आज मुल्क को तीन सवालों के जवाब का बेसब्री से इंतजार है।
पहला, सरकार को आतंकवादी हमले की कितनी आशंका थी और उसने उस जानकारी का क्या किया? दूसरा, कैसे सिर्फ 10 आंतकियों ने इतने जबरदस्त हमलों को अंजाम दिया और क्यों नैशनल सिक्योरिटी गार्ड व दूसरी एजेंसियों को ताजमहल होटल को आतंक के चंगुल से आजाद करने में 60 घंटे लग गए?
तीसरा और आखिरी सवाल यह कि अगर यह हमला हमारी व्यवस्था में खामियों का नतीजा है, तो क्या इसके लिए जिम्मेदार सभी लोगों को इसकी कीमत चुकानी पडेग़ी? अब जो रिपोटर् छनकर आईं हैं, उनके मुताबिक इस हमले से एक हफ्ते पहले खुफिया एजेंसियों ने एक फोन कॉल पकड़ी थी।
उस कॉल के मुताबिक समंदर के रास्ते आंतकी मुंबई पर हमला बोलने ही वाले थे। इससे ज्यादा जानकारी की उम्मीद नहीं की जा सकती है, तो क्या इस आधार पर शहर को बचाने की कोशिश की गई? मुंबई बंदरगाह की तरफ आने का रास्ता काफी संकरा है, जिस पर नजर रखने के लिए पुलिस को ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती।
उसे कम से कम संदिग्ध गतिविधियों और आने वाली नौकाओं पर तो नजर रखनी ही चाहिए थी। 1993 के धमाकों के बाद भी तो पुलिस ने इसी तरह से नजर रखी थी।
उन धमाकों के लिए भी बारूद पानी के जरिये ही मुंबई शहर में आया था। आज भी नावों के मालिकों को याद है कि तब किस तरह उनकी नावों पर कड़ी निगाह रखी जाती थी?
उनके रजिस्ट्रेशन के कागजात को अक्सर चेक किया जाता था और यात्रियों की तलाशी ली जाती थी। यह काम तो इस बार भी हो सकता था, लेकिन हुआ नहीं। होटलों को भी हमलों की चेतावनी दी गई थी, लेकिन उनकी सुरक्षा व्यवस्था बचकानी थी।
दूसरी तरफ, लोगों को यह बात नहीं समझ नहीं आ रही है कि क्यों एनएसजी के तेज-तर्रार कमांडो को भी इस होटल पर कब्जा जमाए चार आतंकवादियों को खत्म करने में 60 घंटे लग गए? इस बारे में दो सफाई दी जा रही है। पहली बात यह है कि कमांडो बंधकों को कोई नुकसान नहीं पहुंचाना चाहते थे।
दूसरी ओर, आतंकवादी होटल के नक्शे से अच्छी तरह से वाकिफ थे। एनएसजी को वहां पहुंचने में पूरे नौ घंटे लग गए थे। ऐसे में अधिकारियों को कम से कम होटल के मैनेजमेंट से पूरे होटल का नक्शा तो हासिल कर लेना चाहिए था।
इससे कमांडो को अपनी रणनीति को और भी अच्छी तरह से बनाने में मदद मिलती।
आखिर में, शिवराज पाटिल ने गृहमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया क्योंकि उनकी काफी आलोचना हो चुकी थी। कई लोगों के मुताबिक यह काम तो उन्हें काफी पहले ही कर देना चाहिए था।
पी.चिदंबरम तेज दिमाग वाले शख्स हैं, जो नतीजों को ध्यान में रखते हैं। इसके पहले वह आंतरिक सुरक्षा मामलों के राज्यमंत्री भी रह चुके हैं।
इस लिहाज से सही शख्स को यह कुर्सी सौंपी गई है। 1997-98 की तरह ही इस बार उन्होंने वित्तमंत्री की कुर्सी तब छोड़ी है, तब विकास दर कम हो रही है और सरकारी खजाने पर काफी बोझ है। मौजूदा हालात में प्रधानमंत्री को एक पूर्ण कालिक वित्तमंत्री की जरूरत है।
यह तो एक कामचलाऊ उपाय है कि उन्होंने वित्त मंत्रालय का बोझ उठा लिया है। लेकिन राज्य सरकार का क्या? जाहिर सी बात है, मुख्यमंत्री या उप मुख्यमंत्री को इसकी जिम्मेदारी तो लेनी ही होगी। अगर राजनेताओं को अपनी छवि सुधारनी है तो राजनीति में जिम्मेदारी तो तय होनी ही चाहिए।