आज राजकोषीय घाटे को लेकर कई लोग काफी हाय-तौबा मचा रहे हैं। लेकिन अगर गौर से देखें तो सरकारी खजाने की हालत काफी अच्छी नजर आती है। बता रहे हैं सुरजीत भल्ला
मैं इस बात को बड़ी शिद्दत के साथ मानता हूं कि हरेक नीति-निर्धारक और आर्थिक विश्लेषक को कम से कम तीन महीने तो वित्तीय बाजारों में गुजारने ही चाहिए। इसके पीछे दो बड़ी वजहें हैं। पहली वजह तो यह है कि वित्तीय बाजार में रहने वाले काफी कम वक्त में काफी सारी जानकारी जुटाकर उनका विश्लेषण भी कर लेते हैं।
वह भी काफी अच्छे तरीके से। दूसरी वजह यह है कि वित्तीय बाजार लोगों को विनम्र बनाते हैं। बाजार लोगों को एक बात काफी अच्छे तरीके से समझा देता है कि गलतियां करने में कुछ गलत नहीं होता और गलतियां इंसानों से ही होती है ।
अगर कोई शख्स वित्त जगत से बाहर अपनी जिंदगी गुजारता है, तो वह इस बात को कभी स्वीकार नहीं कर सकता है कि उससे कोई गलती हुई है। फिर चाहे वह शख्स कोई बहुत बड़ा विद्वान हो या नौकरशाह या फिर किसी इनवेस्टमेंट फर्म में बैठा कोई विश्लेषक, वह अपनी गलती को मानने के लिए कतई तैयार नहीं हो सकता है।
खासतौर पर यह आदत अर्थशास्त्रियों के बीच काफी हद तक पाई जाती है। वे अपने दोनों हाथों और दसों उंगलियों से लोगों को यह समझाने में लगे रहते हैं कि कोई भी बात क्यों हो रही है। लेकिन उन पर किसी भी तरह की कोई जिम्मेदारी नहीं होती और उनका कुछ नहीं जाता है।
इसीलिए तो उनका घमंड कभी रत्ती भर भी कम नहीं होता। लेकिन आज वक्त सचमुच काफी बुरा चल रहा है, जहां सारे के सारे अर्थशास्त्री गलत साबित हो चुके हैं। तो चलिए बड़े लोगों की बातों और कामों पर ध्यान देते हैं। बाहरी दुनिया में आजकल सारे के सारे समझदार लोग बर्नान्के के खून के प्यासे हैं।
उनके मुताबिक बेयर सर्टन्स को दिवालिया नहीं होने देना एक बहुत बड़ी गलती थी क्योंकि यहां बात नैतिकता की थी। आपको तो यह बात पता ही होगी कि वॉल स्ट्रीट का घमंड तब तक नहीं टूटा, जब तक उसकी 95 फीसदी पूंजी इस मंदी की आग में स्वाहा नहीं हो गई। बाजार के बाहर से आने वाले इस जबरदस्त बौध्दिक दबाव ने फेड को इस मंदी के दौर में पहली गलती करने के लिए मजबूर करने में अहम भूमिका निभाई थी।
अमेरिका और दुनिया आज भी उस गलती की कीमत चुका रही है। इसने न केवल अमेरिकी, बल्कि अंतरराष्ट्रीय बैंकिंग सिस्टम का भी बेड़ा गर्क कर दिया। उस वजह से लाखों लोगों की नौकरियां चली गईं। साथ ही, वॉल स्ट्रीट को करोड़ों डॉलर की चपत लगी। ऊपर से विकास दर भी नकारात्मक हो गई।
मैं आज भी सोचता और मानता हूं कि बाजार से जुड़े किसी भी शख्स ने घमंड से चूर नौकरशाहों की लीमन ब्रदर्स को दिवालिया होने देने की सलाह को नहीं माना होता। इस तरह के वित्तीय आतंकवादियों की कमी अपने मुल्क में भी नहीं है। बस दो महीने पहले की ही बात है, बाजार से कोसों दूर रहने वाले विश्लेषक महंगाई के खिलाफ जंग में रिजर्व बैंक को काफी पीछे बता रहे थे।
मिसाल के तौर पर अजय शाह ने सितंबर में मौद्रिक नीति को और कड़ा करने की मांग की थी। उनके मुताबिक दुनिया भर में महंगाई से जंग करने के लिए ब्याज दरों आज भी काफी कम हैं। दूसरे लोग-बाग भी कुछ ऐसा ही कह रहे थे।
यह तो उस वक्त इनवेस्टमेंट फर्म, आर्थिक पत्रकार, नीति-निर्धारक, बिजनेस चैनलों के एंकर, आर्थिक विश्लेषक सभी कह रहे थे। अगर वे बाजार में रहे होते, तो उन्हें अंदाजा होता कि वे किस हद तक गलत थे। लेकिन चूंकि उनका अहम भी इससे जुड़ा हुआ है, इसलिए वे अपनी गलती मानेंगे नहीं।
भले ही उन्होंने महंगाई दर के बढ़ते रहने और विकास दर के गिरते रहने जैसी कितनी ही बड़ी गलत भविष्यवाणी क्यों न की हो? मजे की बात यह है कि तीन महीने के आंकड़ों के आधार पर देखें तो सिंतबर में महंगाई की दर केवल 3.6 फीसदी थी, जबकि आज उस आधार पर यह तो -2.3 फीसदी है। अप्रैल से नवंबर के दौरान सालाना महंगाई की दर केवल 4.6 फीसदी रही है।
अपनी गलती को मानने के बजाए बहाने बनाना, खुद को ही अपना जुड़वां बताने जैसे है। मौद्रिक से राजकोषीय आतंकवादी बनना काफी आसान है। कल तक वे कह रहे थे कि भारत में ब्याज दरें महंगाई की आसमान छूती दर की वजह से कम नहीं की जा सकती हैं।
आज उनके मुताबिक कम होती महंगाई की दर और कम विकास दर के बावजूद ब्याज दरों में कटौती नहीं की जा सकती है। वजह है मोटा राजकोषीय घाटा। पिछले कुछ सालों में बजट से बाहर रहने वाली कच्चे तेल और उवर्रक सब्सिडी इन राजकोषीय जिहादियों के लिए चिंता का सबब बन चुके हैं।
अक्टूबर तक तो लोगों को यह भरोसा हो चला था कि मुल्क में राजकोषीय घाटा दहाई के आंकड़ों में रहने की उम्मीद है। साथ ही, केवल पेट्रोलियम उत्पादों पर दिए जाने वाली सब्सिडी ही जीडीपी का दो से तीन फीसदी रहेगी। लेकिन ये लोग यह भी भविष्यवाणी करते नहीं थक रहे थे कि इस जबरदस्त आर्थिक मंदी की वजह से पूरी दुनिया की भी विकास दर धीमी ही रहेगी।
लेकिन ये भूल गए दुनिया की कम विकास दर, कच्चे तेल की 65 डॉलर प्रति बैरल से कम की कीमत और अक्टूबर से लेकर मार्च तक की यह अवधि तेल की सब्सिडी को जीडीपी के शून्य फीसदी तक के करीब ले जा सकती है।
जहां तक उर्वरक पर दी जाने वाली सब्सिडी की बात है तो इसके पहले के अनुमानों के मुकाबले काफी कम रहने की उम्मीद है। आंकड़ों की मानें तो इसके जीडीपी का सिर्फ 1 फीसदी रहने की उम्मीद है। इसलिए गैर बजटीय खर्चों का अब जीडीपी के 2 फीसदी के बराबर रहने की उम्मीद है।
वहीं, पहले आशंका यह थी कि यह जीडीपी के 4 से 6 फीसदी के बराबर तक जा सकता है। इस हिसाब से पूरा राजकोषीय घाटा भी इस साल जीडीपी के 6.6 फीसदी के आस-पास ही रहेगा।
ऐसे में तो राजकोषीय घाटे के कम रहने के मामले में यह साल 1980 के बाद से पांचवा सबसे अच्छा साल साबित होगा, जबकि यह इस दशक का 2007 के बाद दूसरा सबसे अच्छा साल साबित होगा।
धीमी विकास दर इस आंकड़े को बढ़ा सकती है। लेकिन कम विकास दर वाले सालों में राजकोषीय घाटा जीडीपी के 8.5 फीसदी से ज्यादा ही रहा करता था। आज तेल और उर्वरकों की कीमतों में कमी आने की वजह से भारत के पास अब इस मंदी के दौर से बाहर निकलने के कई रास्ते खुल गए हैं।
आज जरूरत है राजकोषीय घाटे को 3 से 4 फीसदी के आस-पास रखने की क्योंकि इस वक्त बुनियादी ढांचे और सस्ते मकानों की काफी जरूरत है। साथ ही, रेपो रेट को भी 4 फीसदी के आस-पास रखने की जरूरत है।
इस वजह से असल रेपो रेट लगभग शून्य के पास पहुंच जाएगी, जिससे मंदी से अच्छी तरह से मुकाबला किया जा सकता है। इन दोनों बातों से निचले और मध्यम वर्ग को काफी फायदा होगा, जिससे जीडीपी को बढ़ाने में मदद मिलेगी। लेकिन इससे महंगाई नहीं बढ़ेगी।
दरअसल, महंगाई का संबंध आजकल वैश्विक स्तर की घटनाओं से ज्यादा होने लगा है। इन फैसलों से सरकार को चुनाव में भी फायदा होगा। अगर ऐसा हुआ तो इन राजकोषीय आतंकवादियों को अपना सिर उठाने का मौका नहीं मिलेगा।
(लेखक नई दिल्ली की परिसंपत्ति प्रबंधन कंपनी ऑक्सस इनवेस्टमेंट्स के अध्यक्ष हैं। ये विचार उनके व्यक्तिगत हैं।)
