हर राजनीतिक या आर्थिक सवाल न्यायालयों पर प्रभाव डालता है। इस समय प्राइवेट कंपनियों के लिए जमीन का अधिग्रहण एक ज्वलंत मुद्दा है। इसलिए इस समस्या पर ढेरों और बड़े आकार के फैसले आप देख सकते हैं।
पिछले सप्ताह सूराराम बनाम जिलाधिकारी मामले में 130 पृष्ठों का फैसला आया। सर्वोच्च न्यायालय ने इस फैसले में लोक कार्य, निजी संपत्ति का अधिग्रहण करने का सार्वभौम अधिकार, निजी कार्पोरेशन को दी जाने वाली जमीन के अधिग्रहण की प्रक्रिया की समयसीमा, जैसे विषयों पर भी अपने विचार रखे।
इस फैसले के बाद लगता है कि जमीन का मालिकाना हक रखने वाले लोगों ने भविष्य के लिए सभी संभव कानूनी तर्क गंवा दिए हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि न्यायाधीशों ने कहा है, ‘प्रथम दृष्टया सरकार ही यह फैसला करने में सबसे उपयुक्त है कि क्या जमीन का अधिग्रहण लोक हित में किया जा रहा है। अगर किसी जमीन के अधिग्रहण के लिए सरकार यह फैसला करती है कि वह लोकहित में जरूरी है तो न्यायालयों को यह हक नहीं है कि वे सरकार से अलग राय दें।
अगर अधिग्रहण का कार्य सांविधिक प्राधिकरण द्वारा किया जा रहा हो तो न्यायालय यह मान लेगी कि यह लोकहित के लिए ही किया जा रहा है। अगर इस प्रक्रिया में प्राधिकरण का नुकसान होता है तो भी इस अवधारणा को बदला नहीं जाएगा।
अगर सरकार उद्योग जगत के माध्यम से इस अधिग्रहण करने के बदले मामूली पैसा देती है तो भी निजी उद्देश्य, लोकहित के उद्देश्य में बदल जाएगा। कंपनियों के लिए अधिग्रहण के लिए विशेष प्रावधान तभी प्रभाव में आएगा, जब वह कुल कीमत का वहन करे, प्रोजेक्ट की योजना बनाने से पहले ही अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरू हो सकती है।’
न्यायालय ने भूमि अधिग्रहण के तीन मुख्य विंदुओं पर विचार किया। पहला, लोकहित के कार्य- इसकी परिभाषा भूमि अधिग्रहण एक्ट के सेक्शन 3 (एफ) में दी गई है जो संतोषजनक नहीं है। इसके बारे में भी तमाम फैसलों में विस्तृत रूप से कहा गया है। न्यायालय ने यह स्वीकार किया, ‘इसमें व्यक्त किए गए विचार स्पष्ट परिभाषा देने में अक्षम हैं।’
10वें विधि आयोग की रिपोर्ट में कहा गया है कि अगर स्पष्ट परिभाषा दी गई है तो यह स्थायी होगी और इसमें फेरबदल के लिए कोई जगह नहीं होगी, ‘जब तक परिस्थितियों में बदलाव न आ जाए।’ इस सेक्शन में खासकर कहा गया है कि लोक हित के कार्यों का मतलब कंपनियों के लिए जमीन का अधिग्रहण नहीं होता, जैसा कि राज्य सरकारें इस समय परोक्ष रूप से कर रही हैं।
वे बदली हुई परिस्थितियों का हवाला देती हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा है कि लोकहित के कार्यों को उदारतापूर्वक परिभाषित किया जाना चाहिए न कि शब्दों के जाल में उलझाया जाना चाहिए। इससे यह मतलब निकलता है कि व्यक्ति विशेष के हित की बात नहीं की गई है, बल्कि यह पूरे समुदाय के कल्याण की बात कही गई है।
दूसरे, न्यायालय ने सर्वोपरि अधिग्रहण-अधिकार का मसला उठाया है, लोकहित में भूमि अधिग्रहण के मामले में सरकार के अधिकार की बात करता है। यह जमीन के मालिक की सहमति के बगैर, उसे उचित मुआवजा देकर होता है।
एक बार फिर यहां निजी और लोक हित का मुद्दा अहम हो जाता है। आर्थिक और राजनीतिक जरूरतें इन अधिग्रहणों को उचित ठहराती हैं। न्यायालय के मुताबिक आधुनिक और ज्यादा उदार विचार यह है कि अधिग्रहीत भूमि को किसी निजी मालिकाना में न दिया जाए, या वह सार्वजनिक उपयोग में काम लाई जाए, ‘यह इस योजना को जनहित में बताने के लिए पर्याप्त होगा।’
इस तरह से परोक्ष लाभ, जैसे सड़क निर्माण, रोजगार और बाजार जमीन के अधिग्रहण को अनिवार्य बना देते हैं।
तीसरी और निर्णायक घोषणा यह है, ‘अगर किसी प्रस्तावित परियोजना से संपूर्ण तौर पर देखने पर विदेशी मुद्रा आती है, इससे रोजगार का सृजन होता है, राज्य को आर्थिक सुरक्षा मिलती है, जिससे राज्य के बड़े हिस्से को लाभ मिलता है तो उसे लोकहित में माना जा सकता है।’
इस स्थिति में निजी जमीन का निश्चित रूप से अधिग्रहण किया जा सकता है और उसे उद्योग को दिया जा सकता है, यदि इससे बहुत बड़ी आबादी को लाभ मिलता है।
न्यायालय के मुताबिक अधिनियम की धारा 6(3) में यह स्पष्ट किया गया है कि अगर सरकार यह घोषित कर देती है कि अधिग्रहण लोकहित में किया गया है, तो यह निर्णायक होगा। चाहे यह पूरी तरह से लोकहित में हो या कंपनी के लिए। बाद वाले मामले में विशेष प्रावधान है।
लेकिन इन दोनों मामलों में की सीमाएं विवाद को जन्म देती हैं क्योंकि कोई भी उद्योग स्थानीय लोगों के लिए हितकारी और व्यापक तौर पर देश के लिए हितकर होता है। इसलिए अधिनियम के खंड 6 के मुताबिक कंपनियों के लिए अधिग्रहण के मामलों में विशेष प्रावधान को छोड़ा जा सकता है।
इस तरह से कुछ खास मामलों में कंपनियों के लिए जमीन अधिग्रहण के मामलों में लोकहित के नियम को लागू नहीं किया जा सकता।
19वीं सदी के अधिनियम में बदलावों के लिए एक विधेयक प्रस्तावित है लेकिन शायद इसे अगले आम चुनावों के समाप्त होने और नई सरकार के सत्ता में आने के बाद ही लाया जा सकता है।
इसमें एक परिवर्तन यह भी है कि जो कंपनी या उद्योग इससे लाभान्वित होता है उससे जमीन की 70 प्रतिशत कीमत वसूली जाए? कुछ अन्य सुधार भी जरूरी हैं। मुआवजे के आकलन को और ज्यादा उदार बनाए जाने की जरूरत है।
लोकहित की परिभाषा को और विशेष बनाए जाने की जरूरत है। सार्वजनिक सूचना, जन सुनवाई और जमीन के मालिक के साथ मोल-तोल को मजबूत किया जाना चाहिए और स्थानीय सरकार को इसमें सक्रियता से भागीदारी निभानी चाहिए।
