दुनिया में कोई अर्थव्यवस्था ऐसी नहीं है जो ‘पूरी तरह अपने बलबूते पर हो’ और आत्मनिर्भर भारत वास्तव में आत्मनिर्भर नहीं है। नेहरू के दौर में जब आत्मनिर्भरता पर जोर दिया जा रहा था तब उसके चरम दौर में भारत मशीनरी से लेकर पूंजी और तकनीक से लेकर हथियार और यहां तक कि कलम भी आयात कर रहा था। जब स्वदेशीकरण के प्रयास रुके तो आयात पर निर्भरता बढ़ी। आज भी रक्षा और अंतरिक्ष जगत की अधिकांश ‘आत्मनिर्भर’ परियोजनाओं में ढेर सारी आयातित सामग्री इस्तेमाल की जाती है। तेजस लड़ाकू विमान में जनरल इलेक्ट्रिक का इंजन लगा है जबकि भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन की वेबसाइट कहती है कि उसके उपग्रहों में 50-55 फीसदी आयातित सामग्री लगती है। देश के नाभिकीय ऊर्जा संयंत्र आयातित यूरेनियम पर निर्भर हैं। तेल की बात करें तो हम अपनी जरूरत का 85 फीसदी आयात करते हैं।
यदि आत्मनिर्भरता को नीतिगत रूप से विवेक संपन्न ढंग से इस्तेमाल करना है तो पहले इसे सही ढंग से परिभाषित करना होगा जबकि हमारी सरकार के मंत्री अक्सर ऐसा नहीं करते। क्या इसका अर्थ यह है कि सामरिक आयात पर निर्भरता कम की जाए या रूस जैसे प्रतिबंधों का खतरा कम किया जाए? इसका उत्तर अलग-अलग हो सकता है। एक ओर हरित क्रांति ने देश को अमेरिका के राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन के दबाव से निजात दिलाई जो सन 1960 के दशक में अकाल से जूझ रहे भारत को गेहूं की आपूर्ति करते हुए ऐसा कर रहे थे। तो दूसरी ओर इलेक्ट्रॉनिक चिप्स से लेकर सौर ऊर्जा पैनलों तक आत्मनिर्भरता से जुड़ी परियोजनाओं का अर्थ है अंतरराष्ट्रीय आपूर्ति शृंखलाओं से मजबूत संबंध और घरेलू उत्पादन इकाइयों के लिए खतरा क्योंकि वे आयात पर निर्भर हैं। उदाहरण के लिए पाकिस्तान जेएफ-17 लड़ाकू विमान चीन के साथ साझेदारी में बनाता है। क्या ऐसा करने से पाकिस्तान चीन पर कम या ज्यादा निर्भर हो जाता है? क्या रक्षा उत्पादन में आत्मनिर्भरता को तब भी प्राथमिकता दी जानी चाहिए जब इसका मतलब आपूर्ति में देरी हो?
एक पुरानी कहावत है कैसे एक कील की कमी से एक साम्राज्य गंवा दिया गया। कील को घोड़े की नाल में ठोका जा सकता था और राजा घोड़े पर बैठकर युद्ध में जा सकता था…। कील खोजना आसान है जबकि छोटी इलेक्ट्रॉनिक चिप्स की कमी ने भारी भरकम ऑटोमोटिव सेक्टर को परेशानी में डाल दिया है। कल को कोबाल्ट या लिथियम की कमी से बैटरी उत्पादन प्रभावित हो सकता है। हम खुद को पूरी मूल्य शृंखला के उतार-चढ़ाव से नहीं बचा सकते। व्यापारिक साझेदारों पर निर्भरता आधुनिक अर्थव्यवस्था में आम है। एक दलील यह है कि अपने देश में आपूर्तिकर्ता तलाशकर चीन जैसे शत्रु देश पर निर्भरता घटाई जा सकती है। लेकिन अधिकांश उत्पादों में चीन इकलौता आपूर्तिकर्ता नहीं है, हां वह प्रतिस्पर्धी कीमत वाला अवश्य है। वाणिज्यिक व्यापार में भारत उन देशों के साथ अधिशेष की स्थिति में है जो तेल उत्पादन नहीं करते। परिभाषा को व्यापक करके वस्तु एवं सेवा व्यापार को शामिल करें तो देश का चालू खाता घाटा सुरक्षित दायरे में है, विशुद्ध पूंजी की आवक घाटे की भरपाई की जरूरत से अधिक है, भारत ऊर्जा की कमी वाला देश है और हम चीन पर निर्भर हैं। हमारी समस्या वृहद व्यापार की नहीं है।
उस लिहाज से देखें तो विनिर्माण को व्यवहार्य बनाने में जरूर दिक्कत है और घरेलू क्षमताएं विकसित करने की आवश्यकता है। उत्पादन संबद्ध प्रोत्साहन (पीएलआई) के पीछे यही तर्क है। यदि पांच वर्ष तक सालाना 50,000 करोड़ रुपये खर्च करके देश में विनिर्माण क्षमताएं तैयार की जा सकें तो यह बहुत छोटी कीमत होगी। खतरा यह है कि स्थानीय मूल्यवर्धन शायद इतना बड़ा न हो कि सब्सिडी को उचित ठहराया जा सके, निर्यात प्रतिस्थापन लॉबी सरकार से विस्तारित अवधि तक सब्सिडी हासिल कर लेगी और संरक्षणवादी शुल्क से व्यापार उदारीकरण की स्थिति उलट जाएगी: इनमें से कुछ खतरे दिखने भी लगे हैं। वृहद आर्थिक जोखिम यह है कि ऐसी स्थिति में प्रतिस्पर्धा प्रभावित होगी और तेल एवं रसायन आदि का इस्तेमाल करने वाले महंगी आपूर्ति करने वालों पर निर्भर हो जाएंगे। यह आत्मनिर्भरता के विपरीत बात होगी। पिछली बार कुछ ऐसा ही हुआ था और यह दोबारा हो सकता है। पीएलआई की दूसरी आलोचना यह है कि ये पूंजी के इस्तेमाल वाले क्षेत्रों पर केंद्रित है, उनमें से कुछ को निरंतर तकनीकी और उपकरण संबंधी उन्नयन की जरूरत होती है। क्या यह व्यावहारिक है? इस बीच अपेक्षाकृत श्रम आधारित क्षेत्र जो बड़े पैमाने पर संगठित रोजगार पैदा कर सकते हैं, वे अब भी पिछड़े हुए हैं। भारत के सामने व्यापार घाटे और रोजगार की कमी के दो संकटों में दूसरा संकट ज्यादा गंभीर है। पीएलआई के जरिये आत्मनिर्भरता हासिल करने की कोशिश में व्यवहार्यता तथा इस सवाल को भुलाया नहीं जाना चाहिए।
