भारत में राज्यों के बीच प्रतिस्पद्र्धा काफी तीव्र है लेकिन वाममोर्चा-शासित केरल राजनीतिक हिंसा के मामले में अपने नेतृत्व को पश्चिम बंगाल को दे सकेगा। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के वर्ष 2019 के आंकड़ों के मुताबिक पश्चिम बंगाल अब राजनीतिक हत्याओं के मामले में सबसे आगे है। वर्ष 2018 में देश भर में 18 राजनीतिक हत्याएं हुई थीं जिनमें से 12 बंगाल में हुई थीं। ये आंकड़े विरोधी राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं के बीच अक्सर होने वाले संघर्षों की वजह से पैदा हुई कानून व्यवस्था की आम समस्याओं का एक छोटा हिस्सा हैं। खासकर ग्रामीण एवं कस्बाई जिलों में ऐसी घटनाएं अधिक हो रही हैं जहां पुलिस की मौजूदगी कम होती है। राजनीतिक हिंसा साठ और सत्तर के दशक से ही बंगाल में राजनीतिक जीवन का चरित्र रही है जिसकी वजह से यहां से उद्योग पलायन करने लगे और बंगाल के पतन में अहम भूमिका निभाई। वाममोर्चा के 34 साल चले लंबे शासनकाल में इसने संस्थागत रूप ले लिया था। वाम सरकार की भूमि पुनर्वितरण नीतियों ने इसे ग्रामीण इलाकों में मतदाताओं के समर्थन की गारंटी दी लेकिन इसकी वजह से हिंसा का एक आधार भी तैयार हुआ। दरअसल जमीन के मालिकाना हक से बेदखल हुए ताकतवर भूस्वामियों ने राज्य को चुनौती दी तो सत्तारूढ़ गठबंधन ने उनसे मुकाबले और स्थानीय विकास के लिए आवंटित सरकारी फंड पर कब्जे के लिए असामाजिक तत्त्वों को लामबंद किया।
इस दौरान पार्टी के कैडर में बेरोजगार युवाओं की भरमार हो गई। वर्ष 2011 में वाममोर्चा को सत्ता से बेदखल करने वालीं ममता बनर्जी ने न केवल हिंसा के उस सिलसिले को आगे बढ़ाया है बल्कि उसे एकदम नए मुकाम तक ले गई हैं। जब ममता सिंगुर में टाटा नैनो परियोजना लगने से जमीन गंवाने वाले लोगों की आवाज बुलंद कर रही थीं तब कई असामाजिक तत्त्व भी पाला बदलते हुए उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस से जुड़ गए। इस तरह वे नए निजाम में भी अपने लिए पुलिस से संरक्षण तलाश रहे थे। विधानसभा चुनावों में भारी बहुमत होने के बावजूद ममता ने राजनीतिक हिंसा पर लगाम लगाने के लिए कुछ नहीं किया है। हिंसा का यह चक्र उस समय तेज हो गया जब मुस्लिम मतदाताओं को लुभाने की ममता की दोषपूर्ण नीति ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को जगह बनाने का मौका दे दिया।
कुछ समय पहले तक बंगाल में भाजपा की नगण्य उपस्थिति हुआ करती थी लेकिन आज उसकी ताकत लगातार बढ़ रही है। इसने कई पार्टी कार्यकर्ताओं को उत्साहित किया और कांग्रेस एवं वामदलों के कार्यकर्ताओं को उनकी तरफ जाने का मौका दिखने लगा। इसने राज्य में सांप्रदायिक रंग वाली हिंसा का चक्र तेज कर दिया जो 1940 के दशक के बाद कभी नहीं देखा गया था। एक तरह से यह केरल के मलाबार इलाके में वामपंथ एवं आरएसएस के बीच छिड़ी हिंसा-केंद्र्रित जंग का ही वृहद रूप है। पिछले आम चुनाव में बंगाल की 42 में से करीब आधी सीटों पर जीत दर्ज करने के बाद भाजपा को अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों में एक अवसर नजर आने लगा है और उसने अपनी दुर्जेय प्रोपेगेंडा मशीनरी को राजनीतिक हिंसा की भेंट चढऩे वाले अपने हरेक कार्यकर्ता की मौत का प्रचारित करने के काम में लगा दिया है। वेबसाइट ‘द प्रिंट’ के मुताबिक इस साल जनवरी एवं अक्टूबर के बीच 43 राजनीतिक हत्याएं हुई हैं जिनमें से 20 कार्यकर्ताओं के भाजपा अपना होने का दावा करती है। हो सकता है कि यह दावा बढ़ा-चढ़ाकर किया गया हो लेकिन यह ध्यान रखना होगा कि नास्तिक वामदलों ने अपने हिंदुत्ववादी विरोधियों के साथ इस पर सार्वजनिक सहमति जताई है कि ममता के कार्यकाल में हिंसा काफी बढ़ी है। हिंसा की इस विरासत में परिवर्तन होना चाहिए ताकि शांतिपूर्ण चुनाव सुनिश्चित हो सकें। लेकिन ऐसा हो पाना आसान नहीं होगा और न तो तृणमूल और न ही भाजपा सड़कों पर संघर्ष के मामले में झुकने वाली है।
