पहले राजकोषीय पैकेज की घोषणा 7 दिसंबर, 2008 को की गई थी और इसके कुछ ही दिन बाद दूसरे राजकोषीय पैकेज की मांग की जाने लगी थी।
अर्थव्यवस्था में मंदी तेजी से बढ़ रही थी और इस कारण लोगों ने दूसरे राजकोषीय पैकेज की मांग भी तेज कर दी थी। साथ ही जिस तरह से विदेशों में लगातार राजकोषीय पैकेजों की घोषणा की जा रही थी, उसे देखते हुए लोगों को भारत में भी इसकी आवश्यकता महसूस होने लगी थी।
संसद में क्रिसमस के पहले जब 55,000 करोड़ रुपये की दूसरी पूरक अनुदान मांग की गूंज सुनाई दी और इस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया तो मैं भी थोड़ा परेशान हो गया था।
तब तक सार्वजनिक आधिकारिक आंकड़ों और बयानों के आधार पर यह गणना कर ली गई थी कि 2008-09 में केंद्र सरकार का वास्तविक राजकोषीय घाटा जीडीपी का करीब 8 फीसदी रह सकता है। और इसमें अगर राज्यों के राजकोषीय घाटे को जोड़ दें तो यह जीडीपी का 11 फीसदी हो जाएगा।
आजादी के बाद से ही भारत का राजकोषीय घाटा कभी भी इतना अधिक नहीं रहा है। शायद आपको एक बार में मेरी इस गणना पर विश्वास न हो।
तो चलिए आप खुद ही इस बात का फैसला कीजिए। शुरुआत करते हैं पी चिदंबरम के फरवरी में जारी किए गए बजट अनुमानों से, जिसमें उन्होंने कहा था कि राजकोषीय घाटा जीडीपी का 2.5 फीसदी रहेगा।
इसमें आप अक्टूबर की पूरक मांग को जोड़ दें जो जीडीपी की 4 फीसदी थी। इसमें दिसंबर की दूसरी पूरक मांग को भी शामिल कर लें जो जीडीपी का 1 फीसदी था। यह अनुदान अधिकांश नकदी के रूप में था और कुछ हिस्सा खाद बॉन्ड का भी था।
बजट के बाद कर में जो रियायतें दी गईं और आर्थिक मंदी की वजह से जो राजस्व का नुकसान हुआ, उसके लिए जीडीपी का 1.5 फीसदी भी जोड़ लें।
इस तरह कुल जमा राजकोषीय घाटा 9 फीसदी के करीब आता है। अब खर्च में जो कटौती की गई और 3जी स्पेक्ट्रम की नीलामी से जितने राजस्व की प्राप्ति होगी, उसके लिए इस आंकड़े में से 1 फीसदी घटा लीजिए।
तो हमारे पास 8 फीसदी का केंद्रीय राजकोषीय घाटा बचता है। अब इसमें राज्यों के 3 फीसदी के राजकोषीय घाटे को भी शामिल कर लीजिए तो हमारे पास कुल राजकोषीय घाटा 11 फीसदी रह जाता है।
दूसरे राहत पैकेज की घोषणा के पहले मैं इस बात को लेकर बहुत आशंकित था कि इसमें क्या क्या शामिल किया जाएगा। मैं इस बात से पूरी तरह से सहमत हूं कि सितंबर के बाद देश में जैसे आर्थिक हालात बन गए थे, उन्हें देखते हुए एक बड़े राहत पैकेज की जरूरत थी।
पर जिस तरह से पिछले अनुमानों से आगे निकलते हुए भी देश 11 फीसदी के राजस्व घाटे की ओर कदम बढ़ा रहा था, उसे ध्यान में रखकर शायद बहुत बड़े राहत पैकेज को मंजूरी देना भी अक्लमंदी नहीं थी। 3 जनवरी की सुबह मैंने अखबार में दूसरे मौद्रिक राजकोषीय पैकेज के बारे में पढ़ा।
इसके एक दिन पहले ही सरकार ने इस राहत पैकेज की घोषणा की थी। दूसरा राहत पैकेज गैर-राजकोषीय था और इसे जानकर मैंने राहत की सांस ली। अब हम इस राहत पैकेज में शामिल अपेक्षाकृत छोटी रियायतों को छोड़कर बड़ी बड़ी रियायतों पर चर्चा करेंगे।
अगर इस पैकेज पर नजर डालें तो पता चलता है कि इसमें जिन प्रमुख अनुदानों या रियायतों को शामिल किया गया, वे राजकोषीय नहीं थे। यानी कि सरकार ने न तो कोई बड़े खर्च की घोषणा की थी और न ही कर में कोई बड़ी छूट दी गई थी।
इन्फ्रास्ट्रक्चर फाइनैंसिंग के लिए आईआईएफसीएल को अतिरिक्त कर मुक्त बॉन्ड्स जारी करने से राजस्व का नुकसान तो होगा, पर इसका असर अगले वित्तीय वर्ष से पहले देखने को नहीं मिलेगा।
सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के ढांचे में योजनाबद्ध तरीके से बदलाव किया जाना है और यह भी वित्त वर्ष 2009-10 में होना है। इस बदलाव प्रक्रिया के लिए भी नकदी की जरूरत नहीं होगी।
इस पैकेज में शामिल सभी 9 मदों का लक्ष्य अर्थव्यवस्था में रफ्तार लाना है, पर इनमें से केवल एक मद ही असल में राजकोषीय है, जिसका असर वित्तीय वर्ष 2008-09 में देखने को मिलेगा।
कहना गलत नहीं होगा कि इस पैकेज को बहुत सोच विचार कर तैयार किया गया है, क्योंकि मौजूदा वित्तीय वर्ष में बड़ी राजकोषीय घोषणाओं की संभावना नहीं बनती थी और इसे ध्यान में रखते हुए ऐसा पैकेज पेश किया गया है जिससे देश पर बहुत अधिक वित्तीय भार न पड़े।
हाल ही में भारतीय रिजर्व बैंक ने मौद्रिक नीति पैकेज की जो घोषणा की है, अब जरा उसकी चर्चा करते हैं। आरबीआई ने सीआरआर में 0.5 फीसदी और रेपो दर और रिवर्स रेपो दर में 1-1 फीसदी की कटौती की है।
सच कहूं तो जब आरबीआई तरलता समायोजन सुविधा (एलएएफ) के जरिए बाजार में मौजूदा अतिरिक्त नकदी को वापस ले रहा था, तो ऐसे में सीआरआर घटाने की क्या जरूरत थी। घटती बाजार ब्याज दरों पर इसका कम ही असर पड़ेगा जो मौजूदा चिंता का विषय है।
दूसरी तरफ इससे विदेशी मुद्रा बाजार का दैनिक प्रबंधन और भी मुश्किल हो जाता है। इसकी वजह यह है कि इस कदम से विनिमय दरों पर दबाव और बढ़ जाता है। हां रेपो और रिवर्स रेपो दर घटाने से ब्याज दरें घट सकती हैं।
पर पिछले तीन महीनों में इन मौद्रिक दरों को तीन फीसदी कम किया जा चुका है और उस दौरान हम यह देख चुके हैं कि बैंकों के लिए ब्याज दर घटाने के पीछे और कई सारी वजहें होती हैं। केवल रेपो दर और रिवर्स रेपो दर को घटाने भर से ऋण और जमा दरें नहीं घटती हैं।
बैंकों की ओर से ब्याज दरें घटाने के लिए ये कारण भी महत्त्वपूर्ण होते हैं जैसे, उन्होंने पिछले दिनों कितनी अधिक दर पर उधार लिया था, राजनीतिक दबावों के चलते क्या बैंकों को पिछले काफी समय से अपनी जमा दरों को बहुत कम रखना पड़ा है और साथ ही तेज रफ्तार महंगाई।
अगर हम वाणिज्यिक बैंकों की ब्याज दरों में आई गिरावट को आगे ले जाना चाहते हैं तो इसके लिए हमें कुछ अलग सोचना पड़ेगा। एक सुझाव यह हो सकता है कि वाणिज्यिक बैंकों की ओर से दिए जाने वाले नए ऋणों पर कुछ महीनों के लिए अस्थायी तौर पर सब्सिडी दी जाए।
अगले तीन महीनों के लिए सभी नए बैंक ऋणों पर 3 फीसदी की सब्सिडी देने पर विचार किया जा सकता है। उसके बाद अगले तीन महीनों के लिए इस सब्सिडी को घटाकर 2 फीसदी और फिर उसके अगले 3 महीनों के लिए सब्सिडी को घटाकर 1 फीसदी किया जा सकता है।
आरबीआई को बैंकों के लिए ऐसी सब्सिडी मुहैया कराने का अनुभव भी है। उसने किसानों की ऋण माफी के दौरान भी बैंकों को इसी तरह की सब्सिडी मुहैया कराई है। बैंकों को यह सब्सिडी उपलब्ध कराने में सरकार पर बहुत अधिक बोझ भी नहीं पड़ेगा।
अनुमान के मुताबिक इस तरह की सब्सिडी से करीब 7,000 से 8,000 करोड़ रुपये का वित्तीय भार पड़ेगा जो जीडीपी का महज 0.1 फीसदी हिस्सा ही होगा। अगर हालात सामान्य हों, तो मैं ऐसे कदम उठाने की सलाह कभी नहीं दूंगा। पर अगर स्थितियां प्रतिकूल हों, तो शायद ऐसे कदम उठाने में कोई हर्ज नहीं है।