भारत में इक्विटी मार्केट इस समय पिट रहा है। फिर भी इस बाजार से खरीदार अनुपस्थित हैं जिससे कुछ हैरानी हो रही है।
केवल सितंबर महीने में ही डॉलर के हिसाब से देखें तो करीब 20 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है। अक्टूबर में बाजार में और 20 प्रतिशत की गिरावट आई है। इस साल के शुरू से लेकर अब तक जो निवेशक डॉलर में निवेश करते थे, उसमें 60 प्रतिशत से ज्यादा गिरावट दर्ज की गई है।
अगर उन्होंने मिडकैप शेयरों में निवेश किया है तो वे और भी अधिक दुर्भाग्यशाली रहे, जहां 70 प्रतिशत की गिरावट आई है। इतनी कीमतें गिरने के बावजूद अभी भी खरीदार बाजार से गायब हैं। इस तरह से हैरान करने वाले व्यवहार का क्या कारण है? निवेशक अब भी पैसा लगाने को क्यों तैयार नहीं हैं?
पहला मसला तो स्पष्ट रूप से वैश्विक इक्विटी मार्केट में चल रही अप्रत्याशित उठापटक से जुड़ा हुआ है। मैं कई साल से बाजार पर नजर रख रहा हूं लेकिन इतनी अस्थिरता और भय का वातावरण कभी नहीं रहा। इस तरह की अप्रत्याशित उठापटक में कीमतें बढ़ने की तो संभावना नहीं है। कोई भी खरीदार मूल रूप से मजबूत कंपनियों के शेयर उचित मूल्य पर खरीद सकता है, जो कुछ ही दिन में 25-30 प्रतिशत नीचे भी आ सकती हैं।
आज के माहौल में जहां अगर 25 प्रतिशत का रिटर्न मिले तो अच्छा साल माना जाएगा, निवेशकों को पूरे साल के रिटर्न के बारे में भरोसा नहीं हो रहा है। जो भी निवेशकों के लिए पोर्टफोलियो चला रहा है और बाजार की स्थिति के बारे में निवेशकों के लिए तिमाही या मासिक आधार पर आकलन करता है, उनके आंकड़ों को पचा पाना मुश्किल है।
यहां पर एक सामान्य धारणा यह भी चल रही है कि कीमतों के ध्वस्त होने के जो आंकड़े आ रहे हैं, उसे देखते हुए जल्दबाजी की कोई जरूरत नहीं है। बाजार अभी आधार बनाने में वक्त लेगा। जब यह एक आधार बना लेगा तो खरीदारी के लिए एक बेहतर अवसर मिलेगा। अभी बाजार में और गिरावट की संभावना तथा वर्तमान नुकसान के चलते निवेशक इस समय जल्दबादी में कोई जोखिम लेना नहीं चाहते।
दूसरा मसला भी अहम है कि इस समय खरीदारी करने के पास पैसा किसके पास है? ज्यादातर अंतरराष्ट्रीय फंड्स वापस लौट रहे हैं, इसमें ज्यादातर निकासी यूरोपियन फंड के फंड्स की हो रही है। खुद को मजबूती प्रदान करने के लिए इन फंड्स के फंड अब दबाव डाल रहे हैं कि वे पूंजी को वापस खींच लें, जिससे वे वापसी कर सकें।
यह भी इस समय करीब असंभव हो गया है कि अब भारत से नई धन उगाही की जा सके। एलपी भी बहुत गंभीर मसला बन गया है क्योंकि इस समय वे ओईसीडी वित्तीय बाजार को देख रहे हैं। और यह स्पष्ट रूप से कहा जाए तो भारत उस नक्शे में ही नहीं है। यहां पर उभरते बाजारों (ईएम) के संपत्ति वर्ग की ओर पूंजी प्रवाह का मसला है।
कम आपूर्ति के जोखिम और ओईसीडी बाजार का मूल्यांकन कम होने से क्या निवेशक ईएम एसेट क्लास में संयुक्त उपक्रम बनाने के इच्छुक होंगे जैसा कि 2007 में हुआ था? ओईसीडी वित्त बाजारों के सस्ता होने से उनके अनुमानित रिटर्न प्रोफाइल में सुधार आता है, और इससे इस बात के संकेत मिलते है कि ज्यादातर संस्थानों के बेहतर रिटर्न की जरूरतें अंतरराष्ट्रीय बाजारों के साथ तालमेल बैठाने से पूरी हो सकती हैं।
यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि आने वाले 3 से 6 महीनों में फंडों में महत्वपूर्ण एकत्रीकरण हो सकता है। तमाम फंड सामान्य रूप से नुकसान उठाने वाले लोगों के नुकसान को कम कर सकते है, इसके चलते यह भी हो सकता है कि अंतिम रूप से आत्मसमर्पण के रूप में बिक्री कर रहे लोग कुछ फंडों को अपने पास रख लें।
भारतीय बाजारों में गिरावट की स्थिति में निवेशकों को गहरा धक्का लगा। वैश्विक वित्तीय संकट और अमेरिकी मंदी को देखते हुए हमारा देश ज्यादा स्थिर साबित हुआ, लेकिन हमें हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठना चाहिए। घरेलू स्तर पर भी शेयरों को रोककर रखने की प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए और यहां तक कि बीमा कंपनियों को भी यूनिट लिंक्ड इंश्योरेंस प्रोडक्ट्स (यूलिप्स) पर विश्वास करते हुए बिक्री से बचना चाहिए।
कड़वी सच्चाई यह है कि इस कैलेंडर वर्ष में 10 अरब डॉलर से अधिक की एफआईआई की निकासी को झेल जाने के बाद घरेलू निवेशकों की खरीद की क्षमता कम ही बची है। जिन फंडों के पास कुछ नकदी बची हुई है, वे अभी आगे की संभावित गिरावट की प्रतीक्षा में हैं। तीसरे, भारत में व्यापक मसले हैं, जिनका उत्तर देना आसान नहीं है। स्पष्ट रूप से अर्थव्यवस्था में गिरावट चल रही है, लेकिन यह अस्पष्ट है कि इसकी दर क्या होगी। सामूहिक रूप से इस साल के लिए 8 प्रतिशत की जीडीपी बढ़ोतरी का अनुमान लगाया जा रहा है, यह बहुत ज्यादा लगता है।
इसके अलावा वित्त वर्ष 2010 के लिए अनुमानित तेजी भी सच्चाई से कोसों दूर है। आखिर यह मंदी कितनी लंबी खिंचेगी? कार्पोरेट जगत की कमाई पर इसका कितना असर होगा? आम राय से अभी भी यह उम्मीद की जा रही है कि वित्त वर्ष 2009 और वित्त वर्ष 2010 में दो अंकों की विकास दर रहेगी, लेकिन जिंसों की कीमतों में बढ़ोतरी, वित्तीय कीमतों में परिर्तन और जीडीपी मंदी, और विकास दर में एक अंक की बढ़ोतरी का अनुमान ही ज्यादा सही लगता है।
इस परिप्रेक्ष्य में बाजार तुलनात्मक रूप से बेहतर नहीं रहेगा। लेकिन नकदी रखने वाली कंपनियां अभी भी खतरे में नहीं लगतीं। भारत का बाहरी पूंजी पर निर्भरता भी एक मसला है। हम अपनी वित्तीय सीमाओं में सक्षम थे और निजी क्षेत्र का निवेश बहुत ज्यादा नहीं था। अब स्थिति में बदलाव हुआ है और भारत के कार्पोरेट जगत में वैश्विक पूंजी प्रवाह हुआ है।
नकदी के संकट के चलते अब विदेशी धन के प्रवाह में कमी आई है और रुपये के अवमूल्यन के चलते कर्ज का भार 25 प्रतिशत बढ़ गया है। कार्पोरेट भारत अब एक बार फिर इस मजबूरी में आ गया है कि सरकार निवेश कर उनकी मदद करे, जब तक विकास कम रहता है, ब्याज दरों में बहुत कमी न करे और मांग करे कि ऋण के मामले में ढील दिया जाए। जब तक सरकार अपने वित्तीय संस्थानों से पैसा नहीं देती जीडीपी के विकास और कार्पोरेट जगत के फायदे में मंदी का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है।
अगले 6 महीने में देश में चुनाव होने वाले हैं और परिणाम आने के बाद देश में सुधार की प्रक्रिया किस करवट बैठेगी, यह अनुमान लगाना मुश्किल है। पिछले 6 महीने की मंदी ने दिखाया है कि निवेशक, नीतिगत खतरों की उपेक्षा नहीं कर सकते। खासकर भारत जैसे उभरते बाजार के मामले में। जब निवेशकों का मुनाफा कम हो रहा है और जीडीपी में मंदी का रुख है, ऐसे में वे नीतिगत मामलों में किसी तरह का तनाव नहीं चाहते।