‘डेटा ही नया तेल है’। यह जुमला कहने का श्रेय क्लाइव हंबी को जाता है। हंबी एक प्रशिक्षित गणितज्ञ तो थे ही, टेस्को के क्लबकार्ड के पीछे भी उनका ही दिमाग था। उन्होंने 2006 में कहा था कि तेल की तरह डेटा भी मूल्यवान है लेकिन जब तक उसे शोधित नहीं किया जाए, वह इस्तेमाल करने लायक नहीं होता।
अब पर्यावरण वैज्ञानिकों को यह चिंता हो रही है कि जलवायु पर अपने बुरे असर में डेटा भी तेल के समान ही हानिकारक है। सीधे-सीधे डेटा तो नहीं लेकिन सर्वर, डेटा फार्म तथा अन्य हार्डवेयर जरूर उसे नुकसान पहुंचाते हैं। तेजी से डिजिटल होती दुनिया में डेटा निर्माण, उसके भंडारण और प्रसंस्करण में इनकी आवश्यकता होती है।
वल्र्ड वाइड वेब के आगमन के बाद से ही दुनिया तेजी से आपस में जुड़ती जा रही है और उसका डिजिटलीकरण होता जा रहा है। क्लाउड, तेज गति वाला वाई-फाई और इंटरनेट के विकास के साथ डिजिटल ड्यूरेबल्स का विकास हो रहा है जो पुरानी एनालॉग वस्तुओं का स्थान ले रही हैं। इससे तैयार होने वाले, भंडारित और विश्लेषित किए जाने वाले डेटा की मात्रा बढ़ी है। डिजिटलीकरण की प्रक्रिया में महामारी के दौरान भी तेजी आई। उस दौरान कंपनियों को अपनी डिजिटल पहुंच बनाने पर काम करना पड़ा। उन्होंने अपना कामकाज क्लाउड पर भी स्थानांतरित किया। इसका अर्थ था अपने काम और डेटा को विशाल सर्वरों पर स्थानांतरित करना।
बाजार और उपभोक्ता डेटा पर नजर रखने वाली कंपनी स्टैटिस्टा कहती है कि दुनिया भर में तैयार होने, कॉपी होने और खपत होने वाली सूचना/डेटा की बात करें तो वह 2019 के 41 जेट्टाबाइट से बढ़कर 2021 में 79 जेट्टाबाइट्स हो गई है। स्टैटिस्टा का अनुमान है कि सन 2025 तक 1881 जेट्टाबाइट्स हो जाएगा। सर्वरों में स्थापित डेटा के कार्बन उत्सर्जन को भी नकारा नहीं जा सकता है। हालांकि पर्यावरण से जुड़ी ढेर सारी चीजों की तरह इसका भी ठीक-ठीक आकलन कर पाना आसान नहीं है लेकिन यह तय है कि सर्वर फार्म भारी मात्रा में बिजली की खपत करते हैं। सर्वर के संचालन के लिए तो बिजली लगती ही है, साथ ही वातानुकूलक प्रणाली को भी खूब बिजली की जरूरत पड़ती है। डेटा फार्म अत्यधिक गर्मी पैदा करते हैं और उन्हें भी तापमान को निर्धारित दायरे में रखने के लिए वातानुकूलन की आवश्यकता होती है। पानी की खपत की बात करें तो अध्ययन बताते हैं कि डेटा सेंटरों में जल संसाधन का भरपूर इस्तेमाल होता है तथा जिन शहरों में ये सेंटर होते हैं वहां तमाम वातानुकूलन के बावजूद तापमान बढ़ता है।
कार्बन की खपत इस बात पर निर्भर करती है कि कितनी बिजली इस्तेमाल की जाती है तथा कितने वातानुकूलक प्रयोग में लाए जाते हैं। कई डेटा कंपनियां प्राथमिक तौर पर ताप बिजली घरों और गैस से बनने वाले बिजली संयंत्रों पर निर्भर करती हैं, हालांकि कई नयी कंपनियां नवीकरणीय ऊर्जा का भी इस्तेमाल कर रही हैं।
सिलिकन चिप की भी बिजली की खपत में काफी भूमिका है। पुरानी तथा ज्यादा बिजली खपत करने वाले चिप से कार्बन उत्सर्जन अधिक होता है जबकि नयी तथा ऊर्जा का किफायती इस्तेमाल इसकी कम खपत करता है। आखिर में इन बातों का भी प्रभाव पड़ता है कि जहां सर्वर स्थापित है वह भौगोलिक क्षेत्र कितना ठंडा है तथा जहां वह स्थित है उस इमारत की ऊर्जा किफायत उम्र कितनी है। इसके अलावा चूंकि क्लाउड सर्वर को ऊर्जा की आवश्यकता अपेक्षाकृत अधिक होती है। इसके अतिरिक्त इमारतें अपने आप में काफी भारी मात्रा में कार्बन उत्सर्जन करती हैं। खासतौर पर पिछले पांच-छह दशकों में बनी इमारतें। पुराने डेटा फार्म अक्सर पुरानी इमारतों में स्थित होते हैं जिन्हें बिजली की काफी आवश्यकता होती है। एक अनुमान यह भी है कि क्लाउड उद्योग कई देशों से अधिक बिजली की खपत करता है और यह वैश्विक विमानन उद्योग से ज्यादा बड़ा उत्सर्जक है।
यह समस्या आगे चलकर और बढऩे वाली है। इसका कारण यह है कि एक तो डिजिटलीकरण की आयु बढऩे वाली है और पहले की तुलना में अधिक डेटा उत्पादित हो रहा है। जब वेब 3.0 मौजूदा वेब 2.0 का स्थान लेगा तो डेटा की खपत में और इजाफा होगा। ऐसा इसलिए कि जिस ब्लॉकचेन तकनीक पर वेब 3.0 का विकास किया जा रहा है उसे बहुत बड़ी मात्रा में ऊर्जा की आवश्यकता होगी। इसके अलावा आज बड़ी मात्रा में डेटा सीमा पार के सर्वरों मे रखा जाता है लेकिन निजता को लेकर बढ़ती चिंता के बीच डेटा के स्थानीय भंडारण की जरूरत तेजी से महसूस की जा रही है। कई देशों ने पहले ही यह निश्चित कर दिया है कि उनके नागरिकों के डेटा का भंडारण स्थानीय स्तर पर किया जाएगा। या कम से कम उसकी एक प्रति किसी दूर देश में स्थित सर्वर के बजाय स्थानीय स्तर पर सुरक्षित रखी जाएगी। इससे हर देश में बड़े पैमाने पर डेटा सर्वर का निर्माण होगा।
भारत भी डेटा का स्थानीयकरण कर रहा है। हालांकि हमारे यहां केवल वित्तीय लेनदेन के डेटा को स्थानीय स्तर पर जमा किया जा रहा है। यदि भारत हर प्रकार के व्यक्तिगत डेटा को स्थानीय स्तर पर भंडारित करने लगा तो देश में बहुत बड़े-बड़े डेटा फार्म बनाने होंगे। भारत चीन के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा डेटा उत्पादक देश है।
डेटा सेंटर कंपनियों ने भी ऊर्जा खपत कम करने के लिए कई प्रयास किए हैं। उन्होंने ठंडे इलाकों में डेटा सेंटर बनाए हैं, हालांकि इसका कोई व्यावहारिक लाभ देखने को नहीं मिला। उन्होंने समुद्र में डूबे हुए डेटा सेंटर भी बनाने के प्रयास किए हैं ताकि उन्हें बिना वातानुकूलक के ठंडा रखा जा सके। परंतु इसका असर समुद्र की पारिस्थितिकी पर पड़ता है। इसका समुद्री जीव जंतुओं पर भी बुरा असर पड़ेगा। अब इंजीनियर यह प्रयास कर रहे हैं कि ऊर्जा किफायत वाली चिप कैसे बनायी जाएं और डेटा सेंटरों को कम ईंधन खपत वाला कैसे बनाया जाए। वे ताप बिजली की जगह नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों का भी इस्तेमाल कर रहे हैं। गूगल, एमेजॉन, माइक्रोसॉफ्ट, मेटा आदि बड़ी प्रौद्योगिकी कंपनियों ने भी अपने लिए कड़े ऊर्जा कार्बन उत्सर्जन नियंत्रण मानक तय किए हैं।
सूचना प्रौद्योगिकी, डेटा, क्लाउड, इंटरनेट तथा अन्य डिजिटल तकनीकों के पर्यावरण प्रभाव को लेकर चर्चा बढ़ रही है। भारत को भी इसमें शामिल होना चाहिए।
(लेखक बिज़नेस टुडे और बिज़नेस वल्र्ड के पूर्व संपादक तथा संपादकीय सलाहकार संस्था प्रोजैकव्यू के संस्थापक हैं)
