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  लेख  लाइसेंस शुल्क की अलग- अलग दर, समस्या की जड़
लेख

लाइसेंस शुल्क की अलग- अलग दर, समस्या की जड़

बीएस संवाददाता बीएस संवाददाता —October 19, 2008 11:56 PM IST0
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दूरसंचार मंत्रालय को रिलायंस कम्युनिकेशंस के उस मसले पर अभी कोई स्पष्ट कार्रवाई करनी है, जिसमें कि उसने भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) को अपना राजस्व करीब एक चौथाई कम बताया है।


सेल्युलर आपरेटर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (सीओएआई) ने दूरसंचार सचिव को लिखा है कि अगर यह सही है तो क्या उसके अन्य सदस्यों को भी वही तरीका अपनाना चाहिए, जो रिलायंस कम्युनिकेशंस ने अपनाया है? सिध्दार्थ बेहुरा ने अभी तक इसका कोई जवाब नहीं दिया, ऐसे में राजस्व के नतीजों को लेकर स्थिति अस्पष्ट बनी हुई है।

सरकार ने इस साल की शुरुआत में कुछ निजी फर्मों को 2जी स्पेक्ट्रम के प्रवेश शुल्क में 10 अरब डॉलर की छूट भी दी है। गणित इस तरह है:  सरकार को इस साल टेलीकॉम आपरेटरों से करीब 11,000 करोड़ रुपये लाइसेंस या स्पेक्ट्रम शुल्क के रूप में प्राप्त होने की संभावना है।

अगर सभी यह फैसला करते हैं कि अपना राजस्व करीब एक चौथाई कम बताया जाए तो इसका मतलब यह होगा कि सरकार को लाइसेंस स्पेक्ट्रम के रूप में करीब 2,750 करोड़ रुपये यानी करीब 55 करोड़ डालर का घाटा होगा। क्योंकि यह नुकसान सालाना होता रहेगा, इसलिए अगर 10 प्रतिशत की दर से ब्याज भी जोड़ दिया जाए तो यह तोहफा करीब 27,500 करोड़ रुपये यानी लगभग 5.5 अरब डालर का हो जाएगा।

लेकिन लाइसेंस शुल्क की राशि और इस तरह नुकसान 11,000 करोड़ रुपये पर स्थिर नहीं है, बल्कि हर साल तेजी से बढ़ रहा है, (सरकार का पिछले साल का टेलीकॉम राजस्व 8,000 करोड़ रुपये था) तो मौजूदा दर पर वास्तविक नुकसान बहुत ज्यादा हो जाएगा, जो 5.5 अरब डालर से दोगुना या तिगुना भी हो सकता है।

समस्या का सबसे बड़ा कारण यह है कि विभिन्न सेवाओं के लिए सरकार अलग-अलग लाइसेंस शुल्क लेती है। जहां इंटरनेट सेवाओं के लिए फीस नहीं के बराबर ( आईएसपी के वीओआईपी सेवाएं ऑफर करने पर  6 प्रतिशत) होती है, वहीं मोबाइल फोन के राजस्व पर यह 12 प्रतिशत के करीब है (लाइसेंस शुल्क टेलीकॉम सर्किल के मुताबिक 6-10 प्रतिशत के बीच होता है इसके साथ स्पेक्ट्रम फीस के रूप में 3-5 प्रतिशत लिया जाता है।)।

रिलायंस के मामले में कंपनी ने विभिन्न फाइनैंशियल स्टेटमेंट्स में अलग अलग राजस्व के आंकड़े दिए हैं और दूरसंचार नियामक ट्राई को अलग आंकड़ा दिया है। इसमें इतना अंतर है कि यह कभी 7 प्रतिशत तक कम हो जाता है, जैसा कि पिछले साल जून में में रहा तो वही इस साल के जून में यह बढ़कर 23 प्रतिशत हो गया।

यूएसबी इनवेस्टमेंट रिसर्च की पिछले महीने की रिपोर्ट के मुताबिक यह अंतर इसलिए आया कि कंपनी ने अपने राजस्व का पूरा ब्योरा नहीं दिया जैसेकि इंटरनेट सेवा के मामले में बताया गया था। यह बात उलझन में डालने वाली लग सकती है कि मात्र एक साल में इंटरनेट से इतनी कमाई कैसे हो गई, लेकिन सच तो यह है कि लाइसेंस शुल्क की अलग अलग दर ही इसकी वजह है।

ट्राई वर्तमान में उस मामले की जांच कर रही है, जहां अचानक लंबी दूरी की अंतरराट्रीय काल दरों के अनुपात में बड़ा उछाल आ गया है, वहीं यह कहना भी जल्दबाजी होगी कि क्या यह उछाल वाकई आया है, लेकिन इस मामले में भी लाइसेंस शुल्क का एक मसला तो है ही जो मात्र 6 प्रतिशत है। यह मोबाइल फोन की तुलना में लिए जाने वाले शुल्क की तुलना में आधा है।

मंत्रालय ने यह स्पष्ट करने से इनकार कर दिया है कि क्या टेलीकॉम आपरेटर्स नान-वॉयस रेवेन्यू (जो उसी स्पेक्ट्रम से मिलता है जिसका वे वॉयस आपरेशंस के लिए इस्तेमाल करते हैं) को अलग से वर्गीकृत कर सकते हैं और उसे अपने आईएसपी रेवन्यू के तहत रिपोर्ट कर सकते हैं। यह 3जी स्पेक्ट्रम के मामले में भी लागू होता है जिसकी  जल्द ही नीलामी होने वाली है।

जब डाटा सेवाओं में 3जी की असली क्षमता सामने आ जाएगी (जिसमें अपने फोन पर मूवी डाउनलोड की जा सकती है) तो नए आपरेटर यह तर्क दे सकते हैं कि उनके डाटा का अधिक हिस्सा आईएसपी लाइसेंस के तहत आता है। इस तरह से 9 प्रतिशत राजस्व भुगतान (8 प्रतिशत लाइसेंस शुल्क और 1 प्रतिशत स्पेक्ट्रम शुल्क) की बजाय वे अंत में कुछ भी भुगतान नहीं करेंगे।

2जी और 3जी स्पेक्ट्रम के शुल्क में अंतर के चलते तमाम अन्य समस्याएं भी खड़ी हो सकती हैं। आखिर 3जी स्पेक्ट्रम पर 1 प्रतिशत स्पेक्ट्रम फीस क्यों ली जानी चाहिए जबकि यह 2जी स्पेक्ट्रम की तुलना में ज्यादा सक्षम है, यह स्पष्ट नहीं है। 2जी स्पेक्ट्रम पर  4 प्रतिशत स्पेक्ट्रम शुल्क लिया जाता है।

इस तरह से इस बात की संभावना बहुत ज्यादा है कि आपरेटर अपने तमाम 2जी उपभोक्ताओं को 3जी की सुविधा में रख देंगे, क्योंकि वहां स्पेक्ट्रम शुल्क कम है। सैध्दांतिक रूप से 3जी स्पेक्ट्रम की नीलामी में इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि यह ज्यादा क्षमता वाला है और इसकी वार्षिक स्पेक्ट्रम फीस कम है।

लेकिन यदि नीलामी में नए और पुराने आपरेटरों में भेदभाव किया जाता है, जैसा कि किया जा रहा है, तो बोली बहुत कम की होगी और इससे वर्तमान आपरेटरों की लुटिया डूब जाएगी। सीओएआई ने यह सुनिश्चित करने के लिए कि फर्में राजस्व को गलत ढंग से प्रस्तुत न करें, एक समाधान यह रखा है कि ट्रैफिक का मापन किया जाए।

यह उस पुराने माध्यम से नहीं किया जा सकता कि प्रत्येक नेटवर्क में कितने सक्रिय उपभोक्ता हैं। विजिटर लोकेशन रजिस्टर से पता चलता है कि कुछ उपभोक्ता ऐसे होते हैं जो महीने में एक कॉल करते हैं वहीं ऐसे भी होते हैं जो एक हजार कॉल करते हैं। इसके बदले सीओएआई के प्रस्ताव के मुताबिक वास्तविक ट्रैफिक का आकलन किया जाना जाहिए कि प्रत्येक बेस स्टेशन की वास्तविक स्थिति क्या है, चाहे वे 2जी जीएसएम हों या सीडीएमए या 3जी।

यह तरीका काम कर भी सकता है और नहीं भी कर सकता है ( इसके काम न करने का तकनीकी समाधान भी निकाला जा सकता है जैसा कि रिलायंस ने कुछ साल पहले किया था जब उसने इस तकनीक का प्रयोग किया कि जब कोई अंतरराष्ट्रीय काल आती थी तो उसका नंबर बदल जाता था, जिससे उसकी एडीसी लेवी कम हो जाती), लेकिन इस तरह की कोशिश हो सकती है।

यह भी हो सकता है कि बेहुरा हर देश के नियामकों को त्वरित कॉल करें और उनसे जानें कि सीओएआई जिस तरह के रेवन्यू सेपरेशन की बात कर रहा है, उस तरह से वास्तव में होता है या नहीं। लंबे समय के लिए यह भी हो सकता है कि एकल (कम) राजस्व हिस्सेदारी बहुत बेहतरीन समाधान है।

वास्तव में, जब तक सरकार मुफ्त स्पेक्ट्रम और अधिक आवंटन के लिए ग्राहकों को मानक बनाकर फर्मों के पक्ष लेने की नीति पर चलती रहेगी, इन तरीकों में से कुछ भी संभव नहीं हो सकेगा।

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