वर्तमान औद्योगिक युग में कंपनियां भीड़ भाड़ वाले इलाकों में भी हानिकारक और जोखिम भरे उत्पादों का उत्पादन करती हैं या फिर उनकी एक जगह से दूसरी जगह ढुलाई करती है।
पर आम लोगों से इस बात की अपेक्षा नहीं की जा सकती है कि वह समझें कि उनके पड़ोस में कितना खतरनाक खेल खेला जा रहा है। हो सकता है कि आपकी कार या स्कूटर के बगल से जो ट्रक गुजर रहा हो उसमें नाभिकीय पदार्थ हों, पर आपको इस बात का पता ही नहीं हो।
अगर इन हानिकारक और खतरनाक पदार्थों की वजह से कोई दुर्घटना घट जाए तो इसका जिम्मेदार कौन होगा जो मुआवजा देगा? इन दुर्घटनाओं को ध्यान में रखते हुए ही संसद ने 1991 में पब्लिक लाइबिलिटीज इंश्योरेंस ऐक्ट पारित किया था। पर चूंकि ज्यादातर लोगों को इस कानून के बारे में पता नहीं है और फिर नुकसान के एवज में जितने मुआवजे का प्रावधान है, वह इतना कम है कि ऐसे मामले में कंपनियों को कानूनी दायरे में कम ही खड़ा पाया जाता है।
श्रीराम फर्टिलाइजर इंडस्ट्रीज मामले (1987) में उच्चतम न्यायालय ने नुकसान के लिए संबंधित उद्योग पर भरपाई के लिए कठोर आदेश जारी किए थे। अदालती फैसले में कहा गया था कि, ‘अगर मुनाफे के लिए कंपनियों को यह छूट दी जाती है कि वे खतरनाक उत्पादों की ढुलाई कर सकें, तो ऐसे में यह भी मान लेना चाहिए कि कानून तभी ढुलाई की इजाजत देता है जब इससे होने वाली किसी दुर्घटना के लिए कंपनी खुद की जिम्मेदारी को समझे।’
अदालत ने यह भी साफ किया कि कंपनियां या उद्योग किसी भी हालत में इस जिम्मेदारी से पीछा नहीं छुड़ा सकती हैं। अगर कोई दुर्घटना घट जाती है तो मुआवजे की रकम कितनी हो, यह इस पर निर्भर नहीं करता है कि पीड़ित की आय क्षमता कितनी है, बल्कि उसके लिए यह देखना होगा कि जिम्मेदार कंपनी कितनी बड़ी है।
अब तक इन सिद्धांतों को केवल निजी इकाइयों पर लागू किया जाता रहा है। पर पिछले महीने एक सुनवाई के दौरान उच्चतम न्यायालय ने सार्वजनिक हित की इकाइयों को भी इसमें शामिल कर लिया। इन इकाइयों में रेलवे, विद्युत वितरण कंपनियां, पब्लिक कॉरपोरेशन और स्थानीय इकाइयां भी शामिल हैं, भले ही वे निजी मुनाफे के लिए काम नहीं करती हों। यूनियन ऑफ इंडिया बनाम प्रभाकरण मामले में रेलवे के खिलाफ क्लेम के दौरान यह फैसला सुनाया गया था।
दरअसल मामला यह था कि एक महिला रेल की पटरियों पर गिर गई थी और चलती गाड़ी के नीचे आ जाने से उसकी मौत हो गई थी। उसके पति ने रेलवे से मुआवजे की मांग की। रेलवे की दलील थी कि महिला चलती गाड़ी पर चढ़ने की कोशिश कर रही थी और उसकी मौत खुद की गलती के कारण हुई। सर्वोच्च न्यायालय ने इस दलील को खारिज करते हुए कहा कि महिला की गलती का हवाला देते हुए इस दुर्घटना के लिए रेलवे को दोषमुक्त करार नहीं दिया जा सकता है।
उच्चतम न्यायालय ने रेलवे को दोषी ठहराते हुए मुआवजा चुकाने का आदेश जारी किया। जवाबदेही का यह सिद्धांत पहली बार 19वें दशक में रायलैंड्स बनाम फ्लेचर, एक विदेशी मामले में तैयार किया गया था। इसके तहत जोखिम भरे कामों से जुड़े लोगों को किसी भी दुर्घटना का बोझ खुद उठाना चाहिए, अगर वह दुर्घटना उनकी वजह से हुई है।
ऐसी कंपनियां जो पानी, बिजली, तेल, विषैली गैसों का काम करती हैं, उन्हें इस सिद्धांत में शामिल किया गया था। यहां इस बात का भी साफ उल्लेख किया गया था कि भले ही दुर्घटना लापरवाही की वजह से हुई हो, फिर भी दोषी कंपनियां इस बिना पर छूट नहीं सकती हैं। उस समय इस सिद्धांत में नुकसान के भर को वितरित करने की व्यवस्था का भी उल्लेख था। यानी जिन कंपनियों ने इंश्योरेंस करा रखा है, वे इस तरीके की दुर्घटना में शामिल होने पर बीमा कंपनियों की सहायता से मुआवजा चुका देती थी।
हालांकि बाद में इंगलैंड में इसमें कई अपवाद भी जुड़ गए थे। श्रीराम मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने साफ किया था कि भारत में ऐसे मामलों में किसी भी तरीके के अपवाद को शामिल नहीं किया जाएगा। हाल के एक फैसले में इस बात की पुष्टि की गई है और इस बात की भी झलक मिलती है कि आने वाले दिनों में भरपाई के इस दायरे में और लोगों को भी समेटा जा सकता है।
उच्चतम न्यायालय ने कहा कि देश में लोग इस कानून के पक्ष में दिख रहे हैं। भोपाल गैस त्रासदी, चेर्नोबिल नाभिकीय हादसा और 1988 में कच्चे तेल के रिसाव की घटनाओं से कानूनविदों को भी समझ में आने लगा है कि जोखिम भरे औद्योगिक क्रियाकलापों का कितना खमियाजा उठाना पड़ सकता है। पर इस कानून को कितना महत्त्व दिया जाता है, यह विभिन्न देशों के ऊपर निर्भर करता है।
जहां अमेरिका और यूरोपीय अदालतों में इस कानून को सख्ती के साथ लागू नहीं किया जाता है, वहीं फ्रांसीसी अदालतों में इसे सख्ती के साथ अपनाया जाता है। इसके पहले भी उच्चतम न्यायालय ने बिजली से जुड़ी एक दुर्घटना में इस सिद्धांत को लागू किया था। बिजली का एक तार टूट कर सड़क पर आ गिरा था। बारिश की एक रात में एक साइकिल सवार उस तार की चपेट में आ गया। घटनास्थल पर ही उसकी मौत हो गई। उस व्यक्ति की विधवा ने विद्युत विभाग से मुआवजे की मांग की।
एमपीएसईबी बनाम शैल कुमार का यह मामला वर्ष 2002 का है। बिजली बोर्ड ने कहा कि यह दुर्घटना उसकी लापरवाही की वजह से नहीं हुई, दरअसल किसी व्यक्ति ने बिजली की चोरी करने की कोशिश की थी और उसी दौरान यह तार टूटकर सड़क पर आ गिरा था। इस दलील को उच्चतम न्यायालय ने खारिज करते हुए कहा कि बोर्ड (बिजली) यह कहकर अपना बचाव नहीं कर सकता है कि किसी अन्य व्यक्ति की गलती की वजह से ऐसा हुआ है।
अदालत ने कहा कि यह बिजली विभाग की जिम्मेदारी है कि वह यह सुनिश्चित करे कि भले ही बिजली चुराने के तहत ऐसी घटना (तार टूटना) क्यों न हुई हो, पर उसकी मरम्मत की जिम्मेदारी तो विभाग की ही बनती है। वहीं एक अन्य मामले (कौशनुमा बेगम बनाम न्यू इंडिया इंश्योरेंस कॉरपोरेशन, 2001) में बीमा कंपनी का तर्क था कि क्लेम तभी किया जा सकता है जब गलती चालक की रही हो। ऐसे में बीमा कंपनी को मुआवजा देने के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। पर सर्वोच्च न्यायालय ने इस दलील को भी खारिज कर दिया।