चीन के प्रमुख नेता तंग श्याओफिंग जिन्हें उसकी आर्थिक सफलता का श्रेय दिया जाता है, वह एक कहावत कहा करते थे कि बिल्ली जब तक चूहे पकड़ रही है तब तक इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसका रंग क्या है। कहने का अर्थ यह था कि काम ज्यादा महत्त्वपूर्ण है, बजाय कि उससे जुड़े सिद्धांत या विचारधाराओं के। यह बात इस समय अत्यधिक प्रासंगिक है क्योंकि हमने 20वीं सदी में जिन चीजों को हल्के में लिया वे अपने ही विरोधाभासों के नीचे दम तोड़ रही हैं। मुक्त व्यापार, वैश्वीकरण, निर्वाचक लोकतंत्र, पूंजीवाद, वामपंथ या कींसवादी वृहद अर्थव्यवस्था पर भरोसा कभी कम नहीं हुआ। इसलिए नहीं कि विचारधारा में बदलाव आया बल्कि इसलिए क्योंकि इनको रेखांकित करने वाले सिद्धांतों में कमी थी। वे काम नहीं कर रहे। हेगेलियन सिद्धांत में भी यही कहा गया है कि हर स्थापना में उसके विखंडन के बीज होते हैं। यानी हर विचारधारा अपने आप को नए ढंग से तलाश कर ही बच सकती है। यानी बाजार और पूंजीवाद के काम को लेकर माक्र्स के पूर्वानुमान और शास्त्रीय अर्थशास्त्रियों के अनुमान इसलिए विफल रहे क्योंकि उन्हें आशा थी कि इंसान और अर्थव्यवस्था एकरैखीय तरीके से आगे बढ़ते हैं, न कि चक्रीय ढंग से।
हम ऐसी दुनिया में हैं जो विचारधारा से परे है, जहां प्रमुख निर्देशक सिद्धांत यह होना चाहिए कि किस माहौल में कौन सी चीज कारगर है। इसलिए क्योंकि सार्वभौमिक सिद्धांत तो उन जगहों पर भी नाकाम हो रहे हैं जहां उनकी उत्पत्ति हुई थी। पश्चिमी यूरोप और अमेरिका में पूंजीवाद पर हमला हो रहा है और वामपंथ पिछली सदी के अपने गढ़ों में ही ध्वस्त हो रहा है। जाहिर है चीन का अधिनायकवादी पूंजीवाद भी एक दिन समाप्त होगा। मैं यहां उन विचारों का जिक्र करूंगा जिन्होंने उस विचारधारा को ही पीछे छोड़ दिया जिससे वे पैदा हुए। मैं कराधान से शुरुआत करना चाहूंगा जो इस समय चर्चा में है। ऐसा इसलिए क्योंकि अमेरिका को लगता है कि सभी कंपनियों को कम से कम न्यूनतम 15 फीसदी कर देना चाहिए। अमीर देश इस विचार से सहमत दिख रहे हैं। यह स्पष्ट नहीं है कि भारत जैसा देश जिसने हाल ही में कॉर्पोरेट टैक्स में कमी की है उससे भारत जैसे देश को लाभ होगा या नहीं लेकिन हम मान कर चलते हैं कि अमेरिका द्वारा न्यूनतम कर के प्रस्ताव की प्रमुख वजह यह है कि उसे इससे सबसे अधिक लाभ होने की आशा है।
अमेरिका किसी विचार को तभी तक सार्वभौमिक रूप से लागू रखता है जब तक उसे फायदा हो। अब उसने रुख बदल दिया है और वह यह सुनिश्चित करना चाहता है कि अमेरिका से बाहर कम कर दर वाले देशों में गई पूंजी वापस आए। जब अमेरिका शीर्ष पर था तब उसने तकनीक के लाभ के उपदेश दिए। अब उसकी तकनीकी कंपनियां उससे भी शक्तिशाली हो रही हैं तो वह उन पर लगाम लगाना चाहता है। जबकि अन्य जगहों पर उसे अमेरिकी हितों की परवाह है। भारत में अमेरिकी प्रशासन गूगल, ऐपल, माइक्रोसॉफ्ट और ट्विटर के लिए रियायत चाहेगा, वह डेटा के स्थानीय संरक्षण तथा करों में समता का विरोध करेगा। वह अपनी कंपनियों के स्थानीय के बजाय अमेरिकी कानूनों का पालन करने का भी हिमायती है। अमेरिका को अन्य जगहों पर तकनीकी कंपनियों के औपनिवेशीकरण से कोई दिक्क्त नहीं, बशर्ते उसके हित पूरे हों।
भारत को अमेरिका के न्यूनतम कर प्रस्ताव के समर्थन की जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए थी। न ही उसे दीर्घावधि के कर सिद्धांतों को लेकर बात सुननी चाहिए थी। कम से कम अपने हितों की रक्षा करने के लिए उसे यह जोर देना चाहिए कि वैश्विक कंपनियों के वास्तविक कर की निगरानी की जाए और देखा जाए कि न्यूनतम कर प्रस्ताव सबके लिए लाभदायक है या नहीं। हम यह भूल रहे हैं कि कंपनियां भी बेवकूफ नहीं हैं, वे भी कोई न कोई तरीका जरूर निकालेंगी। दो कर सिद्धांतों पर सवाल उठाना बनता है: पहला, आमतौर पर कर-जीडीपी अनुपात बढ़ाना बेहतर है और दूसरा, हमें अप्रत्यक्ष कर बहुत अधिक नहीं बढ़ाना चाहिए और इसके बजाय प्रत्यक्ष कर पर ध्यान देना चाहिए।
नियंत्रक एवं महालेखाकार कार्यालय के हालिया प्रारंभिक आंकड़ों के अनुसार 2020-21 में केंद्र सरकार का अप्रत्यक्ष कर संग्रह, प्रत्यक्ष कर संग्रह से अधिक था। अर्थशास्त्री इस बात को लेकर उलझे हुए हैं कि प्रत्यक्ष कर जैसे प्रगतिशील कर पर अप्रत्यक्ष कर जैसा पुरातन कर भारी है।
भारतीय संदर्भ में यह दलील गलत है। हमारा वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) वास्तव में प्रगतिशील है और यही अर्थशास्त्री चाहते हैं कि जीएसटी को एक दर वाला कर बना दिया जाए। संक्षेप में कहें तो अनुपालन को आसान बनाने के लिए सलाह यह है कि जीएसटी भविष्य में प्रगतिशील न रहे। हमें यह भी पूछना होगा कि यदि प्रत्यक्ष कर ही सही हैं तो हम ग्रामीण अमीरों पर कैसे कर लगाएंगे जिनकी पूरी आय कृषि से आती है। क्या अप्रत्यक्ष कर बेहतर व्यवस्था नहीं है?
दूसरी ओर यह बात हमेशा सच नहीं होती कि प्रत्यक्ष कर प्रगतिशील ही होगा। एक समान आय कर लगाने वाला देश भी पुरातनपंथी हो सकता है जबकि आय के बदलते स्तर के साथ कर दरों में बदलाव प्रगतिशील माना जाता है। कर दर का प्रगतिशील या पुरातन होना केवल कर पर नहीं बल्कि कर ढांचे पर भी निर्भर करता है।
कर-जीडीपी अनुपात के बारे में जितना कम कहा जाए उतना अच्छा। यह अनुपात केवल कर नीतियों की बदौलत नहीं होता बल्कि अनुपालन का स्तर और आर्थिक गतिविधियों का स्तर भी इससे संबंधित है। इस पर ध्यान केंद्रित नहीं करना चाहिए। एक ऐसी दर हासिल करने का प्रयास करना चाहिए जहां अधिक अनुपालन किया जा सके और आर्थिक गतिविधियां न्यूनतम बाधित हों।
भारत जैसे विविधता वाले देश में जहां करदाता और सामाजिक सुरक्षा का लाभ लेने वाले अलग-अलग समुदायों से आते हैं, वहां अनुपालन की इच्छा हमेशा कम रहेगी। ऐसे में कर आतंक की समस्या होती है और उच्च परिसंपत्ति मूल्य वाले लोग दूसरे देशों में जाकर बस जाते हैं। लोगों से अधिक कर वसूलने के लिए अप्रत्यक्ष कर सही तरीका है। प्रत्यक्ष कर की ऊंची दरें हमारे लिए सही नहीं हैं। भारत को अप्रत्यक्ष कर की ऐसी दर अपनानी चाहिए जिन्हें बरदाश्त किया जा सके। तंग श्याओफिंग की कही बात का हवाला लें तो जब तक पैसा आ रहा है तब तक यह परवाह करने की आवश्यकता नहीं कि वह किस प्रकार के कर से आ रहा है।
(लेखक स्वराज्य पत्रिका के संपादकीय निदेशक हैं)
