ऊर्जा की भारी खपत वाली हमारी दुनिया बदलाव की दहलीज पर है। यह जीवाश्म ईंधन आधारित प्रणाली को बदलने के लिए ऊर्जा की कमी और बढ़ती कीमतों के मौजूदा संकट का फायदा उठाने का तरीका ढूंढ सकती है। या यह कार्बन का अत्यधिक उत्सर्जन करने वाली उसी ऊर्जा प्रणाली में फिर निवेश कर सकती है क्योंकि पहले से ही धनी देशों के लोगों की आगामी सर्दियों के सीजन में अपने घरों में रोशनी एवं ताप के लिए भरोसेमंद एवं किफायती ऊर्जा को लेकर चिंता बढ़ रही है।
मौजूदा समय बहुत महत्त्वपूर्ण है, जो जलवायु परिवर्तन से निपटने के कदमों को ज्यादा विवादास्पद और जरूरी बना देता है। हमें इस बारे में स्पष्ट रहना चाहिए कि इस समय विकसित देश एक वास्तविक ऊर्जा पहेली से जूझ रहे हैं। मैं इन देशों की तरफ इशारा इसलिए कर रही हूं कि ये अपनी अर्थव्यवस्थाएं बनाने की खातिर ऊर्जा के लिए बड़े पैमाने पर कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन कर चुके हैं। वे पहले ही कार्बन स्पेस के अपने हिस्से का इस्तेमाल कर चुके हैं।
इन देशों के पहले कोयला और फिर प्राकृतिक गैस एवं तेल जैसे जीवाश्म ईंधनों को जलाने से पैदा उत्सर्जन दुनिया को खतरे के नजदीक ले आया है। वे अपनी बहुत सी घोषणाओं में कह चुके हैं कि वे जीवाश्म ईंधनों को त्यागकर स्वच्छ, नवीकरणीय ऊर्जा प्रणालियों को अपनाएंगे, वे अपनी ऊर्जा प्रणालियों को बदलेंगे। लेकिन सवाल यह है कि क्या वे ऐसा आज करेंगे, इन घोषणाओं को धरातल पर कब उतारा जाएगा?
यह दोहरी मार का समय है। एक तरफ यूरोप से लेकर अमेरिका तक के ये देश धरती के तेजी से गर्म होने, तापमान में अत्यधिक बढ़ोतरी और सूखे एवं मौसमी आपदाओं से प्रभावित हो रहे हैं। वे जानते हैं कि जलवायु परिवर्तन एक बड़ा तुल्यकारक है और वातावरण में उत्सर्जन बढ़ने से तापमान बढ़ेगा और असुरक्षित भविष्य की स्थितियां बनेंगी। दूसरी तरफ पूरे यूरोप की आम जनता केवल जलवायु परिवर्तन को लेकर ही नहीं बल्कि अब आने वाली सर्दियों में अपने घरों में ताप के लिए ऊर्जा की कमी को लेकर चिंतित हैं।
ब्रिटेन में ऊर्जा की कीमतों में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। कुछ लोगों का कहना है कि घरेलू गैस उत्पादन पर कोई नियामकीय नियंत्रण नहीं होने से ऐसा हो रहा है। इससे सरकार का तनाव बढ़ रहा है।
अमेरिका में गर्मियों में गैस की कीमतें इतनी बढ़ गईं कि लोगों ने कम यात्रा की और ईंधन की खपत कुछ समय के लिए घट गई। यह अवधि जलवायु अनुकूल थी। लेकिन अब कीमतें फिर नीचे आ गई हैं और खपत फिर पहले जितनी हो गई है। ऐसे में सवाल यह पैदा होता है कि क्या जो बाइडन प्रशासन वर्ष 2030 के अपने जलवायु परिवर्तन के महत्त्वाकांक्षी लक्ष्यों को हासिल करने में सफल रहेगा।
असलियत यह है कि ऊर्जा की उपलब्धता में अवरोध से मुश्किल दौर से गुजर रहे जीवाश्म ईंधन उद्योग को अति आवश्यक वित्तीय मजबूती और एक जीवन दान मिला है। आज सरकारों ने अपने सुर बदल लिए हैं। वे इस उद्योग को ज्यादा खुदाई, ज्यादा ड्रिलिंग करने और ज्यादा आपूर्ति करने के लिए कह रही हैं। यूरोप ने प्राकृतिक गैस को ‘स्वच्छ’ ईंधन घोषित कर दिया है, जो कोयले की तुलना में कम प्रदूषण फैलाने वाला जीवाश्म ईंधन है मगर फिर भी कार्बनडाइऑक्साइड का प्रमुख उत्सर्जक है।
नॉर्वे और ब्रिटेन ने फिर से अपनी तेल एवं गैस ड्रिलिंग शुरू कर दी है। यूरोप में जर्मनी और अन्य देश हर तरफ तरलीकृत प्राकृतिक गैस (एलएनजी) के नए आपूर्तिकर्ता तलाश रहे हैं और इसे पहुंचाने और भरने के लिए बुनियादी ढांचा बना रहे हैं। अमेरिका ने जलवायु विधेयक (मुद्रास्फीति कमी अधिनियम) पारित किया है। इसके तहत नवीकरणीय ऊर्जा में निवेश करेगा मगर यह अलास्का, मैक्सिको की खाड़ी में तेल एवं गैस पर खर्च और ड्रिलिंग के लिए लाखों हेक्टेयर सरकारी भूमि खोलने की शर्त पर होगा।
इस बारे में कोई संदेह नहीं है कि अमेरिकी कानून एक महत्त्वपूर्ण घटनाक्रम है, जो कुछ साल पहले असंभव नजर आता था। अमेरिका ने इस कानून के जरिये नवीकरणीय ऊर्जा, खास तौर पर सौर ऊर्जा के लिए विनिर्माण आधार बनाने के लिए अब से पहले के मुकाबले ज्यादा काम किया है। वह इसके उपयोग को प्रोत्साहन देगा और ऊर्जा बिलों में कटौती के लिए लोगों को इलेक्ट्रिक वाहनों और ज्यादा इन्सुलेटेड घरों को अपनाने के लिए उदारतापूर्वक भुगतान करेगा। यूरोप गैस की आपूर्ति हासिल करने पुरजोर कोशिश कर रहा है, लेकिन वह नवीकरणीय ऊर्जा में अपना निवेश बढ़ाने की दिशा में भी काम कर रहा है। परमाणु से लेकर सौर, पवन और बायोमास तक हर किसी पर खर्च ऊर्जा आत्मनिर्भरता के लिए है क्योंकि यह विदेशी ऊर्जा आपूर्तिकर्ताओं के साथ संपर्क तोड़ रहा है।
इसलिए यह सबसे मुश्किल समय है। यह सबसे अच्छा समय हो सकता है, मगर इसके साथ कई शर्तें जुड़ी हुई हैं। पहली, जीवाश्म ईंधन में फिर से यह रुचि अस्थायी और क्षणिक रहनी चाहिए। अर्थव्यवस्थाओं की प्रकृति को मद्देनजर रखते हुए एक बार एलएनजी टर्मिनलों के इस नए बुनियादी ढांचे पर निवेश होने या नए तेल एवं गैस क्षेत्रों से जीवाश्म ईंधन की आपूर्ति बढ़ने के बाद इसे बंद करना मुश्किल होगा।
दूसरी शर्त मेरी पहली शर्त से जुड़ी है। इन देशों को सिकुड़े कार्बन बजट की हमारी दुनिया में जीवाश्म ईंधनों के ज्यादा इस्तेमाल का हक नहीं दिया जाना चाहिए। उन्हें उत्सर्जन में भारी कमी करनी होगी और उस बचे थोड़े कार्बन बजट स्पेस को छोड़ना होगा, जो गरीब देशों के इस्तेमाल के लिए है। इसका वास्तविक अर्थों में मतलब जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल नहीं करना मगर अफ्रीकी महाद्वीप या भारत जैसे देशों को अर्थव्यवस्थाओं को बढ़ाने और स्थानीय वायु प्रदूषण को घटाने के लिए उपलब्ध स्वच्छ जीवाश्म ईंधनों का इस्तेमाल करने देना है। यह न केवल नैतिक रूप से आवश्यक बल्कि उस दुनिया के लिए एक शर्त भी है, जिसके पास बढ़ते तापमान को नियंत्रित रखने का मौका है। हमें यह बात ध्यान में रखने की जरूरत है क्योंकि देश अपने ऊर्जा आपूर्ति विकल्पों का जलवायु परिवर्तन के साथ तालमेल बैठाते हैं।
