सोनिया गांधी ने उदयपुर में कांग्रेस पार्टी के लंबे समय से स्थगित चिंतन शिविर की शुरुआत करते हुए कहा कि पार्टी को खुद को नये सिरे से तलाशना होगा। इस बात से चार सवाल पैदा होते हैं।
कांग्रेस जो गत आठ वर्षों के सबसे गहरे संकट से गुजर रही है, क्या उसे नया स्वरूप दिया जा सकता है?
यदि हां तो यह सारा बदलाव कैसे आएगा?
ऐसे समय में जब विभिन्न क्षेत्रीय ताकतें विपक्ष की भूमिका निभाने के लिए उभर रही हैं तो राष्ट्रीय विपक्षी दल का क्या महत्त्व है?
यदि ऐसा आवश्यक भी हो तो क्या ऐसा अखिल भारतीय विपक्षी दल केवल कांग्रेस हो सकती है? या कोई नया विकल्प भी हो सकता है?
इन सवालों को दूसरी तरह भी पेश किया जा सकता है, खासकर तब जब आपको याद हो कि एक समय हर जगह नजर आने वाली ऐंबेसडर कार कैसी दिखती थी। सीमित भारतीय कार बाजार में इसका दबदबा था और यह उसी तरह सत्ता की प्रतीक थी जैसे दशकों तक कांग्रेस रही।
सन 1980 के आखिर तक मारुति सुजूकी का आकार बढ़ा और 1991 के सुधारों के बाद अन्य आकर्षक मॉडल भारतीय बाजार में आ गए। उस समय हिंदुस्तान मोटर्स के मालिकों और प्रबंधन को यही सवाल करने थे:
क्या हम ऐंबेसडर को नये सिरे से तैयार कर सकते हैं? दूसरा, यदि हां तो यह बदलाव कैसे आएगा? तीसरा, क्या भारतीय कार बाजार के लिए यह आवश्यक है कि यहां एक राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय ब्रांड हो? चौथा, यदि भारत को इसकी आवश्यकता हो भी तो क्या यह कार ऐंबेसडर ही हो सकती है?
यह भी याद रखना होगा कि हिंदुस्तान मोटर्स ने अपनी कार को नया रूप देने के लिए क्या-क्या किया। वह इसके बाहरी स्वरूप में बदलाव लाई, उसने ज्यादा वातानुकूलन क्षमता वाले मॉडल पेश किए, एक जापानी इंजन लगाया लेकिन कार नहीं बच सकी।
कांग्रेस पार्टी को उसी परीक्षण से गुजारिये जिससे ऐंबेसडर गुजरी और आपको पहले दो सवालों का जवाब मिल जाएगा। इतने पुराने ब्रांड को नया रूप देना संभव नहीं है। आपने जो कदम उठाये वे पहले ही नाकाम हो चुके हैं।
कांग्रेस ने जो अधिकांश नये प्रयास किए वे पहले ही नाकाम हो चुके हैं। ताजा उदाहरण है गुजराती नेता हार्दिक पटेल की उदयपुर में अनुपस्थिति। कांग्रेस ने उन्हें युवा प्रदेश अध्यक्ष के रूप में पार्टी में शामिल किया था जो इस रूढि़वादी पार्टी में एक बड़ा बदलाव माना गया था। ममता बनर्जी, वाम दल, जनता दल सेक्युलर (कर्नाटक में), राष्ट्रीय जनता दल, तेलुगू देशम पार्टी (तेलंगाना में) और उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ नये गठबंधन भी नाकाम रहे।
उपरोक्त गठबंधनों के साथ नाकामी इतनी भारी पड़ी कि संभावित साझेदार कांग्रेस के साथ गठजोड़ को अपने लिए बरबादी का सबब मानते हैं। राहुल गांधी ने हाल ही में हमें बताया कि कैसे उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले उनकी पार्टी ने मायावती से संपर्क करने का प्रयास किया था लेकिन उन्हें कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। शरद पवार की राकांपा और झारखंड मुक्ति मोर्चा के अलावा देश में कोई अन्य दल इस समय कांग्रेस को गठजोड़ करने लायक नहीं मानता।
कांग्रेस ने अपने आपको नये सिरे से परिभाषित करने के कई प्रयास किए लेकिन वह नाकाम रही। ‘अंबानी-अदाणी की सरकार’ का नारा देकर उसने वाम रुझान अपनाया, ‘चौकीदार चोर है’ कहकर भ्रष्टाचार विरोधी छवि बनाने का प्रयास किया, मंदिरों के चक्कर लगाये गये और राहुल गांधी ने दत्तात्रेय गोत्र का जनेऊधारी ब्राह्मण दिखने का प्रयास किया। प्रियंका गांधी को चुनाव प्रचार में झोंका गया। अहम राज्यों में नये नेता आजमाये गए, मसलन पंजाब में नवजोत सिद्धू लेकिन उन्हें भी नाकामी हाथ लगी।
ऐसे में शुरुआती दो प्रश्नों का संक्षिप्त उत्तर यह है कि सन 1990 के आरंभ में ऐंबेसडर कार की तरह एक ब्रांड और उत्पाद के रूप में कांग्रेस को भी नये ढंग से अविष्कृत नहीं किया जा सकता है। क्या इसकी आवश्यकता भी है? या उसे इतिहास में यूं ही गायब हो जाने देना चाहिए और भाजपा विरोध की जमीन काबिल उत्तराधिकारियों के लिए छोड़ देनी चाहिए।
सवाल यह है कि चुनौती की विशालता को स्वीकार किए गंभीर आत्मावलोकन कैसे शुरू होगा? आप ट्विटर पर अपनी जीत, अजेयता और अपरिहार्यता की घोषणा नहीं करते रह सकते।
यहां तीसरा और चौथा प्रश्न आते हैं। स्पष्ट है कि किसी को जरूरत हो या नहीं लेकिन कारों का एक राष्ट्रीय स्तर पर दबदबा रखने वाला ब्रांड हमेशा रहेगा। आज यह मारुति हो सकती है, कल हुंडई, उसके बाद टोयोटा और महिंद्रा, टाटा वगैरह।
कारों की प्रत्येक श्रेणी में एक दबदबे वाला मॉडल होगा लेकिन वहां तगड़ी प्रतिस्पर्धा रहेगी। केवल वही बचेंगे जो निरंतर बदलाव लाएंगे और खुद को नये सिरे से खोजेंगे। लेकिन ऐंबेेसडर की तरह जिस कंपनी का नाम ही पुराना पडऩे की गवाही देता हो उसे नया रूप देने की संभावना नहीं है। ऐसे में कांग्रेस के पास वही रास्ता बचा है जो शायद ऐंबेसडर कार के निर्माताओं के पास रहा हो। बाजार को एक नये उत्पाद से चौंका दो, न कि ‘नये, सुधरे हुए और नया रूप प्रदान किए गए’ के। आप एक ध्वस्त हो चुके ब्रांड को नया रूप नहीं दे सकते।
आपको एक नया अविष्कार करना होगा। इसलिए कि अगर आप ऐसा नहीं करेंगे तो चौथा सवाल आपको परेशान करेगा। भारतीय लोकतंत्र में भाजपा को चुनौती देने के लिए एक मजबूत राष्ट्रीय शक्ति की जरूरत है। भले ही निकट भविष्य में वह उसे प्रतिस्थापित न करे लेकिन राजनीतिक संतुलन कायम करने के लिए उसकी मौजूदगी जरूरी है। परंतु 1990 के दशक की ऐंबेसडर की तरह वह कांग्रेस नहीं हो सकती।
यह प्रक्रिया तीन दशकों से चल रही है। पहले जाति आधारित दलों ने ‘धर्मनिरपेक्ष’ और वंचित वर्ग के मतों को हिंदी हृदय प्रदेश में अपने पाले में किया और राज्य दर राज्य कांग्रेस का मत प्रतिशत घटता गया। नये नेताओं में ज्यादातर उसके बागी रहे हैं। ममता बनर्जी, जगनमोहन और हिमंत आदि इसके उदाहरण हैं। बाकी बचे वोट बैंक में आम आदमी पार्टी ने तेजी से सेंध लगायी है।
पार्टी अपना ब्रांड नाम नहीं बदल सकती ठीक वैसे ही जैसे कि वह अपना शीर्ष नेतृत्व नहीं बदल सकती। छोटे-मोटे बदलाव, संशोधन, पद परिवर्तन, गठजोड़, सामाजिक आर्थिक मसलों पर वैचारिक जड़ों की ओर लौटना आदि प्रयास किए गए लेकिन नाकाम रहे और नाकाम होते रहेंगे।
सवाल यह है कि भविष्य क्या है? पार्टी को उदयपुर में मंथन में समय क्यों गंवाना चाहिए? क्या देश की सबसे पुरानी पार्टी को खुद को भंग कर देना चाहिए? जाहिर है न कोई ऐसा चाहेगा, न ऐसी सलाह देगा। कम से कम मैं तो नहीं। विपक्षमुक्त भारत एक त्रासदी होगी। कांग्रेस मुक्त भारत हमें उस ओर तेजी से बढ़ाएगा।
यही वजह है कि ऑर्गनाइजर के पूर्व संपादक और भगवा राजनीतिक धड़े के प्रमुख विचारकों में से एक शेषाद्रिचारी भी कामना करते हैं कि कांग्रेस बची रहे और विकसित हो। उनका यह मत जरूर है कि पार्टी का विभाजन होना चाहिए। कांग्रेस में सन 1960 के दशक से ही विभाजन होता रहा है। कई अवसरों पर कई धड़े उसे अलग हुए। कांग्रेस-ओ, जे, एस, आर, राकांपा, कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी आदि। सवाल यह है कि अब अगर पार्टी में विभाजन होता है तो तो कौन क्या ले जायेगा और क्या पीछे रह जायेगा?
बीते एक दशक में गांधी परिवार पहले ही कई स्थापित नेताओं को गंवा चुका है। यह विभाजन बहुत धीमी गति से हुआ है। अब पार्टी का बचा रहना, नये ढंग से खड़ा होना असंभव लगता है। इकलौता रास्ता यही है कि कुछ नया बनाया जाए। यह काम अतीत की छवि में झांकते हुए नहीं बल्कि भविष्य की दृष्टि से नया उत्पाद तैयार करके होना चाहिए। पार्टी नेहरू, इंदिरा और राजीव को लेकर अपने आग्रह को कम करना चाहिए। पार्टी का समर्थन करने वाले 20 प्रतिशत मतदाताओं के अतिरिक्त कोई अतीत के नाम पर वोट नहीं देगा।
आप ऐंबेसडर कार के रंगरूप को चाहे जितना बेहतर बना दें आप उसे दोबारा नहीं ला सकते। आपके पास केवल एक ही अवसर है कि आप एकदम नयी चीज प्रस्तुत करें लेकिन इसमें भी जल्दी करनी होगी। आप जिस द्वीप पर बैठे हैं वह बाढ़ में तेजी से डूब रहा है।