जनवरी में महंगाई की दर 4 फीसदी के आस-पास थी। अगस्त तक यह बढ़कर 13 फीसदी तक हो चुकी थी।
आज की तारीख में यह उसके आधे पर आ चुकी है। पिछले कुछ बरसों में एक साल में महंगाई के आंकड़ों में इतना उतार-चढ़ाव देखने को नहीं मिला है। अगर खास चीजों की कीमतों की बात करें, तो उनमें और भी तेज उठा-पटक देखने को मिली।
इस साल कच्चे तेल की कीमत 100 डॉलर प्रति बैरल से चढ़कर 147 डॉलर तक जा चुकी थी, जबकि साल के खत्म होते-होते यह 35 डॉलर के स्तर पर आ चुकी है।
शेयर बाजार के सूचकांक घटकर आधे रह चुके हैं। जून तक दुनिया भर में खाद्य वस्तुओं की कीमतों में 50 फीसदी का इजाफा हो चुका था, लेकिन यह सारी तेजी छह महीनों में स्वाहा हो गई।
औद्योगिक वस्तुओं की कीमतें शुरू में तेजी से बढ़ रही थी, लेकिन आज ये पिछले साल के मुकाबले आधे पर हैं। ऐसा सिर्फ कीमतों के साथ नहीं हुआ। नौकरियों को भी ऐसी ही उठा-पटक से जूझना पड़ा। शुरुआत में तो जबरदस्त तेजी देखने को मिली, लेकिन साल के अंत में मातमी सन्नाटा है।
शेयर बाजार में तो विकास की दौड़ रिवर्स गियर में हुई। जहां पिछले वित्त वर्ष में इसमें 80 फीसदी का जबरदस्त इजाफा देखने को मिला, लेकिन इस साल शेयर बाजार का भालू औंधे मुंह गिरा मिला। इस साल शेयर बाजार को 40 फीसदी की गिरावट झेलनी पडी।
पिछले साल तो दफ्तरों के लिए मनमाने किराए वसूले गए थे, लेकिन 2008 के अंत तक किराए घटकर आधे रह चुके हैं। इनकी सूची कम नहीं हो रही, लेकिन लोगों को इस बारे में साफ रहना चाहिए।
सच कहें तो 2008 एक अजीबोगरीब साल रहा है। साल की शुरुआत हुई तेजी के साथ, जबकि अंत हुआ जबरदस्त मंदी के साथ। शुरुआत में कर्ज लेने के लिए कोई दिक्कत नहीं होती थी, जबकि आज ढूंढ़ने पर भी कर्ज देने वाला नहीं मिल रहा है।
जून तक बाजार में रौनक थी, जबकि आज कोई खरीदार नहीं मिल रहा। नतीजतन आज हरेक के पास काफी स्टॉक जमा हो चुका है। इसी वजह से कोई भी आज तेज बदलाव के लिए तैयार नहीं है। शुक्र है यह साल बस चार दिनों में खत्म होने वाला है।
लेकिन आज जो सवाल उठ रहे हैं, वे भी कम अहम नहीं हैं। आखिर कब तक चलेगी यह मंदी? क्या हालात सुधरने से पहले और भी बिगड़ेंगे? अगर अगला साल और भी बुरा होगा, तो 2010 में क्या होगा? लेकिन इससे भी बड़ा और अहम सवाल यह है कि क्या आने वाले कल में झांकने की हमारी ताकत बीते हुए कल से बेहतर है?
इस साल के मामले में तो हमारी इस ताकत ने हमें बुरी तरह धोखा दिया है। इस सवाल का जवाब बदकिस्मती से है, नहीं, बिल्कुल नहीं। सरकार के आंकड़ों के विश्लेषण की क्षमता को और पैना बनाने की प्रक्रिया काफी धीमी रफ्तार से चल रही है। सूचकांकों के लिए आधार वर्ष वक्त की दौड़ में काफी पीछे छूट चुके हैं।
अलग-अलग सब-सेट का मान काफी पुराना पड़ चुका है। आंकड़े जुटाने के तरीके में काफी खामियां हैं और उनके विश्लेषण करने के लिए जिन संख्यिकीय तरीकों का इस्तेमाल किया जाता है, वे काफी साधारण होते हैं।
भरोसेमंद आंकड़ों और नए तरीकों के बिना लोगों को अंधेरे में ही इस बात के लिए तीर चलाने पड़ेंगे कि औद्योगिक उत्पादन का सही आंकड़ा क्या है और सरकारी आंकड़ों पर कितना भरोसा किया जा सकता है? हमारे पास संकेतकों का एक ऐसा सूचकांक भी नहीं है, जो बता पाए कि अर्थव्यवस्था किस तरफ जा रही है।
12 साल हो गए, जब वित्त मंत्रालय में अर्थशास्त्रियों ने आंकड़ों का असल नजरिया जानने के लिए एक स्थायी संकेतक बनाने पर जोर दिया था। लेकिन आज भी आधिकारिक सांख्यिकी, व्यवस्था का हिस्सा नहीं बन पाया है।
जीडीपी विकास दर का पूर्वानुमान लगाने वाले आज जिन तरीकों का इस्तेमाल करते हैं वह फेंग शुई और ज्योतिष शास्त्र मिला-जुला रूप नजर आता है।
इसकी कीमत आज हर किसी को चुकानी पड़ी है। अगर आप बदलते वक्त में सरकार की रास्ते बदलने की रफ्तार को देखें तो साफ नजर आता है, सरकार की रफ्तार काफी धीमी रही है।
अभी पिछले महीने तक प्रधानमंत्री इस साल के लिए आठ फीसदी की विकास दर की बात कर रहे थे। रिजर्व बैंक ने अपनी मौद्रिक नीति में अक्टूबर तक कोई फेर बदल नहीं किया था।
इन गलतियों की काफी भारी सजा हमें चुकानी पड़ी है। नए साल के तोहफे के रूप में देश को एक आधुनिक सांख्यिकी व्यवस्था की जरूरत है।