नौकरशाहों की न्यायिक अधिकारों में अतिक्रमण की प्रवृत्ति जितनी बढ़ रही है, उतना ही न्यायपालिका उसे रोकने की कोशिश कर रही है।
यह नाटक सर्वोच्च न्यायालय में एक दशक से अधिक समय से चल रहा है। यह सिलसिला 1997 में एल चंद्रकुमार बनाम यूनियन आफ इंडिया के मामले में प्रशासनिक न्यायाधिकरण को लेकर शुरू हुआ था। हाल के दिनों के प्रमुख मामले भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग, राष्ट्रीय कंपनी कानून न्यायाधिकरण और इसका अपील फोरम से जुड़े हैं।
प्रिवेंशन आफ मनी लांड्रिग ऐक्ट 2002 के तहत गठित किए जाने वाले न्यायाधिकरणों के मामले में पिछले सप्ताह सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायपालिका की श्रेष्ठता पर बल दिया। इस तरह एक और न्यायाधिकरण वैधानिक विवाद में फंस गया।
परीनास्वरूप बनाम यूनियन आफ इंडिया के इस मामले में दायर जनहित याचिका में चुनौती का आधार वही पुराना है। इसमें फैसला करने वाले न्यायाधिकरण के गठन व अधिकार, अपीली न्यायाधिकरण के चेयरमैन व सदस्यों की योग्यता और उनकी नियुक्ति और इनके इस्तीफे तथा हटाए जाने के प्रावधानों की संवैधानिक वैधता पर सवाल उठाया गया था।
काले धन को सफेद बनाने को रोकने के लिए यह कानून पारित किया गया था और उसमें उन लोगों को दंडित करने का प्रावधान था जो इस काम में लिप्त थे। 2007 में अपीली अधिकरण में सदस्यों नियुक्ति और सेवा शर्तों से संबंधित नियम को भी सरकार ने पारित कर दिया। इसके सदस्यों और अध्यक्ष का चयन राजस्व सचिव की अध्यक्षता वाली समिति को करना था।
स्पष्ट रूप से यह न्यायिक क्षेत्र में हस्तक्षेप का मामला था। सामान्यतया मुख्य न्यायधीश से विचारविमर्श के बाद ही चयन किया जाता है। इसके अलावा कुछ अन्य विसंगतियां भी थीं। 2007 की नियमावली में वित्त और लेखा के क्षेत्र से आने वाले सदस्यों की योग्यता का निर्धारण स्पष्ट रूप से नहीं किया गया था। पैनल का कार्यकाल नहीं तय किया गया था।
इसका चेयरमैन ऐसा व्यक्ति हो सकता है जो व्यक्ति ‘उच्च न्यायालय का न्यायाधीश बनने के योग्य हो’ लेकिन यह जरूरी नहीं था कि वह सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय का न्यायाधीश रहा हो। इसी तरह से न्यायाधिकरण का विधि सदस्य वह व्यक्ति हो सकता था, जिसमें जिला न्यायाधीश पद पर नियुक्त होने की योग्यता हो, लेकिन जरूरी नहीं कि वह जिला न्यायाधीश के पद पर हो या रहा हो।
यह और इसके अलावा कुछ अन्य खामियां भी थीं जो न्यायपालिका की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप करती थीं। खुद मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि इस तरह की आशंकाओं का आधार निर्मूल नहीं है।
इस सिलसिले में न्यायालय की यह टिप्पणी भी सामयिक है, ”यह जरूरी है कि न्यायालय एक सीमा रेखा खींचे जिससे ये निर्धारित हो सके कि संवैधानिक न्यायालयों के लिए निर्धारित कानूनी प्रक्रिया को गलत इरादे से अधिग्रहीत न किया जा सके।
जब न्यायिक कार्य के लिए नए फोरम गठित किए जाएं तो सरकार का यह दायित्व बनता है कि वह देखे कि इसमें संविधान की मूल भावना न आहत हो, जिसके तहत न्यायिक गतिविधियों की स्वतंत्रता के लिए शक्तियों का विभाजन किया गया है।’
शीर्ष अदालत ने इससे भी कड़े शब्दों में कहा, ‘संविधान स्वतंत्र और मुक्त न्यायपालिका की गारंटी देता है और शक्तियों के विभाजन की संवैधानिक योजना को आसानी से और गंभीरतापूर्वक ध्यान में रखना चाहिए, जब कोई भी कानून नियमित न्यायालयों को सभी मामलों में उनके अधिकार से वंचित करता है और नए-नए सृजित न्यायाधिकरणों को अधिकार दिया जाता है, जिन्हें संविधान ने शक्तियां नहीं दी हैं, जैसी कि नियमित न्यायालयों को दी गई हैं।
न केवल न्यायालयों बल्कि न्यायाधिकरणों और उनके सदस्यों की स्वतंत्रता और तटस्थता सुनिश्चित की जानी चाहिए, भले ही वे न्यायिक सेवाओं से नहीं आते हैं। एक ऐसा कवच जो स्वतंत्रता और तटस्थता को सुनिश्चित करता है, वह उस पद पर काम करने वाले व्यक्ति की व्यक्तिगत प्रतिष्ठा की बात नहीं होती बल्कि इससे जनता के अधिकारों की रक्षा होती है।
न्यायपालिका को कार्यपालिका और विधायिका के हस्तक्षेपों से स्वतंत्र रखना जरूरी है।” आखिर में न्यायालय ने वरिष्ठ सलाहकार और विधि अधिकारियों की मदद से नियमों में कुछ संशोधनों की रूपरेखा तैयार की और सरकार ने इसे स्वीकार कर दिया। अब यह सरकार पर निर्भर करता है कि वह नियमों में यथोचित परिवर्तन करे।
पिछले अनुभवों से हमें पता चलता है कि एक बार अगर न्यायालय हस्तक्षेप कर देती है और नौकरशाहों के पर कतर देती है तो वे न्यायाधिकरणों के गठन में दिलचस्पी नहीं दिखाते। कुछ राज्यों में प्रशासनिक न्यायाधिकरण फंड्स के भूखे होते हैं और उनके पास कोई काम नहीं होता।
प्रतिस्पर्धा आयोग की अवधारणा ने अपनी धार खो दी क्योंकि न्यायालय ने इसमें हस्तक्षेप किया और इसमें बाबुओं और न्यायाधीशों की शक्तियों में असंवैधानिक असंतुलन बताया। कर न्यायाधिकरण ने प्रस्ताव रखा कि कंपनी कानून 2002 में एक संशोधन किया जाना चाहिए, वह भी अभी अधर में है क्योंकि एक संवैधानिक पीठ इस बात की जांच कर रही है कि क्या इसके कुछ प्रावधान न्यायपालिका की स्वतंत्रता में आड़े आ रहे हैं।
कार्यकारियों का इन मामलों में सामान्य तर्क यह होता है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था अब ज्यादा जटिल हो गई है और न्यायाधीशों की अंतरराष्ट्रीय कार्पोरेट लेनदेन के मामलों पर ठीक से पकड़ नहीं है, ऐसे में इस क्षेत्र के विशेषज्ञ की जरूरत पड़ती है।
न्यायाधीशों का कहना है कि वे विभिन्न मामलों में सदियों से फैसले करते रहे हैं और वर्तमान संस्था को अगर अतिरिक्त फंड और सुविधाएं मुहैया कराई जाएं तो वे इसको सही ढंग से निपटाने में सक्षम होंगे। लेकिन कार्यपालिका के लोग पर्स को खोलने से कतराते हैं।
यही कारण है कि न्यायालयों और न्यायाधिकरणों के आधारभूत ढांचे की हालत दयनीय है, न्यायाधीशों को कम वेतन दिया जाता है और बकाया बढ़ता जा रहा है।