वर्ष 2022 के आरंभ से ही आर्थिक परिदृश्य में काले बादल छाये हुए हैं और वृद्धि के अल्पकालिक अनुमान कमजोर हैं। ईंधन कीमतों में तेजी आई है, व्यापार संतुलन और अधिक ऋणात्मक हुआ है, राजकोषीय संतुलन कमजोर हुआ है, पोर्टफोलियो पूंजी बाहर गई, रुपये में गिरावट आई, कंपनियां और अधिक सतर्क हो गई हैं, बाजारों में घबराहट का माहौल बना है और उपभोक्ताओं को मुद्रास्फीति का दबाव महसूस हो रहा है। इन सभी की वजह मौजूद हैं और कई मामलों में तो कारण वैश्विक है लेकिन केवल उन्हीं पर ध्यान केंद्रित करना गलती होगा। हमें दीर्घावधि के रुझानों को समझना होगा।
किसी व्यवस्था में एंट्रॉपी (उस ऊर्जा का माप जो काम के लिए अनुपस्थित हो) या अव्यवस्था एक ऐसी अवधारणा है जिसे आमतौर पर आर्थिक रुझान समझने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाता है लेकिन फिलहाल मध्यम अवधि की घटनाओं के निर्धारण की वजह बनने वाली अव्यवस्था को समझाने का यही तरीका है। समय के साथ एंट्रॉपी में इजाफा होता है जबकि आर्थिक रुझान चक्र में चलते हैं। परंतु अगर चक्र बहुत लंबा हो तो अंतर भौतिक नहीं होता।
कई तत्त्व बढ़ी हुई आर्थिक एंट्रॉपी के जटिल अणुओं में जाते हैं। सबसे पहले कमजोर कंधों पर वैश्वीकरण के असंगत भार की बात आती है। ऐसा अमीर और गरीब दोनों देशों में हुआ है और राष्ट्रीय तथा वैश्विक कुलीनों का उभार हुआ है जिनके पास अकल्पनीय संपदा का स्वामित्व है। दूसरा, संपदा में अचानक नाटकीय वृद्धि की अभिव्यक्ति अब वित्तीय पूंजीवाद की वैचारिक सफलता से परे हो चुकी है। अब वेंचर कैपिटलिज्म के उभार का दौर है तथा एक समांतर घटनाक्रम में बड़ी टेक कंपनियों की ताकत और प्रभाव में उभार दिख रहा है। ग्रेट गैट्सबी युग के इस अवतरण में ऐसे कारोबार उभरे हैं जहां सबकुछ विजेता का होता है। स्टार्टअप का उभार हुआ है। सुरक्षित रोजगारों को अल्पकालिक या अनुबंधित श्रम की अनिश्चितता ने प्रतिस्थापित किया है।
इसके तीन उदाहरण हैं: पारंपरिक फाइनैंस को डिजिटलीकरण और बिग डेटा ने, मीडिया को बड़ी टेक कंपनियों के प्रायोजन और सीधी सामग्री ने तथा खुदरा कारोबार को ई-कॉमर्स ने कुछ इसी अंदाज में प्रभावित किया है। इन निर्णायक बदलावों ने द्विगुणक समाजों की ओर रुझान तैयार किया है। इन्हें एक चौथे रुझान ने चुनौती दी है: अमीर देशों में बड़ी तादाद में गरीब देशों के प्रवासियों के जबरन प्रवेश ने। पांचवां, चीन के उभार (भारत जैसे कुछ छोटे देशों के उभार ने भी) से शक्ति संतुलन में बदलाव आया है। इससे पुराना शक्ति संतुलन हिल गया है लेकिन नया संतुलन भी स्थिर नहीं हो रहा।
इसमें जीवविज्ञान से संचालित महामारियों के तांते को शामिल कर दीजिए- मैड काउ डिजीज, सार्स, बर्ड फ्लू, कोविड-19 और अब मंकी पॉक्स। इसका कारण गोपनीय प्रयोगशालाओं में चुपचाप होने वाला शोधकार्य तथा जानवरों और पक्षियों की औद्योगिक खेती भी है। हालांकि अब इसका विरोध भी हो रहा है। अमेरिकी फाइनैंसर कार्ल इकान तक ने गर्भधारण करने वाले सुअरों के साथ व्यवहार को लेकर मैकडॉनल्ड्स से जवाब तलब किया। इसका एक नतीजा वस्तुओं एवं लोगों के आवागमन के बाधित होने के रूप में सामने आया। अंत में वैश्विक तापवृद्धि के कारण आ रहे तकनीकी बदलाव को शामिल कर लें जिसके चलते ऊर्जा, परिवहन, विनिर्माण आदि क्षेत्र अचानक दिक्कत में आ गए।
इन अव्यवस्थाओं के आर्थिक परिणाम दिक्कत पैदा करने वाले रहे हैं। उदाहरण के लिए 2008 का वित्तीय संकट। यह अनियंत्रित वित्तीय पूंजीवाद और अमेरिका में आर्थिक रूप से स्थिर आय वर्ग के लोगों को आवास दिलाने की राजनीतिक चाह की वजह से उपजा था। इसकी वजह से सार्वजनिक ऋण में भारी इजाफा हुआ। जब कोविड-19 की चुनौती सामने आई तो अलहदा मौद्रिक नीति संबंधी उपाय अपनाए गए। उन उपायों को वापस लेने के प्रयासों का विपरीत असर देखने को मिल रहा है जो शायद मंदी और मुद्रास्फीति के मिश्रण के रूप में सामने आ रहा है। शेयर बाजारों पर भी नकारात्मक प्रभाव दिख सकता है।
राजनीतिक अर्थव्यवस्था की प्रतिक्रिया भटकाव को प्रतिबिंबित करती है। इसमें राजनीतिक सहजबोध में इजाफा और आर्थिक राष्ट्रवाद से लेकर वैकल्पिक सत्यों का प्रसार, ब्रेक्सिट घटनाक्रम और डॉनल्ड ट्रंप तक शामिल हैं। उदार लोकतांत्रिक विचार को शक्तिशाली नेता के शासन के साथ विचारधारात्मक चुनौती मिल रही है। शक्ति संतुलन में बदलाव ने एक के बाद एक देशों को रक्षा व्यय बढ़ाने पर विवश किया है जो अच्छा संकेत नहीं है। घटनाओं का यह चक्र चीन की तेज वृद्धि की गाथा का अंत कर सकता है। भारत इसका लाभ ले सकता है लेकिन उसे स्वीकार करना होगा कि एंट्रॉपी एक बड़ी हकीकत है और उसे समझना होगा।
