जो लोग ऐसा सोचते हैं कि पिछले कुछ फसली मौसम में फसलें अच्छी हुई हैं, जिससे किसानों के जीवन स्तर में सुधार आया है उन्हें फिर से विचार करने की जरूरत है।
हकीकत यह है कि ज्यादातर किसानों की हालत बदतर हुई है। इसका प्राथमिक कारण यह है कि कृषि उत्पादों की कीमतों में गिरावट आई है। इसके लिए सरकार की नीतियां जिम्मेदार हैं क्योंकि उपभोक्ताओं को प्रभावित होने से बचाने और महंगाई दर कम करने के लिए ऐसे कदम उठाए गए।
वे किसान ज्यादा प्रभावित हुए हैं जिन्होंने अपनी आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए नकदी फसलों का चयन किया था। जब वे फसलों के लिए तैयारी कर रहे थे तो कीमतें बहुत ज्यादा थीं, लेकिन हालत यह हो गई कि जब किसानों की फसलें तैयार हुईं तो कीमतें गिर गईं। इसका किसानों पर स्वाभाविक रूप से बुरा प्रभाव पड़ा।
इसको समझने के लिए कुछ उदाहरण ही पर्याप्त हैं। उत्तर प्रदेश के हजारों की संख्या में आलू उत्पादक किसानों को ही लीजिए। वे लहसुन के उत्पादन की ओर आकर्षित हुए क्योंकि लहसुन की कीमतें ज्यादा थीं, लेकिन वे इस फेरबदल की प्रक्रिया में हाथ जला बैठे। पिछले साल की तुलना में लहसुन की कीमतों में 80 से 90 प्रतिशत की गिरावट आई है। एक दूसरा उदाहरण लेते हैं।
केरल में कोच्चि और एर्णाकुलम के किसान परंपरागत रूप से नारियल और सुपारी के पौधे लगाते हैं। उन्होंने अधिक आमदनी की आस में वनीला की खेती शुरू की। कुछ साल पहले इसके बीज की कीमत 3000 रुपये प्रति किलोग्राम तक थी, लेकिन अब हालत इतनी खराब हो गई है कि इसकी कीमत 50 रुपये प्रति किलो पर पहुंच गई है, जिससे किसान बर्बादी की कगार पर आ गए हैं।
अगर यह तर्क दिया जाए कि यह स्थानीय मसला है, तो अन्य फसलों का उत्पादन करने वाले किसानों की कहानी भी इससे जुदा नहीं है। मुख्य धारा की फसलें कही जाने वाली तिलहन, कपास, मक्का, और चावल जैसी फसलों का भी यही हाल है।
किसानों ने तिलहन की बुआई बढ़ा दी, खासकर सोयाबीन की, जिसकी कीमतें बुआई के समय बहुत ज्यादा थी। लेकिन अब अंतरराष्ट्रीय से लेकर घरेलू बाजार तक इसकी कीमतों में जबरदस्त गिरावट आ गई है। इस तरह की तमाम रिपोटर् मिल रही हैं कि कीमतों से संतुष्ट न होने के कारण मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के कुछ इलाकों के किसान अपने उत्पादों को रोककर रखे हुए हैं। गुजरात के मूंगफली उत्पादक किसानों का भी बुरा हाल है।
मक्के की खेती का क्षेत्रफल बढ़ा है, जिसकी प्रमुख वजह है कि पोल्ट्री फार्मों और स्टार्च उद्योग की मांग की वजह से इसकी कीमतें अधिक हैं। लेकिन जैसे ही नई फसल तैयार हुई, मक्के का अधिक उत्पादन करने वाले इलाकों में इसकी कीमतें न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से बहुत नीचे चली गईं।
ऐसा ही कुछ कपास के मामले में भी हुआ। यहां तक कि महाराष्ट्र में कपास की खरीद करने वाली कोऑपरेटिव का भी मोहभंग हुआ है और वे किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं दे रही हैं। उन्हें भय है कि खरीद में उन्हें घाटा होगा। उनका कहना है कि यह घाटा महाराष्ट्र सरकार को सहना चाहिए।
इस तरह से किसानों की वर्तमान दयनीय हालत के लिए सरकार की खराब नीतियां ही जिम्मेदार हैं, बढ़ा हुआ उत्पादन और वैश्विक कारक इसके लिए कम ही दोषी हैं। तिलहन के मामले को लें तो सरकार ने न केवल आयात को प्रोत्साहित करने के लिए खतरनाक ढंग से सीमा शुल्क में कटौती की है, जिससे खाद्य तेल सस्ते हो जाएं, बल्कि पाम ऑयल की खुदरा बिक्री पर सब्सिडी देनी भी शुरू कर दी गई।
यह कदम घरेलू कीमतों में कमी करने के लिए उठाया गया। यह कदम तब तक के लिए उठाया गया, जब तक कि ताजा घरेलू फसलें बाजार में न आ जाएं।धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य 850 रुपये प्रति क्विंटल रखा गया, जबकि कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) ने 1000 रुपये प्रति क्विंटल किए जाने की सिफारिश की थी।
इस पर 50 रुपये बोनस तब बढ़ाया गया, जब कुछ राज्यों में किसानों ने जोरदार विरोध किया और उन्होंने सरकारी खरीद केंद्रों का बहिष्कार किया। इससे सरकारी गोदामों में अनाजों के निर्धारित लक्ष्य के पूरा होने पर ही संकट के बादल मंडराने लगे।
इसके अलावा सरकार ने अनाज जमा करने की सीमा में कटौती कर किसानों से निजी कारोबारियों को ऊंची कीमतों पर धान खरीदने से रोक दिया। इसके साथ ही इसके निर्यात पर प्रतिबंध अनावश्यक रूप से बरकरार रखा गया। रिकार्ड उत्पादन की संभावना पहले से थी, जिस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया।
एक तरह से देखें तो किसानों के लिए हेजिंग प्रक्रिया से कीमतों को लेकर कोई खतरा नहीं था। राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना (एनएआईएस) ठीक ढंग से नहीं चल रही है। किसानों के हर्जाने का दावा करीब 920 करोड़ रुपये तक पहुंच गया है, यह एनएआईएस में लंबित है।
इसके चलते जोखिम कम करने का यह तरीका बेकार साबित हो रहा है। अब ज्यादातर किसान बीमा सुरक्षा लेना ही नहीं चाहते हैं। वायदा कारोबार फसलों की कीमतों की नई खोज में मदद कर सकता है, लेकिन वह भी प्रमुख जिंसों के लिए प्रतिबंधित है।
ऑप्शन ट्रेडिंग से किसानों को मदद मिल सकती है जो पहले से ही तय कीमतों पर बिक्री के लिए समझौते के रूप में होता है, लेकिन इसे भी अनुमति नहीं है। अगर सरकार अपनी कृषि नीतियों पर फिर से विचार नहीं करती है तो एक बार फिर ऐसी स्थिति आ सकती है कि किसान आत्महत्या करने को मजबूर हो जाएं।