इस समय ब्याज दरें बढ़ी हुई हैं। इसका प्रभाव मांग और आपूर्ति दोनों पर पड़ रहा है। बावजूद इसके, ऐसी तमाम संभावनाएं हैं जिनसे औद्योगिक वृध्दि को गति दी जा सकती है।
मांग के क्षेत्र पर नजर डालें तो कुछ सामान ऐसे हैं जो उधारी पर निर्भर करते हैं, जैसे ऑटोमोबाइल, कुछ उपभोक्ता वस्तुएं और मकान। इन पर स्पष्ट रूप से प्रभाव पड़ता है और इन उद्योगों का निर्गत कम होता है, निवेश में कटौती करनी पड़ती है जिसके परिणामस्वरूप पूरा विकास प्रभावित होता है।
आपूर्ति के क्षेत्र में देखें तो उच्च ब्याज दरों के चलते उधारी लेना महंगा हो जाता है और कंपनियां अपनी निवेश योजनाओं में कटौती करती हैं। मूल्यों में बढ़ोतरी के चलते लागत को नियंत्रित करने की कोशिश में कंपनी का आधार कमजोर होता है।
हाल में जारी आंकड़ों के मुताबिक इस साल की पहली तिमाही में औद्योगिक विकास दर घटकर 5.2 प्रतिशत रह गई है। इसका क्या मतलब निकलता है? तुलनात्मक रूप से पिछले साल की समान अवधि में विकास दर 10.3 प्रतिशत थी, जिसकी तुलना में वर्तमान दर काफी कम है।
क्या इसका मतलब यह है कि इस साल के अंत तक विकास दर में कमी बरकरार रहेगी? अगर हम सैध्दांतिक स्तर पर देखें तो अगस्त के पहले का मौसम व्यावसायिक दृष्टि से कमजोर माना जाता है और इस दौरान लोग कम खरीदारी करते हैं। सामान्यतया लोग त्योहारों के मौसम में ज्यादा खरीदारी करते हैं जो अगस्त से शुरू होता है।
इस समय रक्षाबंधन, जन्माष्टमी, पश्चिमी भारत में गणेश चतुर्थी, दशहरा, दीपावली, क्रिसमस और नए वर्ष जैसे त्योहारों का मौसम होता है, जिसमें खरीदारी बढ़ती है। ऐसा पूरे देश में होता है और विविध वस्तुओं की खरीदारी में लोग भरपूर पैसा खर्च करते हैं। यहां तक कि लोग त्योहारों में अपने पूरे परिवार के लिए नए कपड़े खरीदते हैं। यह मौसम खरीदारी के लिहाज से देखें तो व्यवसाय के अच्छे अवसर उपलब्ध कराता है।
अगर हम ग्रामीण इलाकों की ओर रुख करें तो फसली मौसम भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। खरीफ की फसल अक्टूबर महीने में तैयार होती है और इसका दौर दिसंबर तक चलता है। इसकी शुरुआत फिर अप्रैल में होती है और मई तक चलती है, जब रबी की फसल तैयार होती है। इस तरह से इस मौसम में एक बार फिर लोग पैसा खर्च करना शुरू करते हैं।
यह बैसाखी और होली का मौसम होता है, जब त्योहारों का मौसम खत्म होने के बाद दूसरी शुरुआत होती है। फिर से अगर इस पर विचार करें तो पहली तिमाही में कम औद्योगिक विकास दर की कल्पना नहीं की जा सकती लेकिन ऐसा हुआ। यह विचार लंबे समय से चला आ रहा है, जब भारतीय रिजर्व बैंक मौद्रिक नीति की घोषणा करता है। यह नीति अप्रैल से अक्टूबर तक के मौसम को ध्यान में रखकर घोषित की जाती है।
और इसके बाद के महीनों को व्यस्त मौसम माना जाता है। वास्तव में बीते समय के दौरान यह प्रवृत्ति थी कि रिजर्व बैंक, सरकार की उधारी की योजनाओं का 60-70 प्रतिशत हिस्सा वर्ष की पहली छमाही के दौरान पूरा कर लेता है, जिस समय व्यावसायिक क्षेत्र से मांग कम होती है।
बहरहाल पिछले दशक और उसके बाद से रिजर्व बैंक ने दोनो मौसमों के बीच अंतर करना कम कर दिया और खर्च की प्रवृत्ति पूरे साल के लिए एक समान कर दी गई। इसका परिणाम यह हुआ कि आज उधारी की मांग इस तरह से होने लगी कि इसको पूरे साल के लिहाज से देखा जाए। इस बात पर कोई आश्चर्य नहीं होता कि रिजर्व बैंक किसी भी समय मौद्रिक कार्रवाई कर सकता है।
ऐसे में साल की दूसरी छमाही ज्यादा मायने रखती है। वास्तव में प्राय: यह कहा जाता है कि आर्थिक विश्वास स्तर को देश में तेजी से हासिल बिक्री की संख्या की गणना करनी होती है, जो पूरे देश में चलता है। सामान्यतया जैसा कि हाल ही में शुरू किया गया था।
सामान्यतया, जैसा कि हाल में शुरू किया गया, छूट पर बिक्री का दौर त्योहारों के मौसम में चलता है जब डीलर, अपने ग्राहकों की संख्या बढ़ाने के लिए अपने प्रतिस्पर्धियों से मुकाबला करते हैं। बहरहाल अगर इस साल की स्थिति पर नजर डालें तो छूट का मौसम पहले ही शुरू हो गया, खासकर उपभोक्ता वस्तुओं के मामले में।
यही स्थिति ऑटोमोबाइल और हाउसिंग के क्षेत्र में भी देखी गई जहां कारोबारियों ने ब्याज बढ़ने का हवाला देते हुए जल्द से जल्द सौदे करने के लिए प्रोत्साहित कर रहे थे। स्वतंत्रता दिवस को उपभोक्ताओं को आकर्षित करने के लिए मील का पत्थर माना गया। अगर आंकड़ों पर गौर करें तो पहली तिमाही के बाद विकास दर में जोरदार बढ़त देखी गई है। पहली तिमाही के बाद विकास दर में लगातार बढ़त दर्ज की गई है।
कम विकास दर से सामान्यतया पूरे साल कम विकास दर होनी चाहिए और पहली तिमाही में अधिक विकास दर से अधिक। लेकिन ऐसा नहीं है। अगर आंकड़ों पर गौर करें तो पहली तिमाही में अगर औद्योगिक विकास दर 5.2 प्रतिशत रही है तो पूरे साल की विकास दर हो सकता है कि 6.5 से 7 प्रतिशत के बीच रहे।
इसके साथ ही अगर प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति (ईएसी) के अनुमानों पर गौर करें तो उसने अनुमानों को 7.7 प्रतिशत से घटाकर आर्थिक विकास दर का निर्धारण 7.5 प्रतिशत किया है। इस अनुमान को ऐसे समय लगाया गया है, जब ब्याज दरें ज्यादा हैं और औद्योगिक विकास दर कम है।
लेकिन इसमें अधिक विकास दर वाले आधार वर्ष का भी ध्यान रखा गया है और पिछले चार साल से 8 प्रतिशत की लगातार चल रही विकास दर और वित्त वर्ष 07 के शानदार 11.5 प्रतिशत विकास दर का भी ध्यान रखा गया है। ऐसे में हमें सकल घरेलू उत्पाद की वृध्दि दर का आकलन फिर से करना पड़ेगा क्योंकि कृषि की उपज भी निर्णायक भूमिका अदा करती है। इस पर मानसून का प्रभाव होता है जो अस्थिर है।
सकल घरेलू उत्पाद में औद्योगिक विकास दर की हिस्सेदारी 20 प्रतिशत होती है और अगर यह 7 प्रतिशत रहती है तो सकल घरेलू उत्पाद में इसका हिस्सा अधिकतम 1.4 प्रतिशत आता है। वहीं जीडीपी में कृ षि की हिस्सेदारी 17 प्रतिशत है और अगर कृषि में विकास दर 4 प्रतिशत रहती है तो इसका हिस्सा 0.7 प्रतिशत आएगा। हमें अभी भी 9 प्रतिशत विकास दर की जरूरत है जो अंतिम रूप से 7.8 प्रतिशत तक हो सकता है। क्या ऐसा किया जा सकेगा?
(लेखक एनसीडीईएक्स लिमिटेड के मुख्य अर्थशास्त्री हैं। यह उनके व्यक्तिगत विचार हैं।)