भारत के केवल पांच वित्त मंत्रियों को ही अलग-अलग समय पर यह महत्त्वपूर्ण मंत्रालय दो बार संभालने का मौका मिला है। प्रणव मुखर्जी उन लोगों में से एक थे लेकिन बाकियों से एक बड़ा फर्क भी था। बाकी चारों ऐसे वित्तमंत्रियों- टी टी कृष्णमचारी, मोरारजी देसाई, यशवंत सिन्हा और पी चिदंबरम के दोनों कार्यकाल के बीच चार से सात वर्षों का फासला रहा था लेकिन मुखर्जी के मामले में यह अंतराल 25 वर्षों का था। यह लंबा फासला इतने लंबे समय तक अलग-अलग दौर की कांग्रेस सरकारों में भी एक नेता के तौर पर उनकी उपयोगिता बनी रहने का प्रमाण है। मुखर्जी के वित्त मंत्री रहते समय (जनवरी 1982-दिसंबर 1984 और जनवरी 2009- जून 2012) भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन बमुश्किल ही शानदार था। वह अर्थव्यवस्था को न तो बहुत अच्छी स्थिति में ले गए और न ही इसे रसातल में ही जाने दिया। लेकिन जिस तरह से वह कुछ विवादों से निपटे और कुछ विवाद पैदा भी किए, वह अर्थव्यवस्था की उनकी कमान का उल्लेखनीय बिंदु होगा।
मुखर्जी ने पहली बार जनवरी 1982 में नॉर्थ ब्लॉक स्थित वित्त मंत्रालय की बागडोर संभाली तो देश कुछ समय पहले ही आर्थिक संकट से उबरा था और बाद में एक राजनीतिक विवाद भी पैदा हुआ। सरकार ने अपने भुगतान संतुलन स्थिति को संभालने के लिए नवंबर 1981 में अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष से 5.8 अरब डॉलर कर्ज लिया था। जब मुखर्जी वित्त मंत्री बने थे तो बजट पेश करने में महज डेढ़ महीने ही बचे थे। ऐसे मौके पर वह खरे उतरे और मुद्राकोष से कर्ज लेने के फैसले का पुरजोर ढंग से बचाव किया। बतौर वित्तमंत्री अपने पहले कार्यकाल में मुखर्जी मुद्राकोष से कर्ज लेने के राजनीतिक दुष्परिणामों को रोकने में सफल रहे। भारतीय अर्थव्यवस्था के रास्ते पर लौटने से भी उन्हें मदद मिली। जब फरवरी 1984 में उन्होंने अपना तीसरा बजट पेश किया तो उन्होंने मुद्राकोष से मिले कर्ज की अंतिम किस्त की जरूरत से इनकार करते हुए कहा था कि देश भुगतान संतुलन के संकट से उबर चुका है और मुद्राकोष इस राशि को दूसरे जरूरतमंद देशों को दे सकता है।
उन्होंने अनिवासी भारतीयों (एनआरआई) के लिए शेयर बाजार में सूचीबद्ध कंपनियों में निवेश के दरवाजे भी खोले थे। यह कदम विवादित हो गया क्योंकि इस मंजूरी के ही चलते लंदन स्थित मशहूर एनआरआई स्वराज पॉल ने एस्कॉट्र्स और डीसीएम के अधिग्रहण की कोशिश की थी। उस समय अमेठी के सांसद राजीव गांधी ने एनआरआई के भारत में निवेश प्रस्ताव का स्वागत करने के साथ ही भारतीय कंपनियों में शेयरों की खरीद पर एक सीमा तय करने का सुझाव भी दिया था। आखिरकार ऐसी सीमाएं लगा दी गईं ताकि भारतीय कंपनियों के मालिक खतरा न महसूस करें।
एनआरआई निवेश के मुद्दे ने मुखर्जी एवं तत्कालीन आरबीआई गवर्नर मनमोहन सिंह के बीच भी मतभेद को जन्म दिया। सरकार ने एनआरआई को भारतीय बाजार में निवेश की इजाजत देने पर जताई गई आरबीआई की आपत्तियों को नकार दिया। मनमोहन ने बाद में यह स्वीकार किया था कि इस मसले पर सरकार एवं केंद्रीय बैंक के बीच तनाव की स्थिति बन गई थी। एक अन्य अवसर पर भी मुखर्जी एवं मनमोहन के बीच टकराव हुआ था। यह वाकया 1983 का है जब सरकार विवादित विदेशी बैंक बीसीसीआई को बंबई (अब मुंबई) में एक शाखा खोलने की मंजूरी देना चाहती थी। लेकिन मनमोहन ने आरबीआई गवर्नर के तौर पर इस प्रस्ताव का विरोध किया था। फिर सरकार ने आरबीआई को यह निर्देश जारी किया कि वह बीसीसीआई को बंबई में शाखा खोलने की मंजूरी दे। इससे मनमोहन काफी व्यथित थे। लेकिन सरकार यहीं पर नहीं रुकी। मंत्रिमंडल ने बैंकों को लाइसेंस देने के अधिकार से आरबीआई को वंचित करने का फैसला ले लिया। इसके जवाब में मनमोहन ने मुखर्जी और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को अपना इस्तीफा भेज दिया। फिर सरकार ने अपने फैसले पर पुनर्विचार कर अपने कदम पीछे खींचे और संकट टल गया। नॉर्थ ब्लॉक में मुखर्जी की 25 साल बाद वापसी के पहले भी एक आर्थिक संकट आ चुका था। वैश्विक वित्तीय संकट के बाद आर्थिक वृद्धि में गिरावट आ रही थी और राजकोषीय एवं चालू खाता दोनों में ही घाटे की गंभीर स्थिति थी। वित्तमंत्री के तौर पर अपने दूसरे कार्यकाल में मुखर्जी को काफी हद तक प्रत्यक्ष कर कानून में किए गए पश्चवर्ती संशोधन के लिए याद रखा जाएगा। इसके जरिये सरकार को यह अधिकार मिला कि भारत में सक्रिय कंपनियों के साथ शेयर खरीद करने वाली विदेशी कंपनियों पर भी कर लगा सकती है। दरअसल भारत में कारोबार कर रही मोबाइल कंपनी हचिसन एस्सार लिमिटेड के विदेशी मालिकों ने नियंत्रक हिस्सेदारी ब्रिटेन की कंपनी वोडाफोन को बेच दी थी। लेकिन इस सौदे से मिली रकम पर जब वोडाफोन को कर देने को कहा गया तो उसने उसे चुनौती दे दी और उच्चतम न्यायालय से उसे राहत भी मिली।
पश्चवर्ती प्रभाव से कर लगाने के इस फैसले के प्रतिकूल असर को लेकर मुखर्जी के साथी मंत्री एवं खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी आशंकित थे। इससे विदेशी निवेश के माहौल पर प्रतिकूल असर पडऩे की आशंका थी। लेकिन मुखर्जी अपने रुख पर अडिग रहे और कर कानूनों में पिछली तारीख से बदलाव करने की दिशा में आगे बढ़े। उनका मानना था कि सरकारों का पश्चवर्ती संशोधन संबंधी प्रावधान बनाए रखना उनके रुख को सही ठहराता है। मुखर्जी ने वित्तमंत्री के तौर पर कुछ अन्य अहम कदम भी उठाए। मसलन, वित्तीय कानूनों में सुधार के लिए न्यायमूर्ति बी एन श्रीकृष्ण की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन और आरबीआई के दायरे के बाहर एक सार्वजनिक ऋण प्रबंधन कार्यालय का आधार तैयार करना। लेकिन उनके कार्यकाल में इन कोशिशों के नतीजे धीमे ही रहे। प्रत्यक्ष कर संहिता और वस्तु एवं सेवा कर जैसे दो अन्य सुधारात्मक कदमों का भी नतीजा कुछ ऐसा ही रहा। मुखर्जी ने इन क्षेत्रों में सुधारों की जमीन तैयार की लेकिन वित्त मंत्री रहते हुए वह इन सुधारों के लक्ष्यों को हासिल नहीं कर पाए थे।
