वैश्विक वित्तीय प्रणाली को जीवन रक्षक उपकरणों पर रखा गया है। पर फिलहाल सारा ध्यान इस ओर है कि किसी तरह मरीज को बचा लिया जाए, गहन उपचार और चिकित्सा बाद में की जाएगी।
मौजूदा समय में नुकसानदायक संपत्तियों को हटाना, जमा राशियों को सुरक्षा देना, ब्याज दरों में कटौती, खस्ताहाल वित्तीय संस्थानों को सहायता उपलब्ध कराना प्राथमिकताएं बनी हुई हैं। इसके बाद आने वाले समय में हाउसिंग के बाजार को उबारने तथा मौद्रिक और वित्तीय नीतियों में बदलाव की कोशिशें की जाएंगी।
पर फिलहाल सारा ध्यान इस ओर है कि वित्तीय उठा पटक के दौर में निवेशकों और आम लोगों की घबराहट को दूर किया जा सके।वित्तीय संकट से अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचना तय है। औद्योगिक जगत में जो मंदी देखी जा रही है, वह 2010 के पहले खत्म हो पाएगी, इसकी संभावना नहीं है।
पहले ऐसा माना जा रहा था कि इस मंदी का असर भारत और चीन जैसे उभरते बाजारों पर नहीं पड़ेगा, पर अब इन उम्मीदों को भी झटका लग चुका है। भारत अगर अपने घरेलू वित्तीय संकट से उबर भी जाता है तो भी देश की अर्थव्यवस्था को निर्यात के संदर्भ में आई मंदी से चोट पहुंचना तय है और साथ ही विदेशी निवेश का टोटा पड़ेगा वह अलग।
औद्योगिक देशों में जारी मौजूदा मंदी अगर महामंदी में तब्दील हो जाती है तो जो लोग हालात सुधरने के दावे कर रहे हैं, वे धरे के धरे रह जाएंगे।नॉरियल रोबीनी इस संकट की वजहों को अपने शब्दों में कुछ इस तरह बयां करते हैं, ‘अचल संपत्ति और वित्तीय क्षेत्र में हाउसिंग का बुलबुला, मॉर्गेज का बुलबुला, इक्विटी का बुलबुला, बॉन्ड का बुलबुला, क्रेडिट का बुलबुला, कमोडिटी का बुलबुला, निजी इक्विटी का बुलबुला और हेज फंडों का बुलबुला, सब एक साथ फूटा है।’
जो वित्तीय संकट हम झेल रहे हैं उसका एक उलटा असर भी हमें देखने को मिल रहा है। अमेरिकी डॉलर विनिमय दर गलत दिशा में बढ़ रही है। और इसकी एक वजह यह है कि अमेरिकी फंड प्रबंधक नकदी की कमी को दूर करने के लिए अपनी विदेशी संपत्तियों को बेचने में लगे हुए हैं।
वहीं कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें इस स्थिति में क्या कदम उठाए जाएं इसका अंदाजा नहीं है और वे सुरक्षा की खोज में अपने पैसे को अमेरिका ले जा रहे हैं। मध्य जुलाई के बाद से यूरो की तुलना में अमेरिकी डॉलर 19 फीसदी मजबूत हुआ है।
काफी समय तक 2008 में युआन में भी मजबूती का रुख था पर उसके बाद यह मजबूती एक तरह से रुक गई और अगर कहें कि अगस्त के बाद से इसकी दर में कमोबेश कोई बदलाव नहीं आया है तो यह गलत नहीं होगा। मार्च से अगस्त के बीच येन के मुकाबले डॉलर में मजबूती आई थी पर उसके बाद इसके मूल्य में अगस्त के स्तर से 9 फीसदी की गिरावट देखी जा चुकी है।
येन के मुकाबले डॉलर अब लगभग मार्च के स्तर पर पहुंच चुका है। हालांकि इधर पिछले कुछ महीनों के दौरान डॉलर के मुकाबले रुपया काफी कमजोर पड़ा है। हो सकता है कि जब भारत इस संकट से उबरने को हो तो इससे ठीक पहले डॉलर के मूल्य में जबरदस्त गिरावट देखने को मिले।
और अगर ऐसा नहीं होता है तो मैक्रो अर्थव्यवस्था में असंतुलन को समाप्त करने के लिए विनिमय दर में बदलाव की उम्मीद भी बेकार होगी। मौजूदा संकट की जड़ें विश्व अर्थव्यवस्था में मैक्रो अर्थव्यवस्था में व्याप्त असंतुलन में छिपी हैं। एक ओर अमेरिका में उममीद से अधिक घाटा देखने को मिल रहा है तो दूसरी ओर चीन और जापान में स्थिति इसके ठीक उलट है।
और इसी के परिणामस्वरूप अत्यधिक तरलता जैसे हालात पैदा हो जाते हैं। अगर इस असंतुलन को दूर करना है तो इसके लिए जरूरी होगा कि युआन और येन के मुकाबले डॉलर के मूल्य में जबरदस्त गिरावट आए। चीनी मुद्रा असंतुलन को दूर करने के लिए अनुमानित दर के एक चौथाई मूल्य पर है और इसमें कोई बदलाव भी देखने को नहीं मिल रहा है।
जापानी मुद्रा भी अनुमानित दर के आधे पर है हालांकि इसमें अभी गति जारी है। हालांकि यूरो और रुपये के मुकाबले डॉलर में प्रतिकूल दिशा में बदलाव आ रहा है। इसका साफ साफ अंदाजा अभी किसी को भी नहीं होगा कि डॉलर संकट का आखिर क्या असर पड़ेगा पर इतना जरूर है कि इससे बड़े कॉरपोरेट जमाकर्ताओं का विश्वास अमेरिकी बैंकों पर से कुछ और डगमगा जाएगा।
वैश्विक वित्तीय प्रणाली को दुरुस्त करने के लिए विनिमय दर को फिर से तय करना त्वरित आवश्यकता न होकर एक ऐसा कदम है जिसे लघु से मध्यम अवधि में उठाया जाएगा। अगर लंबी अवधि के बदलावों को देखें तो इनमें से एक संस्थागत और भौगोलिक बदलाव हो सकता है।
हम पहले ही देश चुके हैं कि खस्ताहाल निवेश बैंकों का अस्तित्व मिट चुका है और हो सकता है कि अत्यधिक लेवरेज्ड हेज फंडों का हाल भी कुछ ऐसा ही हो। असुरक्षित क्रेडिट के दौर में थोक बाजारों को उबरने में कुछ समय लग सकता है। हाल ही में कुछ बड़े वेल्थ फंडों उभर कर आए हैं मौजूदा संकट के बीच कुछ और के उभर कर आने की संभावना है।
कुछ का उभर कर सामने आना इस बात पर निर्भर करेगा कि संकट से किस तरीके से निपटा जाता है। इन सारे संदर्भों में यह देखना भी महत्त्वपूर्ण होगा कि चीन अपने विशाल संसाधनों के साथ किस तरह की भूमिका निभाता है।इस संकट में एक अच्छी बात जो सामने उभर कर आई है वह है ग्रीनस्पैन विचारधारा को मान्यता देना, यानी कि भले ही एक नई संपत्ति का बुलबुला क्यों न पैदा हो जाए, पर बाजार की ताकतों को खुला छोड़ दिया जाए।
फिलहाल विभिन्न देशों के केंद्रीय बैंक एक तरीके से वित्तीय जगत के लिए जनकल्याण का काम कर रहे हैं। कुप्रबंधन के शिकार ऐसे वित्तीय संस्थान जो करीब करीब ढहने के कगार पर हैं, उन्हें बेलआउट पैकेज दिया जा रहा है।
हालांकि इन बड़े वित्तीय संस्थानों के बदहाल स्थिति तक पहुंचने से एक फायदा तो हुआ है कि अब इन पर आम लोगों की निगरानी और सख्त होगी।हालांकि सबसे बड़ा बदलाव पूरे उद्योग के भूगोल में बदलाव होगा। वैश्विक वित्तीय प्रणाली में अब तक न्यू यॉर्क केंद्र की भूमिका निभाता रहा है पर अब उसकी इस भूमिका पर खतरा मंडरा रहा है।
अगर अमेरिका महामंदी की चपेट में आ जाता है तब तो उसके हाथों से यह भूमिका छिननी तय है। नए केंद्र के रूप में लंदन या फिर यूरो क्षेत्र की दावेदारी मजबूत मानी जा रही है क्योंकि यहां वित्तीय सेवाओं के लिए बुनियादी जरूरतें पहले से ही विकसित हैं।
अगर ऐसा होता है तो दुबई, हांगकांग, सिंगापुर और हो सकता है कि मुंबई और शांघाई को भी इसका कुछ फायदा मिल जाए। नई व्यवस्था के तहत चाहे किसी भी शहर को केंद्र की भूमिका निभाने दिया जाए पर उसका हाल भी पहले की तरह न हो इसके लिए जरूरी है कि सबसे पहले मैक्रो अर्थव्यवस्था में मौजूद असंतुलन को दूर किया जाए।