गत फरवरी में रूस द्वारा यूक्रेन पर आक्रमण किए जाने के बाद कई भारतीय चिकित्सा छात्रों को वहां से निकालना पड़ा। 2020 में चीन में कोविड के कारण लगे गंभीर लॉकडाउन के बाद कुछ भारतीय छात्रों को वहां से भी लाना पड़ा था। सवाल यह है कि हमारे छात्र ऐसी जगहों पर पढऩे क्यों जाते हैं जहां हालात इतने खराब हो सकते हैं?
इसके दो स्पष्ट जवाब हैं: देश में मेडिकल सीटों की कमी और निजी संस्थानों में शिक्षा की भारी लागत। देश में निजी चिकित्सा शिक्षण संस्थान एमबीबीएस के पाठ्यक्रम के लिए एक करोड़ रुपये तक शुल्क लेते हैं जबकि सरकारी संस्थानों में 10 लाख रुपये में यह पढ़ाई हो जाती है। रूस और यूक्रेन या बांग्लादेश में भी यह पढ़ाई भारत की तुलना में एक तिहाई खर्च में हो जाती है।
इस लागत पर तो चिकित्सक के बजाय लालची और स्वार्थलोलुप व्यक्ति तैयार होंगे। सामान्य गणित आपको बता देगी कि अगर आप चिकित्सा शिक्षा में एक करोड़ रुपये न खर्च करें तो भी न्यूनतम सावधि जमा दर पर भी आप अपने बाकी पूरे जीवन के दौरान 50,000 रुपये प्रति माह कमा सकते हैं। बचा हुआ पैसा दूसरा कोई कौशल सीखने में लगाया जा सकता है जिसके सहारे आप अच्छा जीवन बिता सकते हैं। लब्बोलुआब यह कि भारतीय स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र गंभीर संकट की दिशा में बढ़ रहा है, जन स्वास्थ्य की बात तो छोड़ ही दें।
कई भारतीय अपना इलाज खुद इसलिए भी करते हैं कि ज्यादा लोग अस्पताल और चिकित्सक का खर्च नहीं उठा सकते। यही वजह है कि चिकित्सा की विभिन्न धाराओं के बीच विवाद देखने को मिलते हैं। गत वर्ष भारतीय चिकित्सा महासंघ और बाबा रामदेव एलोपैथी और आयुर्वेद को लेकर मौखिक विवाद में उलझ गए थे। वे बाजार हिस्सेदारी के लिए लड़ रहे हैं। कहना न होगा कि महंगी चिकित्सा शिक्षा से बने कई चिकित्सक अपना वचन निभाने के बजाय निवेश पर प्रतिफल वापस पाने के लिए प्रयास करेंगे।
क्या कोई तरीका है? उत्तर है हां। जैसा कि हमने महामारी के दौरान देखा, जब कई चिकित्सकों ने मरीजों को दूर से मशविरा दिया क्योंकि वे अस्पताल नहीं आ सकते थे। तकनीक, कृत्रिम मेधा और मरीजों के डेटा बेस के माध्यम से चिकित्सा सेवा को सस्ता बनाया जा सकता है। हमें चिकित्सा शिक्षा की हाइब्रिड व्यवस्था की ओर बढऩे की भी आवश्यकता है जहां एलोपैथी आयुर्वेद या यूनानी किसी भी पाठ्यक्रम का व्यक्ति एक समेकित शैक्षणिक मॉड्यूल के बाद बुनियादी चिकित्सा कर सके। अगर उनका सामना रोजमर्रा की बीमारियों के अलावा किसी बीमारी से हो तो वे विशेषज्ञों को मामला रेफर करने का काम कर सकते हैं।
कुछ वर्ष पहले अरबपति वेंचर कैपिटलिस्ट विनोद खोसला ने उस समय चिकित्सा समुदाय को नाराज कर दिया था जब उन्होंने एक बुनियादी प्रश्न कर दिया था: हमें और अधिक चिकित्सकों की आवश्यकता है या अलगोरिद्म की? वह ऐसे कई स्टार्टअप में निवेश करते रहे हैं जो कृत्रिम मेधा के इस्तेमाल तथा बीमारियों के डेटाबेस के सहारे स्वास्थ्य सेवाओं को अधिक किफायती और सस्ता बनाना चाहते हैं।
बहरहाल, प्रौद्योगिकी से दो काम होते हैं: पहला, इससे कौशल की मांग का ध्रुवीकरण होता है, उच्च कौशल वाले कामों को अधिक मेहनताना मिलता है तथा कम कौशल वाले काम को कम मेहनताना। दूसरा, तकनीक के कारण कम कौशल का प्रबंधन आसान होता है। ठीक वैसे ही जैसे ओला चालक को गूगल मैप पढऩे के अलावा किसी काबिलियत की आवश्यकता नहीं होती उसी तरह भविष्य के स्वास्थ्य सेवा कर्मी भी एमबीबीएस चिकित्सक की तरह बुनियादी बीमारियों का इलाज करने में सक्षम होंगे।
जैसा कि खोसला ने बार-बार इशारा किया, विचार कीजिए एक आम चिकित्सक क्या करता है? वह आपसे आपकी समस्या पूछता है, बुखार नापता है, नाड़ी देखता है और अन्य जरूरी चीजों को मापता है। तकनीक की बदौलत यह सारा काम घर पर सस्ते उपकरणों के जरिये किया जा सकता है। इसके बाद चिकित्सक से सलाह मांगी जा सकती है। चिकित्सकों को केवल आपका उपचार लिखना होगा। वैकल्पिक तौर पर वह आपको किसी विशेषज्ञ के पास भेज सकता है ताकि और अधिक जांच कराई जा सकें। लेकिन इन उपकरणों के कारण पैथॉलजी लैब्स को तगड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ेगा। ऑक्सीमीटर और रक्त शर्करा का स्तर मापने की मशीन इसका उदाहरण हैं। आने वाले दिनों मे ऐसी मशीनें बढ़ेंगी।
बदलाव को लेकर चिकित्सा पेशे और स्वास्थ्य सेवा उद्योग के प्रतिरोध को समझा जा सकता है। ज्ञान के एकाधिकार ने उन्हें महंगी सेवा मुहैया कराने का अवसर दिया जबकि शैक्षणिक संस्थानों को ऊंचा शुल्क वसूलने का मौका मिला। तकनीक और अलग-अलग विधाओं में शिक्षा मिलने से यह अवसर हाथ से जाते रहेंगे। आयुर्वेद और यूनानी चिकित्सा के मौजूदा चिकित्सक तथा नर्स आदि भी बुनियादी चिकित्सा देने की स्थिति में रहेंगे। चिकित्सा की लागत में नाटकीय रूप से कमी आएगी।
इतना ही नहीं चिकित्सकों के लिए भी बिना तकनीक के नित नए ज्ञान को संजोना मुश्किल होगा। ऐसे में चिकित्सकों को भी प्रौद्योगिकी को अपनाना होाग। आय बढ़ाने का एकमात्र जरिया होगा उत्पादकता में सुधार।
स्वाभाविक सी बात है कि जिन लोगों ने एमबीबीएस की डिग्री हासिल करने में एक करोड़ रुपये खर्च किए होंगे वे नए लोगों के आगमन और प्रतिस्पर्धा बढऩे से आय में कमी होने पर प्रसन्न नहीं होंगे लेकिन क्या उच्च लागत वाली वस्तुओं या सेवाओं से निपटने के लिए मजबूत प्रतिस्पर्धा के अलावा कोई तरीका है?
अचल संपत्ति हो या स्वास्थ्य सेवा, तकनीक आधारित सेवाओं के जमाने में उच्च आय अस्थायी है। जिस तरह बिल्डरों को ऊंची इमारतें बनाने की इजाजत देकर तथा 3डी निर्माण की मंजूरी से जमीन की कीमतें गिराई जा सकती हैं वैसे ही प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल, चिकित्सा शिक्षा सहज बनाकर और चिकित्सकों की आपूर्ति बढ़ाकर स्वास्थ्य सेवा की लागत कम की जा सकती है। जल्दी ही ऐसा वक्त आएगा कि आपका पारिवारिक चिकित्सक आपसे ज्यादा शुल्क नहीं ले पाएगा। उसका ज्ञान इंटरनेट पर नि:शुल्क उपलब्ध होगा और उसका जांच कौशल स्मार्ट तकनीक के आगे फीका पड़ जाएगा।
देश का स्वास्थ्य सेवा तंत्र कम लागत में आधुनिक बनाया जा सकता है और इकलौती बड़ी चुनौती होगी चिकित्सकों और अस्पतालों जैसे लाभार्थियों का प्रतिरोध। भविष्य कम लागत वाली हाइब्रिड स्वास्थ्य सेवाओं का है जहां तकनीक और चिकित्सकों का किफायती इस्तेमाल किया जा सके।
(लेखक स्वराज्य पत्रिका के संपादकीय निदेशक हैं)
