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  लेख  सारी दुनिया को करके नाखुश चल दिए बुश
लेख

सारी दुनिया को करके नाखुश चल दिए बुश

बीएस संवाददाताबीएस संवाददाता—January 20, 2009 9:26 PM IST
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राष्ट्रपति के तौर पर अपने अंतिम संवाददाता सम्मेलन में जार्ज डब्ल्यू बुश ने इस बात से इनकार किया कि उनके कार्यकाल के दौरान दुनिया में अमेरिका का नैतिक पतन हुआ है। उन्होंने कहा कि ‘भारत जाइए और अमेरिका के बारे में उनकी राय पूछिए।’


यहां मैं अपने विचार जाहिर कर रहा हूं, लेकिन अमेरिका के बारे में नहीं, बुश के बारे में जो आज अपना कार्यालय छोड़ देंगे। इकॉनामिक एंड पॉलिटिकल वीकली में 2003 में छपे एक लेख में मैंने लिखा था कि ‘झूठ, घृणास्पद झूठ और श्रीमान बुश’, मैंने पुरजोर तरीके से उनके इराक अभियान की आलोचना की थी।

अमेरिका के साथ परमाणु समझौता होने के बाद भी मेरी राय नहीं बदली है। चाहे कुछ भी हो, पहले के मुकाबले आज उनकी अधिक आलोचना हो रही है। बुश उतने ही कट्टरपंथी हैं, जितने कि खुद ओसामा बिन लादेन। दोनों संवाददाता सम्मेलनों में यह दावा करते हैं कि उन्हें स्वयं भगवान से आदेश मिलते हैं।

वे सदा से स्वयंधर्मी हैं। आखिरकार जब वे केवल भगवान के आदेशों का अनुसरण मात्र करते हैं तो उन्हें खेद कैसे हो सकता है? जैसा कि उन्होंने एक साल पहले इराक हमले के बारे में कहा था, ‘मुझे विश्वास है कि मेरे जरिए ईश्वर की इच्छा पूरी हो रही है… इसके बिना मैं अपना काम कर ही नहीं सकता हूं।’

ओसामा और बुश ने एक दूसरे को अद्भुत ताकत दी है। ओसामा ने 11 सितंबर को अमेरिका पर हमला करके बुश के लिए एक बार फिर राष्ट्रपति की गद्दी पर काबिज होने का रास्ता साफ कर दिया।

बुश ने अपने कार्यकाल के दौरान अमीरों को कर राहत देने, आतंक के खिलाफ धर्म युद्ध (उनके अपने शब्दों में) के सिवाय कुछ नहीं किया।

आमतौर पर सवाल करने वाले और हर मामले की तह तक जाने वाले अमेरिकी मीडिया (वाटरगेट प्रकरण में मीडिया की भूमिका को याद कीजिए, जिसमें आखिरकार निक्सन को इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ा था) ने इराक प्रकरण पर सवाल उठाए और कांग्रेस ने इराक पर हुए हमले के बारे में अपनी टिप्पणी में कहा कि यह दावों की ठीक प्रकार से जांच किए बगैर शुरू किया गया झूठ और धोखे पर आधारित अभियान था।

(दूसरी ओर इस युवा राष्ट्रपति ने पूरे घमंड और धूमधाम के साथ समय से पहले ही इस बात की घोषणा की कि ‘अभियान पूरा हो चुका है।’)

निश्चित तौर से एक दूसरे को फायदा पहुंचाने की इस होड़ में ओसामा के मुकाबले बुश का पलड़ा भारी है। आतंक के खिलाफ बुश द्वारा शुरू की गई जंग की कीमत किसे चुकानी पड़ी? इस जंग में बड़ी संख्या में लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा और करोड़ों मुसलमानों पर विपदा आ पड़ी।

बुश इजरायल को मुखर समर्थन करते हैं, लोकतंत्र की बात करते हैं और सऊदी अरब से उनकी नजदीकी भी है। वह मानवाधिकारों और ‘आजादी को लेकर अमेरिकी रुख’ की बात करते हैं और तभी ग्वांतानामो तथा अबु गरीब में भयानक प्रताड़ना की खबरें आती हैं।

संदिग्ध आतंकवादियों की असामान्य व्याख्या (आप उसे अपहरण भी कह सकते हैं)- ओसामा को अपने मकसद को अंजाम तक पहुंचने के लिए बुश से अच्छा भर्ती करने वाला नहीं मिल सकता था। खैर, इस बीच ज्यादातर लोग इस बात से इत्तफाक रखेंगे कि उनके कार्यकाल के दौरान सबसे असामान्य तमाशा बीते महीने उस समय हुआ।

जब बगदाद में एक संवाददाता सम्मेलन के दौरान एक पत्रकार ने बुश की ओर जूता फेंक दिया। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि 2006 में किए गए एक सर्वेक्षण में 34 प्रतिशत लोगों से युद्ध बाद के इतिहास में बुश को सबसे बुरा राष्ट्रपति माना।

यह सर्वेक्षण 16 दिसंबर को हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित हुआ था। निक्सन 17 प्रतिशत वोट के साथ दूसरे स्थान पर थे। राष्ट्रपति के तौर पर बुश की अक्षमता इराक में युद्ध के बाद के हालात से निपटने की उनकी रणनीतियों से जाहिर होती है।

प्रमुख प्रशासकों की नियुक्ति करते समय निकॉन की उस विचारधारा को ध्यान में रखा गया। ऐसे लोगों को ठेके दिए गए जिन्होंने युद्ध का निजीकरण कर लिया था।

(युद्ध से सबसे अधिक फायदा हासिल करने वाली कंपनी हालीबर्टन थी और बुश प्रशासन में उप-राष्ट्रपति डिक चेनी एक समय में इस कंपनी के प्रमुख रह चुके हैं।) कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि दसियों अरब डालर के खर्च का कोई ठीक हिसाब नहीं रखा गया है।

एक किताब में किसी इराकी विद्वान के हवाले से लिखा गया है कि ‘हमने अपने आपको कभी भी शिया या सुन्नी के तौर पर नहीं देखा है। हम पहले इराकी थे। लेकिन अमेरिका ने सब कुछ बदल दिया।’ बांटों और राज करो? नहीं, यह तो एक ऐसा मामला है जिसका मकसद बांटो और शासन को कुशासन में बदल दो।

उनकी आर्थिक नीतियां क्या थीं? उन्होंने बड़ी ही तेजी से रिकार्ड वित्तीय अतिरेक को रिकार्ड वित्तीय घाटे में बदल दिया। इसके साथ ही अपनी रॉबिन हुड की छवि को मजबूत करने के लिए धनी लोगों को कर राहत देने की कवायद को कमजोर नहीं पड़ने दिया।

एक ऐसे समय में जब युद्ध में करोड़ डॉलर खर्च हो रहे थे, बुश ने करों में कटौती जारी रखी। और तब मुख्य कार्यपालक  इस विचारधारा को मानने लगे कि ‘असल समस्या यह है कि सरकार किसी समस्या का हल नहीं खोज सकती है।’

ऐसे में बुश से लचर नियमन, सब प्राइम संकट और मैडोफ घोटाले के अलावा और क्या उम्मीद की जा सकती थी। एक भारतीय के तौर पर मैं बुश को परमाणु समझौते के लिए धन्यवाद देता हूं। लेकिन कई अर्थों में उनकी विचारधारा और कार्यपद्धति ने लोकतंत्र और पूंजीवाद दोनों को ही नुकसान पहुंचाया है।

उन्होंने ‘एक मात्र विचारधारात्मक राष्ट्र’ होने के अमेरिकी दावे को भी नुकसान पहुंचाया है। और अब अपना कार्यालय छोड़ते समय दुनिया को 1929 के बाद अब तक के सबसे बड़े आर्थिक संकट की दहलीज पर छोड़ कर जा रहे हैं।

चलते चलते: पिछले कुछ सप्ताह में दो एशियाई देशों ने यह साबित कर दिया कि वे पश्चिम से पीछे नहीं हैं। इजरायली प्रवक्ता ने गाजा पर उनके द्वारा किए जा रहे हमलों से फिलिस्तीनी नागरिकों को मारे जाने या विकलांग होने पर चिंता जाहिर की।

यह चिंता इतनी ही सहजता के साथ जाहिर की गई जिनकी कि कोई अमेरिका या इंगलैंड का प्रतिनिधि अपने देश की ओर से खेद व्यक्त कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेता है। अब सत्यम घोटाले पर आते हैं।

पूरे प्रकरण से बोर्ड सदस्य के तौर पर अमेरिकी अमेरिकी विद्धानों की बुद्धि और चतुराई पर भारतीय प्रवर्तकों का भरोसा घटा है। जाहिर तौर पर एक दशक पहले एलटीसीएम के दिवालिया होने की घटना पर्याप्त नहीं थी।

finally bush go by making people unhappy
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