उच्च तीव्रता वाले आर्थिक संकेतकों की बात करें तो महामारी के कारण लगे आर्थिक झटके से निपटने के मामले में उपभोक्ता रुझानों में सुधार ही सबसे कमजोर रहा है। यह अत्यधिक कष्टप्रद रूप से धीमा भी रहा है।
नवंबर 2021 का उपभोक्ता रुझान सूचकांक, महामारी से प्रभावित नवंबर 2020 के रुझानों की तुलना में 16.1 फीसदी अधिक रहा। परंतु ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात यह है कि ये आंकड़ा महामारी के पूर्व के स्तर यानी नवंबर 2019 की तुलना में 43 फीसदी की गिरावट का रहा। सुधार का कोई अन्य संकेतक इतनी भारी गिरावट वाला नहीं रहा। यह भी सही है कि शायद ही कोई अन्य आर्थिक सूचकांक इतना महत्त्व रखता हो जितना कि उपभोक्ता रुझान सूचकांक। ऐसा इसलिए कि यह सूचकांक आम परिवारों की बेहतरी-उनकी आय में संभावित वृद्धि, भविष्य में आय के संभावित नए स्रोत और जरूरी चीजों के अतिरिक्त खर्च करने की उनकी क्षमता आदि को दर्शाता है।
माना जाता है कि आर्थिक वृद्धि केवल कर संग्रह, माल वहन और विदेश व्यापार में नहीं बल्कि इन मोर्चों पर भी नजर आती है। रोजगार भी आर्थिक बेहतरी का पर्याप्त मापक नहीं है। घटे हुए वेतन के साथ रोजगार को वृद्धि नहीं कह सकते। सही अर्थों में लोगों की वास्तविक आय और व्यय में वृद्धि ही मायने रखती है।
इन मोर्चों पर भारत का प्रदर्शन निराश करने वाला है। बेहतरी का सबसे अच्छा मानक हमें यही बताता है कि दो वर्ष पहले की तुलना में आज हमारी स्थिति 43 फीसदी खराब है। मई 2020 में यह सूचकांक 2019-20 के स्तर से 60 फीसदी नीचे था। तब से अब तक इसमें 44 फीसदी का सुधार हुआ है और यह अब भी पूर्ण सुधार से आधी दूरी पर है। महामारी से अबतक के प्रदर्शन पर नजर डालें तो केवल निवेश के मोर्चे पर ही इतना खराब प्रदर्शन देखने को मिला है।
उच्च तीव्रता वाले अधिकांश अन्य आर्थिक संकेतकों की तरह उपभोक्ता रुझानों में अंग्रेजी के ‘वी’ अक्षर (तेज गिरावट के बाद उतना ही तेज सुधार) की तरह सुधार नहीं दिखा। नवंबर में 39 फीसदी परिवारों ने कहा कि उनकी आय एक वर्ष पहले की तुलना में कम है और 37 फीसदी परिवारों ने आशंका जताई कि एक वर्ष बाद उनकी आय मौजूदा से भी कम हो सकती है। एक वर्ष पहले की तुलना में केवल 6 फीसदी परिवारों को यकीन था कि यह समय गैर टिकाऊ वस्तुएं खरीदने के लिए बेहतर है जबकि 50 फीसदी से अधिक लोगों का मानना था कि इस काम के लिए यह अत्यंत बुरा समय है।
इन सब वजहों से ही लोग खर्च करने के अनिच्छुक हैं और यही अनिच्छा सुधार की राह में सबसे बड़ी चुनौती बनी हुई है और महामारी के बाद आई आर्थिक मंदी से उबरने में वक्त लग रहा है।
कोविड की दूसरी लहर के बाद उपभोक्ता रुझानों में कुछ सुधार नजर आया है। उपभोक्ता रुझान सूचकांक जून के स्तर से 26 फीसदी बेहतर हुआ है। तब से हर माह यह सूचकांक ऊपर गया है। उपभोक्ता रुझानों में भी सुधार नजर आ रहा है। जुलाई में इसमें 11 फीसदी का इजाफा हुआ और सितंबर में बार फिर 8 फीसदी की अतिरिक्त बढ़ोतरी हुई। अन्य महीनों में भी 1-2 प्रतिशत की बढ़त दर्ज की गई। नवंबर में मात्र 1.2 प्रतिशत की बढ़ोतरी दिखी। इजाफे की गति अवश्य धीमी पड़ी है लेकिन इसके बावजूद हर महीने वृद्धि बरकरार रही है।
हालिया वृद्धि में काफी उतार-चढ़ाव रहा है। ग्रामीण भारत के रुझान शहरी क्षेत्रों की तुलना में तेज गति से सुधरे हैं। जून और नवंबर 2021 के बीच शहरी क्षेत्रों के उपभोक्ता रुझान सूचकांक में 18 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई जबकि इसी अवधि में ग्रामीण क्षेत्रों का सूचकांक 30 फीसदी की दर से बढ़ा। शहरी और ग्रामीण रुझानों के बीच का अंतर भी बढ़ा।
सुधार में उल्लेखनीय बात यह है कि जो क्षेत्र फिलहाल बेहतर नजर आ रहे हैं, वे भी महामारी के पहले की तुलना में काफी खराब स्थिति में हैं। नवंबर 2021 के ग्रामीण रुझान 2019-20 के स्तर से 40 फीसदी खराब हैं। शहरी क्षेत्रों के रुझान 2019-20 की तुलना में 49 फीसदी कमजोर हैं।
हाल के दिनों में ग्रामीण भारत के उपभोक्ता रुझानों में महत्त्वपूर्ण वृद्धि के बावजूद 10 फीसदी से भी कम परिवारों ने यह कहा कि नवंबर में उनकी आय एक वर्ष पहले की तुलना में बेहतर रही है। 37 प्रतिशत परिवारों ने कहा कि उनकी आय एक वर्ष पहले की तुलना में कम रही है। जबकि आधे से अधिक परिवारों को अपनी आय में कोई परिवर्तन नहीं नजर आया। एक बड़ी समस्या यह है कि 9 फीसदी से भी कम परिवारों ने यह अनुमान जताया कि आने वाले वर्ष में उनकी आय में सुधार होगा जबकि केवल छह फीसदी परिवारों ने माना कि यह समय गैर जरूरी वस्तुओं पर खर्च के लिए उचित है।
संभव है कि कोविड-19 वायरस, कृषि कानूनों से जुड़ी आशंकाओं और उनके विरोध में हो रहे शांतिपूर्ण प्रदर्शन के खिलाफ सख्ती ने ग्रामीण भारत की भावनाओं को क्षति पहुंचाई हो। अब इनमें से ज्यादातर मसले हल हो चुके हैं और आशा की जानी चाहिए कि ग्रामीण भारत का भविष्य बेहतर होगा।
शहरी भारत के कमजोर रुझानों की समस्या और जटिल है। केवल 8.5 फीसदी परिवारों ने कहा कि उनकी आय पिछले वर्ष की तुलना में बेहतर हुई है। इससे भी कम लोगों ने यह अनुमान जताया कि आनेवाले 12 महीनों में उनकी आय में सुधार होगा। महज 6.5 फीसदी परिवारों ने माना कि आगामी एक वर्ष, बल्कि पांच वर्षों में आर्थिक परिस्थितियों में सुधार होगा। परिणामस्वरूप केवल छह फीसदी से भी शहरी परिवारों को लगता है कि यह गैर अनिवार्य वस्तुएं खरीदने के लिए उपयुक्त समय है।
चूंकि कोविड- 19 के टीके अपेक्षाकृत आसानी से उपलब्ध हैं, ऐसे में वृद्धि और आशावाद से जुड़ी अनिश्चितता अब पीछे छूट गई है। परंतु महामारी ने अर्थव्यवस्था को श्रम शक्ति की कमतर भागीदारी दर और कमजोर पारिवारिक आय के रूप में जो जख्म दिए हैं, उनका भरना अभी शेष है।
(लेखक सीएमआईई के प्रबंध निदेशक एवं मुख्य कार्याधिकारी हैं)
