पिछले महीने सस्ती विमान सेवाएं (एलसीसी) मुहैया कराने वाली कंपनी गो एयर ने भी अपनी पहचान से उलट एक नई शुरुआत की। इस कंपनी ने अपनी विमान सेवाओं में बिजनेस क्लास की शुरुआत की।
सस्ती विमान सेवाएं मुहैया कराने वाली किसी कंपनी के लिए यह ऐसा कदम था मानो कोई धुर वामपंथी अपने पुराने कुर्ते को छोड़कर सूट बूट पहनकर अपना पूरा चोला ही बदल दे। गो एयर ने इस नई सेवा को ‘गो कम्फर्ट’ का नाम दिया है। इसमें बढ़िया खाना और सेवाएं, जिसमें तथाकथित ‘फ्रिल्स’ भी शामिल हैं, यात्रियों को दी जाती हैं। इसका किराया इकनॉमी क्लास से ज्यादा है।
गो कम्फर्ट की शुरुआत को वैल्यू सेवाओं में गो एयर की एंट्री के तौर पर देखा जा रहा है। इसके साथ ही गो एयर एक हाइब्रिड कंपनी बनने की ओर कदम बढ़ा चुकी है जो सस्ती विमान सेवाएं मुहैया कराने के साथ-साथ फुल सर्विस कैरियर भी हो।
कंपनी के सीईओ एलगार्डो बडियाली कहते हैं, ‘वृद्धि की योजना बनाने से पहले गो एयर हर स्तर पर बाजार का मुआयना करना चाहती है।’ दरअसल पहले से ही कहा जाता रहा है कि भारत में कोई कंपनी केवल सस्ती विमान सेवाएं मुहैया कराकर ही आगे नहीं बढ़ सकती। और हाल में गो एयर के इस कदम ने फिर से ऐसी बहस को हवा दी है।
विजय माल्या का ही उदाहरण लें। माल्या ने 2005 में किंगफिशर एयरलाइंस की शुरुआत की। किंगफिशर ने भी सस्ती विमान सेवा के तौर पर ही उड़ान भरी थी। लेकिन जल्द ही माल्या को अपनी रणनीति में बदलाव करना पड़ा। नतीजतन, किंगफिशर सस्ती विमान सेवाएं मुहैया कराने वाली कंपनी से प्रीमियम एयरलाइन बन गई।
गो एयर की इस नई पहल पर माल्या कहते हैं, ‘सस्ती विमान सेवाओं की हालिया चैंपियन गो एयर अगर ऐसा कदम उठाती है तो इससे वही बात साबित होती है जो मैं अरसे से कहता आया हूं। मेरा अब भी यही कहना है कि सस्ती विमान सेवाओं का भारत में चल पाना खासा मुश्किल है।’
दरसअल माल्या इस कवायद में पहले से ही जुटे हुए हैं जिसकी शुरुआत गो एयर ने अब आकर की है। देश की सबसे पहली सस्ती विमानन सेवा कंपनी एयर डेक्कन का पिछले साल दिसंबर में किंगफिशर के साथ विलय हो गया था। माल्या ने उसकी कायापलट कर उसे वैल्यू कैरियर में तब्दील कर दिया और नया नाम दिया ‘किंगफिशर रेड’ का।
वैसे इस खेल में माल्या केवल अकेले खिलाड़ी नहीं हैं। सहारा समूह की विमानन सेवा कंपनी एयर सहारा की ही बात करें तो जेट एयरवेज ने इसका अधिग्रहण करने के बाद इसका नाम बदलकर जेटलाइट कर दिया और इसके परिचालन की रणनीति में भी बदलाव कर दिए।
अधिग्रहण से पहले जेट एयरवेज और इंडियन एयरलाइंस की तरह ही एयर सहारा भी फुल सर्विस कैरियर हुआ करती थी। लेकिन अधिग्रहण के बाद जेट ने इसमें खाने की व्यवस्था ही खत्म कर दी और इसको वैल्यू कैरियर तक सीमित कर दिया।
क्यों उठ रहे हैं ऐसे कदम?
अब जरा इस बात पर भी गौर कर लिया जाए कि कंपनियां किस बात के चलते ऐसा कदम उठा रही हैं। दरअसल, इसका बड़ा ही सीधा और सपाट जवाब है कि देश में सस्ती विमान सेवाओं का बाजार सिमटता जा रहा है। इस साल जनवरी में सस्ती विमान सेवाओं का बाजार जहां 47 फीसदी था, वहीं सितंबर में यह घटकर 41 फीसदी तक पहुंच गया।
इसी दौरान इन उड़ानों में यात्रियों की तादाद भी 65 फीसदी से घटकर 54 फीसदी हो गई। इस बात को मानने में किसी को गुरेज नहीं होना चाहिए कि देसी विमानन उद्योग मंदी के दौर से गुजर रहा है। ऐसे दौर में भी सस्ती विमानन सेवाओं का बाजार कम हो रहा है।
ट्रैवल कंपनियों के मुताबिक अगस्त के मुकाबले सितंबर में सस्ती विमानन सेवाओं की बिक्री में जहां 37 फीसदी की गिरावट आई वहीं फुल सर्विस कैरियर में यह गिरावट केवल 13 फीसदी की हुई। यही नहीं पिछले पांच महीनों में सस्ती विमानन सेवाओं के तीन मुख्य कार्यकारी अधिकारियों को अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी है।
ये नाम स्पाइसजेट के सिद्धांत शर्मा, इंडिगो के ब्रूस एश्बी और गो एयर के वॉन ल्यूडर्स के हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि देश में सस्ती विमानन सेवाओं के टिकट वाजिब कीमतों पर ग्राहकों को मिल ही नहीं पाते और जब ग्राहक टिकट खरीदते हैं तो एक एलसीसी और फुल सर्विस कैरियर में बहुत ज्यादा फर्क नहीं रह जाता।
इस बाजार पर नजर रखने वाले एक विशेषज्ञ का कहना है, ‘जून में एक वक्त ऐसा दौर आ गया था जब एलसीसी और फुल सर्विस कैरियर का शुरुआती किराया 5,000 रुपए हो गया था। जाहिर है, ऐसे में ग्राहक फुल सर्विस कैरियर से ही यात्रा करना पसंद करेगा। ‘
एलसीसी की सफलता का एक ही सूत्र है वह यह कि उन्हें किराया कम ही रखना होगा और यात्री उनसे यही अपेक्षा भी करते हैं। स्पाइसजेट के पूर्व सीईओ सिद्धांत शर्मा कहते हैं, ‘आपको यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि हम आम लोगों के लिए किफायती विमानन सेवाएं मुहैया कराते हैं। हमारा लक्षित ग्राहक कॉर्पोरेट यात्री नहीं है। ‘
पिछले तीन महीनों में भारतीय विमानन कंपनियां इन दोनों श्रेणियों के बीच उचित अंतर रखने का फैसला कर चुकी हैं। शर्मा कहते हैं, ‘अप्रैल से जून के बीच एलसीसी और फुल सर्विस कैरियर के किरायों में जहां 15 फीसदी का ही अंतर था। वहीं अब आकर यह अंतर 30 से 33 फीसदी तक हो गया है। इसको अच्छा संकेत ही समझा जाना चाहिए।’
फिलहाल जितनी कंपनियों के विमान आसमान में उड़ान भर रहे हैं, उनमें से केवल इंडिगो और स्पाइसजेट को ही सही मायनों में एलसीसी का दर्जा दिया जा सकता है। इससे सवाल यही उठता है कि पांच साल से भी कम वक्त में ही एलसीसी मॉडल क्या पूरी तरह हवा हो गया?
दरअसल इस मुश्किल दौर की शुरुआत भी जी. आर. गोपीनाथ की एयर डेक्कन के साथ हुई। यह भी संयोग ही है कि देश में एलसीसी की बुनियाद भी गोपीनाथ ने एयर डेक्कन के साथ ही रखी थी।
शुरुआत में सब कुछ था बढ़िया
गोपीनाथ ने सबसे पहले एयर डेक्कन के साथ एलसीसी का दौर शुरू किया। उनका पहला मंत्र था कि किराया काफी कम रखा जाए जो आम आदमी की पहुंच में हो, दूसरा यह कि एयरलाइन हर संभव जगह (इनमें कांडला, पठानकोट, तूतीकोरन, विजयनगर और रायपुर जैसे शहर शामिल हैं। ) के लिए उड़ान संचालित करेगी।
तीन साल में डेक्कन ने 65 हवाई अड्डों पर 43 हवाई जहाजों के साथ रोजाना के हिसाब से 250 उड़ानें संचालित कीं। बाजार में कंपनी की हिस्सेदारी भी 20 फीसदी हो गई। इसके कई तीर एकदम सटीक निशाने पर लगे भी।
मसलन, रायपुर, विजाग और अहमदाबाद जैसे शहरों में हवाई जहाज से यात्रा करने वालों की तादाद बढ़ती गई और ऐसे शहर देश की विमानन कंपनियों के ‘राडार’ पर चढ़ने लगे। देश में ऐसे रूटों को सबसे तेजी से बढ़ते ट्रैफिक रूट का दर्जा दिया जाने लगा। इनमें 80 से 100 फीसदी तक की वृद्धि देखी गई।
डेक्कन की तरक्की को देखकर स्पाइसजेट, इंडिगो और गो एयर जेसी कंपनियां भी हवाई मैदान में दस्तक देने लगीं। जल्द ही डेक्कन की हालत पतली होने लगी। 2006 के आखिर तक और 2007 की शुरुआत तक डेक्कन के पास पैसे कमी होने लगी थी और खतरे की घंटी बज चुकी थी।
विशेषज्ञों का कहना है कि गोपीनाथ ने लागत बढ़ा दी थी और वह बहुत आक्रामक तरीके से विस्तार करने में लगे थे। यात्रियों की बढ़ती संख्या को देखते हुए क्षमता में इजाफा करने की रणनीति को सही ठहराया जा सकता है। लेकिन दुनिया भर में कच्चे तेल की कीमतों में लगी आग ने इन कंपनियों के मुनाफे का झुलसाना शुरू कर दिया।
एविएशन टरबाइन फ्यूल (एटीएफ) की आसमान छूती कीमतों के चलते इन कंपनियों के लिए किराया कम रखना खासा मुश्किल होता गया। और जैसे-जैसे किराया बढ़ता गया, यात्रियों का भी इन कंपनियों से मोहभंग होता गया।
एक एलसीसी के अधिकारी नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं, ‘डेक्कन बहुत तेजी से विस्तार कर रही थी जबकि स्पाइसजेट एक जगह मजबूत होने के बाद ही दूसरी जगह कदम बढ़ा रही थी। ‘ डेक्कन के किंगफिशर में विलय के बाद पहले तो इसका नाम सिंप्लिफाई डेक्कन रखा गया।
बाद में इसका नाम किंगफिशर रेड कर दिया गया। लेकिन फिर भी इसकी सेहत में कोई सुधार नहीं हुआ। जून 2007 में बाजार में इसकी हिस्सेदारी 18 फीसदी थी जो अगस्त 2008 में घटकर 10 फीसदी रह गई। और इसके यात्रियों की संख्या भी घटकर आधी रह गई।
क्या हैं इनकी मुश्किलें?
देश में एलसीसी के बाबत जेट लाइट के पूर्व चीफ कॉमर्शियल ऑफिसर राजीव गुप्ता कहते हैं, ‘भारत में कोई भी लो कोस्ट कैरियर नहीं है बल्कि वे लो फेयर कैरियर हैं। ईंधन की कीमत, लीज अनुबंध, कर्मचारियों के वेतन के अलावा और भी कई चीजों में बजट एयरलाइन और फुल सर्विस कैरियर के खर्चे लगभग बराबर ही हैं। ‘
अगर एक पायलट ए 320 उड़ा रहा है तो वह उसी हिसाब से वेतन भी चाहेगा, भले ही वह विमान किंगफिशर का हो फिर इंडिगो का।गुप्ता कहते हैं, ‘कई देशों में तो लो कोस्ट कैरियर के लिए अलग से हवाई अड्डे बने हैं। इससे उनकी लागत काबू में रहती है। ‘
गुप्ता एयर सहारा के उन 850 कर्मचारियों में से हैं जिन्होंने जेटलाइट को छोड़ दिया था। वैश्विक मानदंडों के मुताबिक एलसीसी की प्रति यात्री लागत फुल सर्विस कैरियर की तुलना में 35 डॉलर कम रहनी चाहिए। लेकिन यह सब जहाजों के बढ़िया उपयोग और ज्यादा से ज्यादा उड़ान संचालित करने पर निर्भर करता है।
एलसीसी की एक उड़ान के बीच में औसतन 20 मिनट का ही अंतर रहना चाहिए जबकि फुल सर्विस कैरियर के लिए यही अंतर एक घंटे का रहता है। एयर एशिया के संस्थापक टोनी फर्नांडीस का मानना है कि भारत में विमान सेवाओं के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि यहां के विमान मॉडलों पर बहुत अधिक ध्यान नहीं दिया जाता है।
फर्नांडीस ने ही मलेशिया में सस्ती विमान सेवाओं को मुनाफेदार बनाया था। पिछले साल जब विमान क्षेत्र में बूम था तो उस दौरान कम लागत वाले हवाईअड्डे बनाने की योजनाएं भी तैयार की जा रही थीं। इस काम के लिए 300 खाली पड़ी विमान पट्टियों का चयन भी किया गया था। खुद गोपीनाथ ने भी ऐसे हवाईअड्डों के निर्माण के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर कंपनी जीवीके इंडस्ट्रीज से समझौता किया था।
हालांकि यह करार टिक नहीं पाया था। पर मंदी के मौजूदा दौर को देखते हुए अब कोई भी कम लागत वाले हवाईअड्डे बनाने का जिक्र नहीं कर रहा है। नागरिक विमानन मंत्रालय के एक अधिकारी ने बताया, ‘पर जैसे ही हालात सुधरेंगे, इस दिशा में फिर से पहल की जाएगी। यह बुनियादी विकास संरचना की एक अगली सीढ़ी है।’
उन्होंने बताया कि भारतीय हवाईअड्डों पर विमानों की आवाजाही इतनी अधिक होती है कि देश में जितने विमान हैं, उनका ठीक तरह से इस्तेमाल भी नहीं हो पाता है। विमान कंपनियां विमानों का बेहतर इस्तेमाल करके 6 फीसदी तक की बचत करती हैं। यही वजह है कि अंतरराष्ट्रीय विमान कंपनियों की तुलना में भारत की विमान कंपनियां 10 फीसदी कम बचत ही कर पाती हैं।
हालांकि उड़ानों की संख्या में कमी आने से विमानों की हवाईअड्डों पर आवाजाही की स्थिति कुछ सुधरी है पर यात्रियों की संख्या तेजी से घटने के कारण मांग और आपूर्ति में जबरदस्त असंतुलन पैदा हो गया है। इस वजह से विमान कंपनियों को अपनी क्षमताओं में भारी कमी लानी पड़ी है। नागरिक विमानन मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार इस साल जून से लेकर अब तक सस्ती विमान सेवा कंपनियों ने अपनी क्षमताओं में 60 फीसदी से अधिक की कटौती की है।
…और मुश्किल में मिल रहे हैं हाथ
हाल ही में विमान क्षेत्र की दो दिग्गज कंपनियां जेट और किंगफिशर ने हाथ मिलाया था और सस्ती विमान सेवा कंपनियों के लिए यह खबर गरीबी में आटा गीला करने की तरह थी। इन दोनों कंपनियों के आपस में मिल जाने से विमान उद्योग के 60 फीसदी बाजार पर इनका कब्जा हो गया है और दूसरी कंपनियों के लिए कुछ खास बचा नहीं।
उदाहरण के लिए बेंगलुरू को जोड़ने वाले हवाई रास्तों (बेंगलुरू-मुंबई, बेंगलुरू-हैदराबाद) का जिक्र करते हैं। यहां कुल उड़ानों में से 40 से 45 फीसदी किंगफिशर और किंगफिशर रेड की हैं। मुंबई-दिल्ली खासे व्यस्त मार्गों में से एक है और इस रास्ते में बिजनेस क्लास की उड़ानों में 40 से 45 फीसदी कब्जा जेट और जेटलाइट का है।
इस मार्ग के जरिए विमान कंपनियों को सबसे अधिक कमाई होती है।ऐसा नहीं है कि मौजूदा माहौल में सस्ती विमान सेवाएं उपलब्ध कराने वाली अंतरराष्ट्रीय विमान कंपनियों पर असर नहीं पड़ा है। कुछ जानकारों का कहना है कि यूरोप की तरह भारत में उड़ानों के दौरान भोजन नहीं उपलब्ध कराने की तरकीब बहुत कारगर नहीं हो सकती क्योंकि यूरोप में औसतन एक उड़ान की अवधि एक घंटे होती है जबकि भारत में यह डेढ़ घंटे के करीब है।
सेंटर फॉर एशिया पैसिफिक एविएशन (भारतीय उपमहाद्वीप) के सीईओ कपिल कौल का मानना है कि भारत में अब भी मध्य वर्ग का यात्री अब भी यही चाहता है कि विमान सेवाओं के किराये कम हों। उनके पास विकल्प भी कम हैं क्योंकि देश में सड़क और रेल जैसे यातायात के साधन बहुत विकसित नहीं हैं।
जेटलाइट को इस साल जुलाई-सितंबर तिमाही में 273 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। कंपनी का पीएलएफ इस तिमाही में 61.2 फीसदी रहा है और ब्रेकईवन पॉइन्ट 103 फीसदी है। हालांकि गोपीनाथ पूरे यकीन के साथ कहते हैं कि सस्ती विमान सेवाओं के मॉडल में कोई खामी नहीं है।
अलबत्ता, वह मानते हैं कि देश में विमान यात्रियों की संख्या में ही कमी आई है। उनका मानना है कि विमान क्षेत्र को गति देने के लिए किराये कम रखते हुए विस्तार की जरूरत है। वह मानते हैं कि जैसे ही यात्रियों की संख्या बढ़ेगी, खुद ब खुद कंपनियों का मुनाफा भी बढ़ने लगेगा।
”अगर सस्ती विमानन सेवाओं की हालिया चैंपियन गो एयर ऐसा कर रही है तो इससे मेरी बात और पुख्ता हो जाती है जो मैं अरसे से कहता आ रहा हूं कि भारत में सस्ती विमानन सेवाओं के तौर पर ही आगे नहीं बढ़ा जा सकता।” – विजय माल्या, चेयरमैन, किंगफिशर एयरलाइंस
सिकुड़ती हुई सस्ती विमान सेवाएं
कुल बाजार हिस्सेदारी
महीना सस्ती विमान सेवाएं फुल सर्विस कैरियर
जनवरी 47.0 53.0
फरवरी 47.0 53.0
मार्च 46.6 54.0
अप्रैल 47.8 52.2
मई 49.6 50.8
जून 46.8 53.2
जुलाई 41.0 59.0
अगस्त 41.0 58.7
सितंबर 41.1 58.7