नवंबर के अंतिम सप्ताह में निजी क्षेत्र के बैंकों से संबंधित मालिकाना नियंत्रण एवं निगमित संरचना पर भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के नए दिशानिर्देशों में बड़े औद्योगिक प्रतिष्ठानों को बैंकिंग कारोबार में उतरने की अनुमति देने का सुझाव शामिल नहीं किया गया। इस सुझाव का कमोबेश सभी ने स्वागत किया था। आरबीआई के आंतरिक कार्य समूह ने बड़े औद्योगिक प्रतिष्ठानों को बैंकिंग कारोबार में उतरने की अनुमति देने संबंधी सुझाव दिया था। मगर इस सुझाव के साथ समूह ने कुछ शर्तें भी तय की थीं। कार्य समूह ने कहा था कि बैंकिंग अधिनियम कानून, 1949 में संशोधन करने के बाद ही बड़ी कंपनियों को बैंकिंग कारोबार में उतरने की ‘अनुमति दी जा सकती’ है। बैंकिंग नियमन में संशोधन की शर्त इसलिए जोड़ी गई थी ताकि बैंकिंग क्षेत्र में कदम रखने वाली कंपनियां स्वयं से संबद्ध इकाइयों को ऋण आवंटन करने में स्थापित मानदंडों की अनदेखी नहीं कर पाएं।
आरबीआई के इस कार्य समूह के गठन की घोषणा जून 2020 में की गई थी। इस कार्य समूह ने 33 सुझाव दिए थे। इनमें 21 सुझाव स्वीकार कर लिए गए हैं जबकि बैंकिंग कारोबार में बड़े कारोबारी प्रतिष्ठानों एवं गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) के प्रवेश की अनुमति देने संबंधी दो सुझाव विचाराधीन हैं। 21 सुझावों में एक बैंकों में प्रवर्तकों की हिस्सेदारी और इसमें कमी लाने की समय सीमा से संबंधित है। यह सुझाव एक विवादित विषय बन गया है और हाल में एक निजी बैंक ने न्यायालय में यह मसला उठाया है। अब किसी बैंक में प्रवर्तक मताधिकार के बराबर 26 प्रतिशत हिस्सेदारी रख सकता है। यह एक स्वागत योग्य कदम है क्योंकि इससे प्रवर्तक अधिक जिम्मेदारी के साथ काम करेंगे। कोई प्रवर्तक पहले पांच वर्षों तक कम से कम 40 प्रतिशत हिस्सेदारी रख सकता है और 15वें वर्ष तक इसे कम कर 26 प्रतिशत किया जा सकता है। इसके बाद हिस्सेदारी शुरुआती लॉक-इन अवधि के बाद 26 प्रतिशत से भी नीचे आ सकती है। 5 और 15 वर्षों के मध्य के सभी प्रावधान समाप्त कर दिए गए हैं मगर प्रवर्तकों को बैंक स्थापित करने से पहले बैंकिंग नियामक के समक्ष हिस्सेदारी कम करने की योजना पेश करनी होगी।
नए नियमों के तहत गैर-प्रवर्तक हिस्सेदारी व्यक्तिगत एवं गैर-वित्तीय संस्थान के लिए 10 प्रतिशत रखी गई है मगर वित्तीय संस्थान, बहु-आयामी एजेंसियां एवं सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम 15 प्रतिशत तक हिस्सेदारी रख सकते हैं। यूनिवर्सल बैंकों के लिए न्यूनतम पूंजी की आवश्यकता 500 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 1,000 करोड़ रुपये कर दी गई है। इसी तरह, लघु वित्त बैंकों (एसएफबी) के लिए इसे 100 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 300 करोड़ रुपये कर दिया गया है। ये नए नियम उन्हीं पर लागू होंगे जो नए लाइसेंस के लिए आवेदन करेंगे। जो आवेदन कर चुके हैं उन पर ये लागू नहीं होंगे।
जहां तक बैंकों की निगमित संरचना की बात है तो आरबीआई सभी नए यूनिवर्सल बैंकों के लिए नए नॉन-ऑपरेटिव फाइनैंशियल होल्डिंग कंपनी (एनओएचएचसी) संरचना को तरजीह देगा। यूनिवर्सल बैंकों के प्रवर्तकों की दूसरी कंपनियां भी होती हैं इसलिए इस संरचना को तरजीह दी जाएगी। एनओएफएचसी संरचना का पालन करने वाले सभी मौजूदा बैंकों को इस संरचना से बाहर निकलने की अनुमति दी जा सकती है मगर ऐसा तभी होगा जब उनके समूह में कोई दूसरी कारोबारी इकाई नहीं होगी। नए नियमों में यह भी कहा गया है कि जब कभी भी लाइसेंस आवंटन से संबंधित एक नया निर्देश जारी किया जाएगा तो नियम लचीले होने की स्थिति में मौजूदा इकाइयों को तत्काल इसका लाभ मिलना चाहिए। मगर नियम कड़े हुए तो पुराने बैंकों को इनका पालन करने के लिए एक समय सीमा दी जानी चाहिए।
ये सभी दिशानिर्देश दुरुस्त हैं मगर मुझे इस रुख पर आपत्ति है कि प्रवर्तकों के लिए ‘फिट एवं प्रॉपर’ पात्रता की समीक्षा करने की वर्तमान प्रक्रिया दुरुस्त है और आगे भी यह जारी रह सकती है। क्या रमेश गेली और राणा कपूर को बैंकिंग लाइसेंस देकर नियामक पछता नहीं रहा है? क्या बैंकिंग लाइसेंस आवंटित करने से पहले ‘फिट ऐंड प्रॉपर’ शर्त की समीक्षा का समय नहीं आ गया है, खासकर उन लोगों को देखते हुए जो बैंक कारोबार में उतरने के लिए आवेदन दे रहे हैं? किसी बैंक के प्रमुख की नियुक्ति प्रक्रिया पर भी विशेष ध्यान नहीं दिया गया है। बैंक प्रमुखों की नियुक्ति के समय यह नहीं देखा जाता कि कोई व्यक्ति प्रवर्तक है या पेशेवर। कम से कम संभावित मुख्य कार्याधिकारी (सीईओ) की मानसिक क्षमता एवं उनके व्यक्तित्व का पता लगाने के लिए मनोवैज्ञानिक परीक्षण जरूर किया जाना चाहिए। बैंकों का नियंत्रण गलत लोगों के हाथों में जाने से रोकने के लिए निगरानी प्रक्रिया शुरू करने का प्रस्ताव स्वागत योग्य है। हाल में कुछ बैंकों में हुए घटनाक्रम से बैंकों के बोर्ड, सीईओ, निगमित संचालन और हितों के टकराव पर सबका ध्यान गया है। बैंकों के बोर्ड के प्रदर्शन पर नजर रखने में नियामक अब तक पूरी तरह सफल नहीं रहा है।
बैंकिंग नियमन अधिनियम के तहत आरबीआई सार्वजनिक और जमाकर्ताओं के हितों में किसी बैंक के निदेशकमंडल से उसके अधिकार वापस ले सकता है। हालांकि यह छह महीने से अधिक समय के लिए प्रभावी नहीं रह सकता। बोर्ड का निलंबन बढ़ाया जा सकता है मगर यह 12 महीने से अधिक समय के लिए नहीं हो सकता है। सीईओ की नियुक्ति एवं पुनर्नियुक्ति से पहले आरबीआई की पूर्व अनुमति आवश्यक है। आरबीआई सीईओ को हटा भी सकता है। मगर वित्तीय सक्षमता को छोड़कर अधिनियम में यह नहीं कहा गया है कि सीईओ के पास कैसी खूबियां होनी चाहिए। अधिनियम में किसी बैंक प्रमुख को अयोग्य ठहराए जाने वाली बातों का भी जिक्र होना चाहिए। सीईओ की छवि भी पाक-साफ होनी चाहिए। ये बातें पर्याप्त नहीं हैं। सीईओ की नियुक्ति से पहले आरबीआई को उम्मीदवारों को कड़े मानदंडों पर कसना चाहिए। फिलहाल तो रवैया बस खानापूर्ति वाला ही लग रहा है।
(लेखक बिज़नेस स्टैंडर्ड के सलाहकार संपादक, लेखक और जन स्मॉल फाइनैंस बैंक लिमिटेड में वरिष्ठ सलाहकार हैं)
