दिसंबर 2021 के पहले सप्ताह में संसद में लोक लेखा समिति (पीएएसी) का 100वां स्थापना दिवस मनाया गया। इस कार्यक्रम में सरकारी रकम के इस्तेमाल पर निगरानी रखने में पीएसी की महत्त्वपूर्ण भूूमिका का उल्लेख किया गया। भारत में केंद्र एवं राज्य सरकारों के व्यय पर नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) संसद को अपनी रिपोर्ट सौंपता है। इसके बाद पीएसी इन रिपोर्ट की समीक्षा करती है। वर्तमान में केंद्र एवं राज्य सरकारें दोनों की नकद प्रवाह लेखा का इस्तेमाल करती हैं, जबकि निजी भारतीय कंपनियों को आवश्यक रूप से संचय-आधारित लेखा मानकों का पालन करना होता है। इस आलेख में पीएसी की निगरानी व्यवस्था सुधारने पर चर्चा की गई है।
पीएसी एक संसदीय समिति होती है और ऐसी परंपरा रही है कि संसद में सबसे बड़े विपक्षी दल का नेता इसका अध्यक्ष होता है। सीएजी के कार्यालय की स्थापना भारतीय संविधान के अनुच्छेद 148 के तहत की गई थी और स्वतंत्रता प्राप्ति से सरकार सेवारत या हाल में सेवानिवृत्त सरकारी अधिकारियों को सीएजी का अध्यक्ष नियुक्त करती रही है। सरकारी व्यय की सटीक पड़ताल के लिए सीएजी के अध्यक्ष के रूप में भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) के अधिकारियों की नियुक्ति उपयुक्त नहीं है। यहां एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि क्या सरकार के राजस्व एवं व्यय में त्रुटियों को जान बूझकर या किसी अन्य तरीके से नजरअंदाज करने के लिए सीएजी पर दबाव डाला जा सकता है। इस लिहाज से क्या हाल में सेवानिवृत्त या सेवारत कोई अधिकारी सीएजी के रूप में अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह निष्पक्ष रूप से कर सकता है?
सीएजी की नियुक्ति का अंतिम अधिकार प्रधानमंत्री के पास होता है और सरकार के बाहर का कोई भी व्यक्ति इस प्रक्रिया में भागीदार नहीं होता है। केंद्रीय सतर्कता आयुक्त (सीवीसी) की नियुक्ति के लिए गठित चयन समिति के सदस्य के रूप में प्रधानमंत्री, गृह मंत्री और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष शामिल होते हैं। केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) के निदेशक की नियुक्ति के लिए समिति में प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता और उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश शामिल होते हैं। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि सीएजी का पद वैधानिक होने के बाद भी इसकी नियुक्ति पूरी तरह केंद्र सरकार के हाथ में होती है। सीवीसी या सीबीआई के निदेशक की नियुक्ति के साथ ऐसी बात नहीं है। सीवीसी को पद से हटाने के लिए उच्चतम न्यायालय की अनुशंसा जरूरी होती है। सीएजी को पद से हटाने के लिए लाए गए विशेष प्रस्ताव का दोनों सदनों से पारित होना जरूरी है।
स्पष्ट है कि सीएजी कार्यालय के लिए चयन समिति का दायरा बढ़ाने और इसमें पीएसी अध्यक्ष, उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को शामिल किया जाना जरूरी है तभी पूरी प्रक्रिया सीबीआई के निदेशक की नियुक्ति की तरह हो पाएगी। सीएजी के चयन में एक अहम बात यह दिमाग में रखनी चाहिए कि ऐसा व्यक्ति एक ऐसा पेशेवर होना चाहिए, जो पेचीदा शब्दों को सरल तरीके से परिभाषित एवं व्यक्त कर सके। अगर सीएजी की रिपोर्ट को सरल रूप में नहीं रखा जाएगा, तो पीएसी के लिए इसकी गहराई में जाना मुश्किल होगा। इस स्थिति में सरकार की तरफ से किए गए गैर-वाजिब व्यय पर ध्यान नहीं जाएगा।
आदर्श रूप में पीएसी अध्यक्ष को लेखा सिद्धांतों एवं व्यवहारों की अच्छी समझ होनी चाहिए। हालांकि इस शर्त का पालन करना आसान नहीं है, क्योंकि सीएजी के लिए भी लेखा में विशेष दक्षता रखनी जरूरी नहीं है। इस स्थिति को देखते हुए सरकारी व्यय के संबंध में अधिक पारदर्शिता के लिए पीएसी द्वारा दो स्वतंत्र निजी लेखा कंपनियों की सेवाएं ली जा सकती हैं। ये कंपनियां सीएजी रिपोर्ट पर अपनी विश्लेषक टिप्पणियां गोपनीय रूप से पीएसी को सौंपेंगी। इसका उद्देश्य सीएजी द्वारा की गई किसी त्रुटि का पता लगाना या उनके पद की गरिमा कम करना नहीं है। इसका व्यापक उद्देश्य पीएसी के सदस्यों के लिए सरल भाषा में स्वतंत्र विशेषज्ञों से विश्लेषण हासिल करना है। आम तौर पर पीएसी के सदस्य सभी विषयों की सामान्य जानकारी रखते हैं मगर विशेषज्ञ नहीं होते हैं।
पीएसी की पृथक उप-समितियां रक्षा, रेलवे, विदेश, वित्त एवं अन्य मंत्रालयों द्वारा किए गए खर्चों की विवेचना करती हैं। इस तरह सरकारी खातों की जांच के लिए व्यापक व्यवस्था मौजूद है और पीएसी की रिपोर्ट संसद की वेबसाइट पर उपलब्ध होती है। हालांकि सतही तौर पर भी इन रिपोर्ट का अध्ययन करें तो पता चलता है कि एक तय प्रक्रिया के तहत ये तैयार की गई हैं और सरकार के खातों में विभिन्न मदों में गहराई से चीजों का जिक्र नहीं किया गया है।
सरकार के व्यय से जुड़ी विभिन्न चिंताओं में एक अहम बात यह है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को पूंजी देने के लिए बार-बार उन्हें रकम आवंटित की जाती है। केंद्र सरकार के आंकड़ों के अनुसार उसने वित्त वर्ष 2017-18, 2018-19 और 2019-20 के दौरान सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को पूंजी समर्थ के रूप में क्रमश: 90,000 करोड़, 100,000 और 60,000 करोड़ रुपये दिए हैं। यद्यपि भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) बैंकिंग क्षेत्र का नियामक है, मगर सीएजी को इस बात की समीक्षा जरूर करनी चाहिए कि सरकार ने किसी तरह करदाताओं की रकम का इस्तेमाल बैंकों को पूंजी देने के लिए किया है। करदाता उम्मीद करते हैं कि सरकारी व्यय की समीक्षा करते वक्त पीएसी को सीएजी की रिपोर्ट में यह भी देखने की कोशिश करनी चाहिए कि सरकारी बैंकों, कृषि ऋण माफी आदि मदों में कितनी रकम दी गई है। केंद्र सरकार ने 1990-91 और 2008-09 में क्रमश: 51,000 करोड़ और 81,000 करोड़ रुपये (रुपये के वर्तमान मूल्य के आधार पर) के कृषि ऋण माफ किए हैं। प्राय: ऐसे ऋण माफी का क्रियान्वयन कई वर्षों के दौरान होता है और पीएसी को यह देखना चाहिए कि माफ की गई रकम का मौजूदा शुद्ध मूल्य घोषित कुल रकम से अधिक तो नहीं हो जाता है। सीएजी ने कई राज्य सरकारों के बहीखातों में विसंगतियों की शिकायत की है। पीएसी को इस पर भी गंभीरता से विचार करने की जरूरत है, क्योंकि संयुक्त रूप से राज्य सरकारें केंद्र सरकार से अधिक खर्च करती हैं।
सरकार ने 1 फरवरी को वित्त वर्ष 2022-23 के लिए बजट पेश कर दिया है। प्रिंट मीडिया और भारतीय उद्योग-वित्तीय क्षेत्र में कुछ लोगों ने बजट में राजस्व अनुमानों पर मुहर लगा दी है और विभिन्न व्यय मदों की चर्चा में भिड़ गए हैं। मगर पिछले अनुभवों के आधार पर देखें, तो बजट के आंकड़ों को सीएजी की रिपोर्ट से तुलना करने या पीएसी की टिप्पणी पर विचार करने पर काफी कम ध्यान देंगे।
कहा जाता है कि इतिहास स्वयं को दोहराता है। पहली बार त्रासदी के रूप में और दूसरी बार स्वांग के रूप में। अगर पीएसी सरकार के वित्त की पड़ताल सही रूप में नहीं करती है, तो आधिकारिक राजस्व और व्यय के आंकड़े स्वांग की तरह लगने लग सकते हैं।
(लेखक पूर्व भारतीय राजदूत, विश्व बैंक में कॉर्पोरेट फाइनैंस के प्रमुख रह चुके हैं और इस समय सीएसईपी से जुड़े हैं)
