केंद्र सरकार की दूरसंचार नीति के तहत इस क्षेत्र से प्राप्त होने वाला 5 प्रतिशत राजस्व सार्वभौम सेवा अनिवार्यता (यूएसओ) कोष के लिए सुरक्षित रखा गया है। इस पहल को अस्तित्व में आए लगभग दो दशक हो गए हैं। अब यूएसओ कोष में जमा रकम 1 लाख करोड़ रुपये से अधिक हो गई है। मगर केंद्र सरकार जिस तरह इस कोष का प्रबंधन कर रही है उससे नियंत्रक एवं महालेखक परीक्षक (सीएजी) संतुष्ट नहीं है। ऐसा देखा गया है यूएसओ कोष के लिए आरक्षित रकम का स्थानांतरण समयानुसार नहीं हुआ है। यह रकम भारत की संचित निधि कोष में जमा रही है। संचित निधि में जमा रहने से सरकार को राजकोषीय घाटा कम कर दिखाने में मदद मिली है। सीएजी ने कहा कि इससे भी गंभीर बात यह है कि यूएसओ कोष में रकम आने के बाद भी इस्तेमाल आधा ही किया गया है। जिस उद्देश्य से इस कोष की स्थापना हुई थी वह इससे निष्फल हो रहा है। दूरसंचार उद्योग में ढांचागत कमियां एवं विफलताएं दूर करने और देश के सुदूर क्षेत्रों में इस क्षेत्र से जुड़ी बुनियादी सेवाओं की शुरुआत के लिए इस कोष का निर्माण किया गया है।
एक और गंभीर बात यह है कि इस कोष में जमा रकम का इस्तेमाल बीएसएनएल जैसी सरकारी दूरसंचार कंपनियां अपने परिचालन के लिए इस्तेमाल करती रही हैं। अब दूसरी दूरसंचार कंपनियों ने भी दावा कर दिया है। भारती एयरटेल समर्थित वनवेब जैसे उपग्रह आधारित ब्रॉडबैंड सेवा प्रदाताओं का कहना है कि वे देश के सुदूर क्षेत्रों में कम लागत में ब्रॉडबैंड सेवाएं प्रदान कर सकती हैं। पुरानी दूरसंचार कंपनियों ने इस प्रस्ताव की यह कहकर आलोचना की है कि यूएसओ कोष में जमा रकम उनके परिचालन से प्राप्त राजस्व से जमा हुई है इसलिए इसका इस्तेमाल ढांचागत सेवाओं एवं उनके अपने तंत्रों के विस्तार में होना चाहिए। अब रिलायंस जियो के मालिक मुकेश अंबानी का कहना है कि यूएसओ कोष का इस्तेमाल मोबाइल हैंडसेट सस्ती कीमत पर देने में हो सकता है।
अंबानी का तर्क है कि इससे निम्न आय वर्ग वाले लोग फीचर फोन छोड़कर स्मार्टफोन का इस्तेमाल कर पाएंगे जिसका परिणाम यह होगा कि देश में मोबाइल ब्रॉडबैंड की मांग बढ़ेगी। एक बात तो स्पष्ट है कि सरकार को यह धारणा छोड़ देनी चाहिए कि यूएसओ कोष का इस्तेमाल अनियोजित रूप में भी किया जा सकता है। सरकार को पारदर्शी एवं सहमति आधारित सिद्धांतों के आधार पर इस कोष के इस्तेमाल के लिए एक कार्य योजना तैयार करनी चाहिए। इससे लेकर कोई विवाद नहीं हो सकता कि देश में ब्रॉडबैंड सेवाओं का विस्तार सर्व प्रमुख लक्ष्य होना चाहिए। लिहाजा यह तथ्य काफी संवेदनशील है कि यूएसओ कोष से आवंटित लगभग आधी रकम 2011 में शुरू हुई भारतनेट परियोजना के मद में गई है। इस परियोजना के माध्यम से देश के सभी ग्राम पंचायतों को फाइबर-ऑप्टिक नेटवर्क से जोडऩे का लक्ष्य है। मगर यह परियोजना भी देरी का शिकार हुई है और अब 2023 के आरंभ तक दूसरा चरण पूरा करने का लक्ष्य रखा गया है। पहले यह कार्य 2016 तक पूरा हो जाना था। यहां स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि क्या यूएसओ कोष में देरी से रकम आने से परियोजना में विलंब हुआ है और ऐसा है तो इस कोष से पूरी रकम क्यों नहीं निकाली गई है। 2015 में एक विशेषज्ञ समिति ने सुझाव दिया था कि निकट अवधि एवं तत्काल जरूरतों के लिए यूएसओ कोष को बाजार से उधार लेने की अनुमति दी जानी चाहिए। इस सुझाव पर चलते हुए यूएसओ कोष में रकम जमा होने की समस्या से निपटा जा सकता था। रकम जुटाने पर जो ब्याज चुकाना पड़ता है उसे परियोजना पर हुए खर्च के मद में जोड़ दिया जाता। दूसरा चरण पूरा होने के बाद भारतनेट के अगले चरणों में इन गलतियों की पुनरावृत्ति नहीं होनी चाहिए। ब्रॉडबैंड ढांचे के विकास में बिना किसी भेदभाव का ध्यान रखते हुए यूएसओ कोष का पूरा उपयोग होना चाहिए।
