महामारी से जूझ रही दुनिया जिस समय जलवायु परिवर्तन के संकट से निपटने के लिए प्रयासरत है उस दौर में चीन और भारत में बिजली का संकट बुरी खबर है।
बिजली संकट के मामले में चीन, भारत की तुलना में कहीं अधिक प्रभावित है क्योंकि अचल संपत्ति क्षेत्र की कंपनी एवरग्रैंड के पतन के बाद वहां का विनिर्माण और अचल संपत्ति कारोबार संकट से जूझ रहा है। स्थानीय शासन की वित्तीय स्थिति भी खस्ता है। विभिन्न पूर्वानुमान जताने वालों ने 2022 में चीन की वृद्धि का अनुमान 0.5 फीसदी तक कम कर दिया है और चालू तिमाही में यह दर 1.5 फीसदी तक प्रभावित हो सकती है। भारत में कोयले की कमी के कारण अब तक तो चालू वर्ष में वृद्धि अनुमानों में कटौती नहीं की गई है लेकिन यदि त्योहारी मौसम में बिजली की मांग बढ़ती है और औद्योगिक क्षेत्र में बिजली कटौती होती है तो हालात बदल सकते हैं। केंद्रीय बिजली मंत्री ने चेतावनी दी है कि आपूर्ति की बाधा छह महीने तक चल सकती है।
भारत और चीन दोनों ने नवीकरणीय ऊर्जा में काफी निवेश किया है लेकिन बिजली के लिए वे अब भी काफी हद तक ताप बिजली घरों पर निर्भर हैं। कोयला आपूर्ति को लेकर उनकी समस्याएं एक जैसी हैं क्योंकि उच्च गुणवत्ता वाले ताप कोयले की कीमत 200 डॉलर प्रति टन का स्तर पार करके नया रिकॉर्ड बना चुकी है। इससे पहले इसका अधिकतम मूल्य 2008 के वित्तीय संकट के पहले देखा गया था। इससे कोयला आयातकों के विकल्प सीमित हो गए हैं और घरेलू कोयला खनन लडख़ड़ा गया है। देश में कोयले का भंडार 2020 में महामारी की शुरुआत के 5 करोड़ टन से घटकर एक करोड़ टन रह गया है। अक्टूबर के आरंभ में हमारे देश के बिजली संयंत्रों के पास केवल चार दिन की खपत के लायक कोयला था। जबकि उनके पास कम से कम कुछ सप्ताह का कोयला रहना चाहिए।
कुछ ही सप्ताह में दुनिया के नेता संयुक्त राष्ट्र के 26 वें जलवायु परिवर्तन सम्मेलन के लिए ग्लासगो में एकत्रित होंगे। आशा तो यही थी कि हाल के वर्षों में नवीकरणीय ऊर्जा की सफलता विभिन्न देशों को उच्च कार्बन उत्सर्जन वाले जीवाश्म ईंधन-खासकर कोयला से दूरी बनाने के लिए प्रेरित करेगी। अब यह समझना मुश्किल है कि वैश्विक वृद्धि के दो बड़े वाहक देशों में कोयले की कमी से आर्थिक गतिविधियों को नुकसान पहुंचने की खबरों के बीच ग्लासगो में सहमति कैसे बनेगी।
यह बात इसलिए खासतौर पर सही है क्योंकि कोयले की कमी को लेकर जो भी रिपोर्टिंग हो रही है उसमें खासतौर पर यही कहा जा रहा है कि कड़े उत्सर्जन नियमों की वजह से ऐसा हुआ है। भारत जैसे देश में जहां नीति निर्माता अखबारी सुर्खियों की पड़ताल करते हैं, उन्हें यह सोचने के लिए माफ किया किया सकता है कि चीन की समस्याएं हमें यह याद दिलाती हैं कि कोयले से जल्दी दूरी बनाने के क्या नुकसान हो सकते हैं।
लेकिन यह कहानी का केवल एक हिस्सा है और यह सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है। तथ्य यह है कि भले ही विभिन्न देशों में भले ही कई तरह की आपूर्ति संबंधी बाधाएं आ गई हैं लेकिन मौजूदा बिजली संकट की बुनियादी दिक्कतें बाजार ढांचे और संचालन से जुड़ी हैं। हमेशा से ऐसा ही रहा है। जलवायु परिवर्तन से जुड़ी मौसम की अतिरंजना ने आमतौर पर वर्षा के रुख में बदलाव तथा बाढ़ आदि के कारण कोयला खदानों से देश के पूर्वी-मध्य भागों तक कोयला ढुलाई में देरी जैसी समस्याएं ही पैदा की हैं।
चीन में आपूर्ति की बाधा को तवज्जो दी जा रही है लेकिन यह ऐसी तात्कालिक समस्या नहीं है जिससे बाजार पर असर हो और बिजली कटौती की स्थिति बने। दिक्कत यह है कि अंतिम उपभोक्ता के लिए बिजली की कीमत सीमित है। इसका अर्थ यह है कि आयातित कोयले की कीमत में तेजी या अस्थायी आपूर्ति बाधा जैसी स्थिति में मांग स्वत: प्रतिक्रिया नहीं दे सकती। चीन कम्युनिस्ट पार्टी की लोकप्रियता पर उपभोक्ता मूल्य महंगाई के प्रभाव को लेकर अत्यधिक सचेत है और उत्पादक मूल्य तो बढऩे देता है लेकिन बिजली कीमतों समेत उपभोक्ता मुद्रास्फीति पर स्पष्ट नियंत्रण रखता है। बिना कीमतों की स्वतंत्रता के चीन के बिजली संयंत्र अस्थायी आपूर्ति बाधा दूर करने के लिए जरूरी कोयला आयात नहीं कर पाएंगे। ऑस्ट्रेलियाई कोयला आयात न करने के निर्णय के कारण चीन की समस्या और गहरी हो गई है। यह संचालन और प्रबंधन की समस्या है, न कि कड़े नियमन की।
इस बीच भारत में पिछली बार जब देशव्यापी बिजली संकट का खतरा उत्पन्न हुआ था तब कोयला उत्पादन बहुत बाधित था और उस पूरे प्रकरण का पर्यावरण नियमन से कोई संबंध नहीं था। वह समस्या सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों, हड़ताल और भारतीय रेल के भीतर कुप्रबंधन की वजह से पैदा हुई थी। एक बार फिर समस्या कोयले के खनन और खपत में निहित है।
कोल इंडिया का दावा है कि वह महामारी के पहले के स्तर पर उत्पादन कर रहा है। यह एक तरह से रेलवे पर दोषारोपण है कि वह कोयले की ट्रेनों का सही संचालन नहीं कर रहा। हालांकि रेलवे के मालभाड़े से होने वाले राजस्व का आधा और उसके कुल मुनाफे का आधा से अधिक कोयले की ढुलाई से आता है। यहां भी संचालन के मसले को हल करना होगा।
नीति निर्माताओं को इस बिजली संकट के लिए पर्यावरण के अनुकूल नियमों को वजह नहीं मानना चाहिए। बिजली संकट की वजह इस बार भी वही है जो दशकों पहले थी: कीमतों में सुधार की कमी, बुनियादी ढांचे का खराब प्रबंधन और संचालन में समस्या। इसका जलवायु परिवर्तन संबंधी कदमों से कोई लेनादेना नहीं।
