प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सरकार के निजीकरण के एजेंडे का बचाव करते हुए जिस प्रकार निजी क्षेत्र का मजबूती से पक्ष लिया उससे एक बात एकदम साफ हो गई कि आर्थिक सुधारों को चोरी छिपे अंजाम देने का समय अब समाप्त हो चुका है। यह एक सुखद बदलाव है जो ‘सूट-बूट की सरकार’ जैसा ताना मारे जाने के बाद की हिचक टूटने को दर्शाता है। बुधवार को लोकसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण के धन्यवाद ज्ञापन का उत्तर देते हुए मोदी ने जोर देकर कहा कि वोट जुटाने के मकसद से संपत्ति तैयार करने वालों को गाली देना अब स्वीकार्य नहीं रहा और कारखानों तथा कारोबार संचालन के मामले में अब अफसरशाही को पीछे हट जाना चाहिए। ये टिप्पणियां अहम हैं और सरकार के व्यापक रुख का निर्देशन इन्हीं के जरिये होना चाहिए। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि देश को संपत्ति तैयार करने वालों की आवश्यकता है। केवल उसी स्थिति में निजी क्षेत्र फल-फूल सकेगा, रोजगार तैयार हो सकेंगे और सरकार के पास अपने दायित्व निभाने के संसाधन रहेंगे। बिना संपत्ति तैयार किए पुनर्वितरण नहीं हो सकता।
आजादी के बाद कई दशकों तक सरकारी क्षेत्र के दबदबे और अत्यधिक सरकारी नियंत्रण वाला मॉडल अपनाया गया लेकिन इससे वांछित परिणाम नहीं हासिल हुए। भारत को उच्च वृद्धि दर तभी हासिल हुई जब सन 1990 के दशक में अर्थव्यवस्था को निजी क्षेत्र के लिए खोला गया और प्रतिस्पर्धा बढ़ी। प्रधानमंत्री के वक्तव्य को सरकारी उपक्रमों से संबंधित नई नीति के परिप्रेक्ष्य में भी देखा जाना चाहिए, जिसकी घोषणा आम बजट में की गई। इसके तहत सरकार केवल सामरिक क्षेत्र के चुनिंदा सरकारी उपक्रमों को अपने पास रखेगी और शेष का या तो निजीकरण किया जाएगा या उन्हें बंद कर दिया जाएगा। सरकार अगले वित्त वर्ष में दो सरकारी बैंकों का भी निजीकरण करेगी। अतीत को देखें तो ये बेहतर कदम हैं और दीर्घावधि में ये देश के हित में साबित होंगे। आंकड़े बताते हैं कि बेहतर प्रदर्शन करने वाले अधिकांश सरकारी उपक्रम उन क्षेत्रों में हैं जहां प्रतिस्पर्धा सीमित है। दूसरी तरह से देखें तो सरकारी उपक्रम प्रतिस्पर्धा के सामने बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पाते। इससे यह संकेत निकलता है कि संसाधनों का प्रभावी इस्तेमाल नहीं हो रहा। इतना ही नहीं सरकारी क्षेत्र की मौजूदगी से बाजार में विसंगति आने का खतरा रहता है।
बहरहाल, निजी क्षेत्र की भूमिका बढऩे के साथ ही सरकार को ऐसी क्षमता विकसित करनी होगी कि समुचित नियामकीय या प्रवर्तन ढांचे के अभाव में कोई निजी उपक्रम व्यवस्था का दुरुपयोग न कर सके। व्यापक तौर पर देश के नागरिक निजी क्षेत्र पर तभी भरोसा करेंगे जब उन्हें यह यकीन होगा कि व्यवस्था चंद लोगों के पक्ष में झुकी नहीं है और विधिक ढांचा ऐसा नहीं है जो रेंट सीकिंग (नए धन का सृजन किए बिना मौजूदा धन-संपत्ति में वृद्धि) को बढ़ावा देता हो। ऐसी बाजार समर्थक व्यवस्था को बढ़ावा देना ही एकमात्र रास्ता है जहां सर्वाधिक सक्षम उद्यमी सफल हों। संभावित एकाधिकार और सरकारी समर्थन से निजी क्षेत्र में शक्ति का केंद्रीकरण विश्वास और वृद्धि दोनों को प्रभावित करेगा। मजबूत और स्थिर नियामकीय माहौल निवेश जुटाने में मदद करेगा, रोजगार सृजित करेगा, उत्पादन और मांग बढ़ाएगा तथा देश की समग्र संपत्ति में इजाफा करेगा। निजी क्षेत्र के सुचारु कामकाज के लिए आगे चलकर सरकार को न्याय व्यवस्था में भी निवेश करना होगा। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अनुबंध प्रवर्तन के मामले में भारत का प्रदर्शन बेहतर करने के लिए कदम उठाने होंगे। यह एक ऐसा सूचकांक है जहां देश का प्रदर्शन बीते वर्षों में अत्यधिक खराब रहा है। विश्व बैंक की कारोबारी सुगमता रैकिंग में भी हम इस क्षेत्र में 163वें स्थान पर रहे।
