अगर आपके पास विकल्प हो तो आप किसका चुनाव करेंगे- केंद्र्र में कैबिनेट मंत्री बनना चाहेंगे या किसी राज्य का मुख्यमंत्री?
हो सकता है कि एक ऐसा समय रहा हो जब आमतौर पर कोई भी राजनीतिज्ञ केंद्र में एक ऊंचे ओहदे के लिए अपनी इच्छा से राज्य की गद्दी छोड़ देता।
वास्तव में वाई बी चव्हाण को 1962 में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री का पद छोड़कर केंद्र में रक्षा मंत्री का पद भार संभालने के लिए कहा गया था, और इससे पहले गोविंद वल्लभ पंत को लखनऊ से दिल्ली बुला लिया गया था। पश्चिम बंगाल में बी सी राय मुख्यमंत्री बने रहे थे, लेकिन वह एक अवपाद था।
शुरुआती वर्षों के दौरान प्रमुख राजनीतिक हस्तियां नेहरू की कैबिनेट में मंत्री थीं: सरदार पटेल, बी आर आंबेडकर, सी डी देशमुख और भी कई लोग। और इंदिरा गांधी ने अपनी कैबिनेट के सहयोगियों के मुकाबले अधिक संख्या में मुख्यमंत्रियों को बर्खास्त किया। उस दौर में राज्यों के मुकाबले केंद्र अधिक शक्तिशाली था।
लेकिन यह भी उल्लेखनीय है कि स्वाभाविक तौर से कैबिनेट में केवल गृह, रक्षा, वित्त और विदेश मंत्रालय के पोर्टफोलियो ही हाई-प्रोफाइल हैं, जिनमें आकर्षित करने और हवा का रुख बदलने की क्षमता है।
इन बातों को छोड़ दीजिए। अब समीकरणों में नाटकीय ढंग से बदलाव आया है। अपनी छाप छोड़ने की संभावनाएं राज्यों के स्तर पर अधिक है, जहां प्रशासनिक इकाई अपेक्षाकृत छोटी है और लक्ष्यों के प्रति सजग मुख्यमंत्री अलग पहचान कायम कर सकता है।
नीतीश कुमार जब दिल्ली में थे तो किसी ने उन पर खास ध्यान नहीं दिया, लेकिन अब उन्होंने बिहार के मुख्यमंत्री के तौर पर अपने लिए एक प्रतिष्ठित जगह बना ली है। यह बात नवीन पटनायक बारे में भी सही है (क्या किसी को याद है कि वे केंद्र में कभी कैबिनेट मंत्री रहे हैं?)। पटनायक उड़ीसा में लंबे समय से डटे हैं।
आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू और मध्य प्रदेश में दिग्विजय सिंह के उदाहरण भी अक्सर दिए जाते हैं, लेकिन गुजरात में नरेंद्र मोदी जैसे कई समकालीन उदाहरण भी हैं। मोदी ने दिल्ली में भाजपा के सभी नेताओं को पीछे छोड़ दिया है और वाजपेयी-आडवाणी युग के बाद उन्हें उत्तराधिकारी के तौर पर देखा जा रहा है।
राजस्थान में वसुंधरा राजे के पास ऐसा ही अवसर था, लेकिन उन्होंने मौका गंवा दिया। अब मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान और छत्तीसगढ़ में रमन सिंह की प्रतिष्ठा तेजी से बढ़ रही है। यहां तक कि नंदीग्राम तथा सिंगुर की घटना से पहले तक बुद्धदेव भट्टाचार्य का करिश्मा तेजी से बढ़ रहा था।
मनमोहन सिंह की सरकार में सिर्फ प्रणव मुखर्जी और पी. चिदंबरम ही ऐसे थे जो सबसे ज्यादा चर्चा में रहे। दूसरे नेताओं में लालू प्रसाद रेलवे में खास कर पाए, मणिशंकर अय्यर ने राजधानी के एक भवन से गायब होने से पहले अच्छी शुरुआत की।
प्रफुल्ल पटेल ने ढेर सारे वादे किए, लेकिन अपनी साख पर बट्टा लगाते हुए नागरिक विमानन क्षेत्र को ऐसे मंझधार में छोड़ दिया जिसमें वित्तीय रूप से काफी छेद थे। कुछ और मंत्रालयों में काफी अच्छा करने की क्षमता थी – बिजली, पेट्रोलियम, दूरसंचार, खनन आदि।
लेकिन ये या तो अक्रियाशील पाए गए या फिर घोटालों से घिरे हुए। किसी भी सूरत में मंत्रालय की साख नहीं बनाई गई। वास्तव में शीला दीक्षित बतौर मुख्यमंत्री राजधानी में मनमोहन सिंह की कैबिनेट के मुकाबले ज्यादा अच्छी साख बनाने में कामयाब रहीं।
निश्चित रूप से मुख्यमंत्री कैबिनेट मंत्री से ऊपर ही होता है। यह कैनवस हालांकि छोटा हो सकता है, लेकिन शक्तियां ज्यादा वास्तविक होती हैं – यह रेखांकित करता है कि छोटे तालाब में बडी मछली होने से बेहतर कुछ और नहीं हो सकता। यह साफ तौर पर लागू होता है जब आप परीक्षण के तौर पर इसे लागू करेंगे।
कल के जिन नेताओं को देश भर के शहरों और गांवों में याद किया जाता है, वे केंद्रीय नेताओं के मुकाबले मुख्यमंत्री बनने के ज्यादा काबिल थे, जैसे पंजाब में प्रताप सिंह कैरों, तमिलनाडु में सी. एन. अन्नादुरई और आंध्र प्रदेश में नंदमूरि तारक रामाराव।
