अमेरिका आज बुरी तरह से मंदी के जाल में फंसा हुआ है। लेकिन विश्लेषकों को इससे भी ज्यादा परेशान कर रखा है डॉलर ने, जो लाख दिक्कतों के बाद भी मजबूत होता जा रहा है। बता रहे हैं ए.वी. राजवाडे
मुझे बाजार का अध्ययन करते हुए 50 साल से भी ज्यादा वक्त गुजर चुका है। लेकिन मुझे एक भी ऐसा मौका याद नहीं है, जब बाजार में इतनी उठा-पटक मची हो जितनी पिछले कुछ महीनों में देखने को मिली है।
इसकी एक जबरदस्त मिसाल सोमवार सुबह को देखने को मिली, जब एक पाउंड की कीमत 1.70 डॉलर थी। लेकिन ठीक 24 घंटों के बाद इसकी कीमत 1.75 डॉलर हो चुकी थी। डॉलर के मुकाबले रुपये में भी कम उठा-पटक देखने को नहीं मिली है।
मजे की बात यह है कि मैं आज कई विश्लेषकों और निर्यातकों को उन दिनों को बड़ी शिद्दत के साथ याद करते हुए देखता हूं, जब एक डॉलर की कीमत महज 40 रुपये हुआ करती थी। वह भी ऐसे वक्त में जब डॉलर की कीमत काफी ज्यादा हो चुकी है। मेरी मानें तो वे एक सवाल अपने-आप से जरूर पूछें कि अगर डॉलर की कीमत आज भी 35 डॉलर होती तो क्या कारोबारी लिहाज से उनकी हालत अच्छी होती।
दरअसल, उनका यह शोक कई मुद्दों पर उनकी नासमझी को दिखलाता है। उनमें कुछ मुद्दे हैं :
मुद्राओं का कारोबार किया जाए या उनका इस्तेमाल हेजिंग के लिए हो? मुद्रा बाजार के एक कारोबारी के रूप में अगर मुझे 42 रुपये पर सौदा करना होता, तो मेरे लिए रुपये की कमजोरी एक बड़ा झटका साबित होती। दूसरी तरफ अगर मैं हेजिंग के लिहाज से वह सौदा करता, तो वह मेरे लिए मुनाफे का ही सौदा साबित होता। असल में लोगों को इस बदलाव का स्वागत करना चाहिए क्योंकि इसकी वजह से वायदा कारोबार का आने वाला कल काफी हद तक बेहतर हो सकता है।
लोग यह समझ ही नहीं पा रहे हैं कि सरकारी खजानों का मकसद, मुनाफा कमाना है या फिर अर्थव्यवस्था की भलाई? भ्रम की एक बड़ी वजह यह भी है। अगर पूरी तस्वीर देखें तो बड़े-बड़े बैंकों का बेड़ा गर्क इसीलिए हुआ क्योंकि उन्होंने अपने ट्रेडिंग पोर्टफोलियो से ज्यादा से ज्यादा कमाने की कोशिश की। अगर सरकारी खजानों का मकसद मुनाफा कमाना ही है, तो अलग-अलग विभागों तक पैसे पहुंचाने के लिए उसके पास एक साफ नीति होनी चाहिए।
उनके पास अच्छे मैनेजमेंट का भी होना काफी जरूरी है। साथ ही, उन्हें अपने लोगों पर भी अच्छी खासी लगाम कसनी होगी। इस सबके अभाव में वित्त मंत्रालय से मुनाफे की उम्मीद करना, काफी खतरनाक है। इस बारे में तो वे कंपनियां भी गवाही दे सकती हैं, जिन्होंने मुद्रा के वायदा कारोबार को पैसे बचाने या कमाने के लिए इस्तेमाल किया था।
क्या इस मातम की वजह इन लोगों का घमंड टूटना है? जब डॉलर की कीमत 35 रुपये तक पहुंच गई, तो मैं भी बहुत खुश हुआ था। लेकिन अक्लमंदी तो तभी होगी, जब मैं डॉलर को 42 रुपये के भाव से बेचूंगा। बड़ी बात यह है कि अपने अहम को संतुष्ट करने के चक्कर में वायदा कारोबार पर बुरा ही असर पड़ता है। दरअसल, अपने घमंड के चक्कर में हम विनिमय दर पर बुरा असर डालते हैं।
लेकिन जब मैं इस वाकये को पूरे परिप्रेक्ष्य में देखता हूं, तो भी मैं भ्रम में ही रहता हूं। दरअसल, मेरे समझ में यह बात नहीं आ रही है कि आखिर पिछले तीन-चार महीने से यूरोपीय मुद्राओं की तुलना में डॉलर इतना मजबूत कैसे हो रहा है? वह भी ऐसे वक्त में जब अमेरिका की गत बद से बदतर हो रही है।
मौजूदा संकट के बाद अब अमेरिकी सरकार को अपने बॉन्डों और बिलों की क्वालिटी में सुधार लाना होगा। इसकी वजह है, अमेरिकी सरकार के ट्रेजरी बिलों पर न के बराबर मिलने वाला मुनाफा। दूसरी तरफ, मौजूद संकट, राजकोषीय घाटे और चालू खाते के घाटे की बुरी गत को देखते हुए अमेरिकी सरकारों के बॉन्डों और बिलों को जोखिमों से मुक्त समझना खतरे से खाली नहीं है।
इसी तरह, पिछले सोमवार को यूरोपीय मुल्कों के अमेरिका से भी बड़े बेल-ऑउट प्लान की घोषणा के बाद उनकी मुद्राओं में आई तेजी को समझना और समझाना भी काफी मुश्किल है।दूसरी तरफ, डॉलर के मुकाबले येन की मजबूत होती सेहत को समझना काफी आसान है। पिछले कई सालों से येन की सेहत पर सबसे ज्यादा असर ‘कैरी ट्रेड’ का रहा है।
कैरी ट्रेड में कम ब्याज दर वाली इस जापानी मुद्रा का इस्तेमाल ज्यादा कमाई देने वाली मुद्राओं के कारोबार में होता है। इस तरह के कारोबार में काफी ज्यादा जोखिम होता है। यह वजह है कि पिछले कुछ दिनों से जोखिमों न लेने की वित्तीय खिलाड़ी की कोशिश की वजह इस कारोबार में काफी कमी आई है।
बैंक भी हेजिंग में इसका इस्तेमाल करने से बच रहे हैं। साथ ही, दुनिया भर में ब्याज दरों के कम होने के वजह से कारोबारियों का कैरी ट्रेड से मोह भंग हो चुका है।जहां तक रुपये और विनिमय दरों की बात है तो इस बात पर सभी की एक ही राय है।
वह राय यह है कि रिजर्व बैंक को बैंकों तक रुपये के प्रवाह को बढ़ाना होगा। साथ ही, उसे अगले कुछ महीनों के लिए एक्सचेंज बाजारों तक भी डॉलर की सप्लाई में इजाफा करना होगा। यहां बड़ा सवाल यही है कि रिजर्व बैंक किस हद तक यह सब कुछ करने के लिए तैयार होगा?
इसके लिए रिजर्व बैंक को सरकार से कम से कम 70 अरब डॉलर (करीब 3,50,000 करोड़ रुपये) की मदद की जरूरत होगी। इसके लिए बैंक को अपनी परिसंपत्तियों का पुनर्गठन करना होगा। उसके विदेशी मुद्राओं की परिसंपत्तियों की कुल कीमत में 70 अरब डॉलर की कमी करनी होगी, जबकि उसके रुपयों में मौजूद परिसंपत्तियों में इतने का इजाफा भी होना चाहिए।
डॉलर में कम वक्त के लिए दिए जाने वाले कर्जों पर न केवल लगाम लगानी चाहिए, बल्कि उसकी जगह रुपये में कर्ज देने चाहिए। भुगतान संतुलन के आंकड़ों की मानें तो 30 जून तक कम वक्त के इन कर्जों का आंकड़ा 49 अरब डॉलर हो चुका था।
इसमें हिंदुस्तानी बैंकों की विदेशी शाखाओं द्वारा मनी मार्केट से लिए गए छोटी अवधि के कर्जों को जोड़ दीजिए। आखिर, इन कर्जों को भी तो चुकाने के लिए हमें देसी पूंजी का सहारा लेना पड़ेगा। ऐसे में किसी भी अक्लमंद शख्स की यह उम्मीद होगी कि रिजर्व बैंक भी अमेरिकी और यूरोपीय केंद्रीय बैंकों के नक्शेकदम पर चलते हुए बड़े स्तर पर पूंजी प्रवाह में इजाफा करेगा। अब जो भी हो, इस बारे में शुक्रवार तक तो अच्छी तरह से जान ही जाएंगे।