भारत की विदेश व्यापार नीति में पिछली बार 2015 में सुधार किया गया था। माना गया था कि यह 2020 तक यानी पांच वर्षों तक काम करेगी। लेकिन एक हद तक महामारी की जटिलताओं की वजह से इसे छह-छह महीने के लिए आगे बढ़ाया जाता रहा। वैश्विक अर्थव्यवस्था अभी भी महामारी के कारण मची उथलपुथल से पूरी तरह नहीं उबर पाई है और दुनिया भर में पनपे मुद्रास्फीति संबंधी दबाव तथा यूक्रेन पर रूस के आक्रमण ने अनिश्चितताओं में और इजाफा किया है। ऐसे में केंद्रीय वाणिज्य मंत्रालय ने नई विदेश व्यापार नीति जारी करने की योजना एक बार फिर स्थगित कर दी है। वैश्विक हालात को देखते हुए इस बात को समझा जा सकता है लेकिन तथ्य यह है कि एक नई व्यापक व्यापार नीति काफी समय से लंबित है। ऐसा इसलिए कि बाहरी व्यापार संपर्कों को लेकर व्यापक रुझान 2015 के बाद साफ तौर पर बदला है लेकिन इस नीति की नई दिशा के बारे में अभी कुछ भी स्पष्ट नहीं है।
सन 2015 में सरकार के मन में मुक्त व्यापार को लेकर साफ तौर पर संदेह थे। नए समझौतों को स्थगित रखा गया था और पुराने समझौतों की पड़ताल की जा रही थी। इसके अलावा द्विपक्षीय निवेश संधियों को निरस्त किया जा रहा था। इसके बाद कोविड-19 महामारी की शुरुआत के बाद अपने पहले प्रमुख भाषण में प्रधानमंत्री ने ‘आत्मनिर्भरता’ की अवधारणा प्रस्तुत की। यह स्पष्ट नहीं है कि विदेश व्यापार नीति में आत्मनिर्भरता का दरअसल क्या अर्थ है। कुछ लोगों ने इसकी व्याख्या घरेलू उद्योगों की क्षमता और प्रतिस्पर्धी क्षमता बढ़ाने के रूप में की। अन्य लोगों ने एक ऐसी आधुनिक औद्योगिक नीति की संभावना देखी जो ई-वाहनों अथवा माइक्रोचिप जैसे उभरते क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित कर सके। परंतु व्यवहार में ‘आत्मनिर्भरता’ की नीति के कदम मोटे तौर पर आयात प्रतिस्थापन पर केंद्रित रहे हैं। फिर भी सरकार ने जहां विभिन्न नए मुक्त व्यापार समझौतों पर कदम उठाए, संयुक्त अरब अमीरात के साथ एक व्यापक साझेदारी पर हस्ताक्षर किए, ऑस्ट्रेलिया के साथ एक सीमित समझौते पर हस्ताक्षर किए तथा ब्रिटेन और यूरोपीय संघ के साथ चर्चाओं को आगे बढ़ाया।
यहां साफ तौर पर विरोधाभासी बातें देखी जा सकती हैं। इसमें कतई चौंकाने वाली बात नहीं है क्योंकि ‘आत्मनिर्भरता’ महज एक जुमला ही है और यह अपने आप में कोई नीतिगत वक्तव्य नहीं है। एक विदेश व्यापार नीति को इस अंतर को पाटना चाहिए। उत्पादन संबद्ध प्रोत्साहन (पीएलआई) योजना उन समस्याओं का एक उदाहरण है जो विदेश व्यापार को लेकर असंगत रुख अपनाने से सामने आती हैं। यह स्पष्ट नहीं है कि पीएलआई योजना अस्थायी रूप से कमी पूरी करने पर आधारित है, निर्यात को बढ़ावा देने वाली व्यवस्था है, निवेश संवर्द्धन योजना है या चीन पर निर्भरता कम करने की भू-सामरिक कोशिश है। परंतु यह बात तय है कि ऐसी योजनाओं का लक्ष्य और उद्देश्य जब तक स्पष्ट परिभाषित न हों तब तक उनके येनकेन प्रकारेण मुनाफा कमाने का जरिया बन जाने का खतरा रहता है। इस योजना के विस्तार का राजकोषीय प्रभाव भी होगा।
एक के बाद एक कारोबारी क्षेत्रों को पीएलआई के अधीन लाया जा रहा है। जैसा कि रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर जनरल रघुराम राजन ने भी कहा, ऐसी कोई वजह नहीं है कि सब्सिडी समाप्त हो जाने के बाद उत्पादन क्षमता का इस्तेमाल जारी रहे जबकि वह गैर प्रतिस्पर्धी हो चुकी होगी। यह स्पष्ट होना चाहिए कि कैसे अस्थायी सब्सिडी से प्रतिस्पर्धा स्थायी रूप से बढ़ेगी। फिलहाल पीएलआई योजना में यह स्पष्ट नहीं है। इस समझ के अभाव में अतीत की गलतियां दोहराई जाएंगी। सन 1991 के आर्थिक सुधारों के पहले आयात प्रतिस्थापन ने चालू खाते की स्थिति को कमजोर ही किया था। यह ‘आत्मनिर्भरता’ के खिलाफ है। इन मसलों को स्पष्ट रूप से परख और समझकर ही आगे बढ़ना चाहिए।
