद्रा की तुलना में रुपया काफी हद तक संभला हुआ है तो इसी कारण कि केंद्रीय बैंक ने हस्तक्षेप किया है। चूंकि हाल-फिलहाल बाहरी परिदृश्य में किसी खास सुधार के आसार नहीं हैं तो आरबीआई को अपनी मौद्रिक नीति समायोजित करते रहने की दरकार होगी।
अधिकांश केंद्रीय बैंक जहां व्यापक स्तर पर मुद्रास्फीति पर नियंत्रण करने और मुद्रा के मोर्चे पर संतुलन साधने की कवायद में संघर्ष कर रहे हैं तो उन्हें खुद को अनिश्चितता की लंबी अवधि के लिए तैयार करना होगा। जिस तरह के भू-राजनीतिक समीकरण बन रहे हैं, उनसे हाल के दशकों में उत्पादकता बढ़ाकर कीमतों के मोर्चे पर बनी लाभ की स्थिति पलट सकती है। आपूर्ति श्रृंखलाओं और व्यापार कड़़ियों में स्पष्ट बदलाव कीमतों पर कम से कम कुछ समय के लिए तो दबाव बढ़ा सकता है।
इसका यही अर्थ होगा कि केंद्रीय बैंकों को अपेक्षाकृत ऊंची मुद्रास्फीति और सुस्त आर्थिक वृद्धि वाले परिवेश में अपना काम करना होगा। जलवायु परिवर्तन और बुढ़ाती आबादी जैसी अन्य चुनौतियों को देखते हुए यह आकलन भी नहीं किया जा सकता कि ऐसा दौर कितना लंबा खिंचेगा।
ऐसी स्थिति में भारत जैसे विकासशील देश के केंद्रीय बैंकों को रक्षोपाय करना श्रेयस्कर होगा। बुनियादी रूप से इसका यही आशय है कि मुद्रास्फीति को निचले एवं स्थिर स्तर पर रखने के साथ ही विदेशी मुद्रा भंडार का दायरा बढ़ाया जाए। रिकॉर्ड यही दर्शाते हैं कि विकसित देशों के नीति-निर्माता अमूमन इस बात की कोई परवाह नहीं करते कि दुनिया के अन्य हिस्सों में क्या घटित हो रहा है।
ऐसे में जहां तक भारत के लचीलेपन की बात है तो यह सरकारी नीतिगत विकल्पों पर भी निर्भर करेगा। विशेषकर इस बात पर कि राजकोषीय प्रबंधन और व्यापार के मामले में वह क्या कदम उठाती है। इन मोर्चों पर फिसलन न केवल बाहरी झटकों से जुड़े जोखिम बढ़ा देगी, बल्कि इससे दीर्घावधिक वृद्धि की संभावनाओं पर भी असर पड़ेगा।