कोविड-19 महामारी के प्रसार के कारण उपजी आर्थिक विसंगतियों ने दुनिया भर में बजट प्रबंधन की कठिनाइयों को बढ़ाया है। महामारी के कारण लागू की गई देशबंदी ने राजस्व को प्रभावित किया है जबकि सरकार को वायरस की रोकथाम तथा आर्थिक हलचल से विस्थापित हुए लोगों की मदद के लिए धन की आवश्यकता है। यही कारण है कि अधिकांश देशों के बजट घाटे और सरकारी ऋण में इजाफा होने की आशंका है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के अनुसार चालू वर्ष में वैश्विक सरकारी ऋण सकल घरेलू उत्पाद का 100 फीसदी का स्तर पार कर जाएगा। वर्ष 2019 में यह 83 फीसदी था। भारत में राजकोषीय घाटा तो बढ़ेगा ही, साथ ही कर्ज में भी इजाफा होगा। भारतीय स्टेट बैंक के एक नए शोध के अनुसार चालू वित्त वर्ष में उच्च सरकारी उधारी सकल ऋण को जीडीपी के 87.6 फीसदी तक पहुंचा देगी। जीडीपी वृद्धि में गिरावट के कारण ऋण-जीडीपी अनुपात कम से कम चार फीसदी बढ़ेगा। परिणामस्वरूप सन 2022-23 तक कुल कर्ज को जीडीपी के 60 फीसदी तक लाने का लक्ष्य कम से कम सात वर्ष पीछे चला गया।
महामारी के कारण बजट घाटे में इजाफा समझा जा सकता है लेकिन चिंता की बात यह है कि देश का सार्वजनिक ऋण भी धीरे-धीरे बढ़ रहा है। यह सन 2011-12 के जीडीपी के 67 फीसदी के स्तर से बढ़कर 2019-20 में 72 फीसदी तक आया था। देश के नीति निर्माताओं को कर्ज की स्थिति को लेकर कई कारणों से चिंतित होना चाहिए। बढ़ते कर्ज का अर्थ यह है कि आने वाले वर्षों में सरकार को इससे निपटने के लिए और अधिक धन की व्यवस्था करनी होगी। इसके अलावा कर्ज का यह ऊंचा स्तर भी वास्तविक तस्वीर पेश नहीं करता। उदाहरण के लिए रिजर्व बैंक का एक हालिया पत्र कहता है कि राज्य सरकारों द्वारा दी जाने वाली गारंटी कर्ज निपटान की व्यवहार्यता को खतरे में डाल सकती है। केंद्र सरकार में भी अपनी देनदारी को सरकारी उपक्रमों को स्थानांतरित करने की प्रवृत्ति है।
मौजूदा हालात में कई टीकाकारों ने कहा है कि सरकार को सीधे-सीधे कर्ज का मुद्रीकरण करना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से व्यय और वृद्धि की लागत कम करने में मदद मिलेगी। चूंकि मांग में कमी है इसलिए इससे मुद्रास्फीति में इजाफा नहीं होगा। ऐसे में एकबारगी झटके से निपटने का विचार उचित प्रतीत होता है। बहरहाल, भारतीय अर्थव्यवस्था की बुनियाद ऐसी है कि मामला जोखिम भरा होता जा रहा है। उदाहरण के लिए आर्थिक गतिविधियों में मची उथलपुथल के बावजूद कीमतों में गिरावट नहीं आई है। मुद्रास्फीति केंद्रीय बैंक के लक्षित दायरे से ऊपर है। ऐसे में कर्ज का मुद्रीकरण मुद्रास्फीति संबंधी अनुमान को प्रभावित कर सकता है। ऐसे में संभावित लाभ कम होंगे और वृहद आर्थिक जोखिम बढ़ेंगे। अर्थव्यवस्था और सरकारी वित्त दोनों में ढांचागत दिक्कतें भी हैं। इन्हें ऋण के मुद्रीकरण से नहीं हल किया जा सकता। अर्थव्यवस्था में महामारी के पहले से ही गिरावट आ रही थी और ऋण बढ़ रहा था। ऐसे में फिलहाल जहां ध्यान महामारी को रोकने पर होना चाहिए, वहीं नीति निर्माता अगर व्यापक ढांचागत बदलाव का खाका तैयार करें तो अधिक बेहतर होगा। जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था में सुधार आएगा सरकार को यह आकलन करना होगा कि यह बजटीय बाधाओं के साथ क्या कुछ कर सकती है और स्थायी ढंग से उच्च वृद्धि हासिल करने के लिए नीतियों में क्या बदलाव करने होंगे। हो सकता है इसके लिए कुछ हालिया नीतिगत निर्णय पलटने पड़ें। जरूरी नीतिगत बदलाव के अभाव में कर्ज से निपटना अधिक दिक्कतदेह होगा और भारत निम्र वृद्धि दर के जाल में उलझ सकता है।
