अमरिंदर सिंह की अगुआई वाली सरकार में तकनीकी शिक्षा मंत्री रहे चरणजीत सिंह चन्नी को अब जाट सिखों की सम्मिलित ताकत की चुनौती का सामना करना होगा। शिरोमणि अकाली दल के अलावा कांग्रेस में भी जाट सिखों का दबदबा रहा है। अगले छह महीनों में चन्नी को न सिर्फ यह साबित करना होगा कि उन्हें पंजाब की अनुसूचित जातियों का समर्थन हासिल है बल्कि राज्य की ऊंची जातियां भी उन्हें समर्थन दे रही हैं। उन्हें खुद को कांशीराम की बनाई बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के असर वाले इलाके के एक प्रतीकात्मक दलित नेता से बढ़कर भी दिखाना होगा। लेकिन ऐसा करना आसान नहीं होगा।
पंजाब की जातिगत राजनीति को समझ पाना इतना आसान नहीं है। चन्नी जिस रामदासिया सिख समुदाय से ताल्लुुक रखते हैं, वह मूलत: सामाजिक रूप सेे पंजाब की एक दलित जाति का ही हिस्सा था। सिखों के चौथे गुरु रामदास ने उन्हें सिखों के तौर पर शामिल किया था। रामदासिया समुदाय का मानना है कि गुरु रामदास ने सिख धर्म को जातीय स्तर पर अधिकसमावेशी बनाने का काम किया था। लेकिन उसके बाद भी ब्यास एवं सतलज नदियों के दोआब वाले इलाके में खासी मौजूदगी रखने वाले रामदासिया समुदाय को लंगरों में शामिल होने की इजाजत नहीं थी। इसकी वजह से रामदासिया समुदाय के सिखों ने अपने अलग गुरद्वारे बनाने शुरू कर दिए। पंजाब में अनुसूचित जाति का दर्जा पाने वाला इकलौता सिख समुदाय रामदासिया ही है। इस समुदाय के सबसे चर्चित नाम कांशीराम रहे हैं जिन्होंने 1984 में बसपा की स्थापना की थी। कांशीराम की बनाई बसपा ने जून 2021 में अकाली दल के साथ चुनावी गठबंधन करने की घोषणा की। यह दूसरा मौका है जब बसपा और अकाली दल का गठबंधन हुआ है। वैसे तो पंजाब में बसपा का समर्थन आधार लगातार खिसक रहा है। वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में उसे 4.3 फीसदी मत मिले थे लेकिन 2017 में हुए पिछले चुनाव में यह हिस्सा घटकर सिर्फ 1.5 फीसदी रह गया। इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि पिछले चुनाव में आम आदमी पार्टी (आप) को भी दलित मतदाताओं का अच्छा समर्थन मिला था।
पंजाब के दलित, चाहे वे हिंदू हों या सिख, को अपनी आबादी के अनुपात में कभी भी सत्ता में हिस्सेदारी नहीं मिल पाई है। उनके नेता अधिकांशत: नाममात्र के चेहरे ही रहे हैं। मसलन, भाजपा ने होशियारपुर के सांसद और दलित समुदाय से आने वाले विजय सांपला को वर्ष 2014 में सत्ता में आने पर केंद्र में मंत्री बनाया था लेकिन बाद में उन्हें हटा दिया गया।
सवाल है कि क्या चन्नी इस सिलसिले को तोड़ सकते हैं? वह आनंदपुर साहिब लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत आने वाली चमकौर विधानसभा सीट का प्रतिनिधित्व करते हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में चन्नी ने 60,000 से अधिक मतों के अंतर से दमदार जीत दर्ज की थी। और वह इसके पहले भी विधायक रह चुके थे। क्या इससे यह मायने निकाला जाए कि वह पंजाब में सभी दलितों के नेता हैं? इसका जवाब नकारात्मक है। लेकिन पंजाब में कांग्रेस पार्टी के कर्ताधर्ताओं की दलील है कि चन्नी के मुख्यमंत्री बनने के बाद राज्य में दलित मतों का बंटवारा होगा जिससे अकाली एवं बसपा गठजोड़ की सियासी संभावनाएं कमजोर होंगी। दलित नेताओं को यह डर सता रहा है कि गठबंधन की वजह से अकाली दल उनके उम्मीदवारों को अपने पाले में कर लेगा। ऐसी स्थिति में कुछ लोगों को यह लग सकता है कि कांग्रेस ने संदेह को और बढ़ाने के ही बीज बोए हैं।
क्या चन्नी अपनी अलग पहचान बना पाएंगे? अगर नहीं तो फिर उन्हें कौन संचालित करेगा? कांग्रेस के नजरिये से देखें तो आने वाले चुनाव में प्रदेश अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू ही मुख्य भूमिका में होंगे। चुनाव में सिर्फ कुछ महीने ही रह जाने से चन्नी से शासन के स्तर पर किसी क्रांतिकारी बदलाव की उम्मीद नहीं की जा सकती है। अमरिंदर सिंह के चुनावी वादे पूरा कर पाने में नाकाम रहने से पैदा हुई नाराजगी चन्नी के मुख्यमंत्री बनने से कुछ हद तक कम की जा सकती है। इस तरह कई वर्षों बाद पंजाब में जटिल जातिगत आकलनों की अहम भूमिका होगी। पंजाब के दोआब इलाके की 23 सीट में कांग्रेस वर्ष 2017 में 15 जीतने में सफल रही थी। राज्य में फिर से सरकार बनाने के लिए उसे अपना वह प्रदर्शन दोहराना होगा। लेकिन उसी के साथ उसे 69 सीट वाले मालवा इलाके में भी अपनी पिछली सीटें बरकरार रखनी होंगी। कांग्रेस ने पिछले चुनाव में मालवा क्षेत्र में 40 सीट पर जीत हासिल की थी। पिछले कई दशकों से पंजाब की राजनीति के दो बड़े खिलाड़ी रहे बादल परिवार एवं अमरिंदर सिंह भी इसी इलाके से आते हैं।
आखिर में, यही कहा जा सकता है कि कांग्रेस के चुनावी नतीजे चरणजीत सिंह चन्नी नहींं तय करेंगे। यह काम तो नवजोत सिंह सिद्धू और उनके सलाहकारों की रणनीतियां एवं जोड़-तोड़ ही करेंगी।
