दलाई लामा (तेंजिन ग्यातसो) को एक तिब्बती शरणार्थी के रूप में भारत में रहते हुए 50 साल हो चुके हैं।
हिमाचल प्रदेश में निर्वासित तिब्बतियों की राजधानी मैकलियॉडगंज में जनजीवन सामान्य रूप से चल रहा है। निर्वासित तिब्बती शरणार्थियों की संसद और उसके अधिकारी एकजुट होकर वर्तमान वित्त वर्ष के लिए बजट बना रहे हैं।
उन्होंने कुल 103 करोड़ रुपये का बजट तैयार किया है, जिसको प्रशासन और समुदाय के कल्याण के लिए खर्च किया जाना है। इस वक्त देश में निर्वासित तिब्बत शरणार्थियों की कुल संख्या लगभग 1.4 लाख है।
यहां के ‘अधिकारीगण’ बजट के जुड़ी मुख्य बातों को बताने के लिए बेहद इच्छुक हैं। अपने नए उद्यमों के साथ-साथ वे एक स्वतंत्र सहकारी बैंक स्थापित करने की जुगत में भी हैं ताकि स्वयं के लिए आसानी से जमा राशि उपलब्ध करा सकें।
यहां के अधिकारी शरणार्थी बस्तियों में एक बीपीओ की स्थापना करने की भी योजना बना रहे हैं ताकि स्नातक की डिग्री लिए तिब्बतियों को रोजगार मुहैया कराया जा सके। इसके अलावा, वे समुदायों के लिए जैविक कृषि को एक आदर्श बनाना चाहते हैं।
मालूम हो कि तिब्बती शरणार्थियों के लिए आय का मुख्य साधन ग्रीन बुक ही है। ग्रीन बुक वास्तव में ‘स्वैच्छिक कर’ का रिकॉर्ड होता है। समुदाय निर्वासित तिब्बती शरणार्थियों की सरकार के लिए भुगतान करता है। अधिकारीगण इस महत्त्व पर जोर देते हैं कि यह कर वास्तव में समुदायों के सुनहरे भविष्य के लिए है और इस कर का इस्तेमाल ऐसी परियोजनाओं के ऊपर खर्च करने की जरूरत है, जिससे अधिक आय का सृजन किया जा सके।
दलाई लामा की वास्तविक योजना तिब्बती शरणार्थी समुदाय को खुद के लिए जवाबदेह बनाने की है। जाहिर सी बात है, उनकी यह योजना बहुत हद तक सही आकार भी ले रही है। इसमें कोई शक नहीं कि तिब्बतियों ने निर्वासित शरणार्थियों के रूप में एक लंबा सफर तय किया है।
मालूम हो कि तिब्बत में चीन की बढ़ती उपस्थिति से बचने के लिए 1959 में दलाई लामा ने अपने अनुयायियों के साथ भारत का रुख किया था। दलाई लामा के साथ लगभग 80,000 लोग भी शरणार्थी के रूप में भारत आए थे। दुर्गम हिमालय को भी पार करके आने वाले तिब्बतियों के पास कुछ था तो सिर्फ और सिर्फ उनका निर्जल शरीर।
इसमें कोई शक नहीं कि तिब्बत के एक निर्विवादित आध्यात्मिक नेता होने के नाते दलाई लामा तिब्बती जीवन के हर पहलू में किसी न किसी रूप में नजर आते हैं। लेकिन अगर आप गहराई में जाकर इसके बारे में जांच-पड़ताल करें तो आप देखेंगे कि आज यह जो दलाई लामा एक ब्रांड के रूप में उभर कर सामने आ रहे हैं, उनके और निर्वासित तिब्बती अर्थव्यवस्था के बीच एक ऐसा रिश्ता है जो न दिखाई देता है और यह बहुत अटूट भी है।
अभी हाल ही में दलाई लामा अमेरिकी के दौरे पर गए थे। दलाई लामा एक खास उद्देश्य के लिए लंबे समय से अमेरिका का दौरा कर रहे हैं। हालांकि ऐसा भी नहीं है कि वे वहां के किसी अधिकारी या फिर राष्ट्रपति बराक ओबामा से भेंट-मुलाकात करने के लिए जद्दोजहद करते हैं। लेकिन ऐसा माना जाता है कि निर्वासित तिब्बत अर्थव्यवस्था को दान देने वालों में अमेरिकी विदेश विभाग सबसे बड़ा दाता है।
अमेरिकी विदेश विभाग आमतौर पर निर्वासित तिब्बती अर्थव्यवस्था को सालाना 35 लाख डॉलर दान करता है। मालूम हो कि अमेरिका के पास व्यक्तिगत और संगठनात्मक दाताओं का सबसे बड़ा गुट है। संभवत: निर्वासित तिब्बत समुदाय के बजट का 70 फीसदी हिस्सा अभी भी विदेशी दाताओं के दान के भरोसे ही चल रहा है। ये विदेशी दाता निर्वासित तिब्बत समुदायों के अंदर आय सृजन से जुड़ी योजनाओं के उन्नयन के लिए दान करते हैं।
जब तिब्बत शरणार्थियों का आगमन हुआ था तब भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें पट्टे पर जमीन दी थी। यहां आने के बाद दलाई लामा ने तिब्बती शरणार्थियों के लिए अर्थव्यवस्था का सृजन किया ताकि वे अपना जीवनयापन कर सकें। दलाई लामा ने तिब्बती शरणार्थियों के लिए कृषि और कुटीर उद्योगों की स्थापना की।
लेकिन आगे चल कर उनका यह पहल विफल हो गया। एक ओर जहां 2001 में कुटीर उद्योगों को निर्वासित तिब्बती प्रशासन से हटाकर व्यक्तिगत तौर पर तिब्बतियों के हाथों में सौंप दिया गया, वहीं कृषि की कहानी भी उलझ कर रह गई। आज के दौर में तिब्बती बस्तियों के लिए कृषि पर्याप्त फायदे का सौदा नहीं साबित हो रहा है।
यही वजह है कि तिब्बती बस्तियां अब जैविक खेती की ओर रुख कर रहे हैं। लेकिन उनके पास ऐसा कोई ट्रैक रिकॉर्ड नहीं है कि यह जैविक खेती भी फायदे का सौदा साबित हो सके । भारत में रह रहे तिब्बती शरणार्थियों को अमेरिका के अलावा भी अन्य देशों से दान मिलता है। तिब्बत शरणार्थियों के पीछे नॉर्वे, ब्रिटेन, फ्रांस, नीदरलैंड, डेनमार्क और जर्मनी का भी हाथ है।
दलाई लामा पिछले कुछ सालों से लगातार इन देशों का दौरा कर रहे हैं। हालांकि उनके बुढ़ाते शरीर की थकान अब साफ झलकती है। दाताओं से मिलने वाले धन के अलावा दलाई लामा को अन्य स्रोतों से भी आय होता है।
उदाहरण के लिए दलाई लामा की पावन वाणी भी आय का एक प्रमुख साधन है। अगस्त महीने में फ्रैंकफर्ट में उनको सुनने के लिए करीब 130 यूरो और 230 यूरो के बीच खर्च किया जाएगा। कभी कभार चैरीटी डीनर के दौरान लोगों के जमावड़े से भी फंड की उगाही हो जाती है।
उदाहरण के लिए अभी हाल ही में जिस तरह मुंबई में एक चैरिटी डिनर का आयोजन किया गया था उससे तिब्बतियों के लिए फंड जमा किया गया था। उगाही की गई राशि को सीधे उन कार्यक्रमों में लगाया जाता है जिसे दलाई लामा ने तैयार किया है। मालूम हो कि ये कार्यक्रम मुख्य रूप से निर्वासित समुदायों को बनाए रखने के लिए है।
यही नहीं, ये ऐसे कार्यक्रम हैं जिनसे इन तिब्बती समुदायों की सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखने, शिक्षा का प्रसार-प्रचार करने, उनलोगों को जिंदा रखने और राजनीतिक चुनौतियों का सामना करने के लिए किया जा सके। मालूम हो कि अमेरिकी विदेश विभाग के जनसंख्या, शरणार्थी और प्रवासन मामलों के ब्यूरो तिब्बती स्कूलों और अमेरिका में पेशेवर पाठयक्रमों के लिए फुलब्राइट छात्रवृति के लिए फंड मुहैया कराता है।
जबकि इसी विभाग के शैक्षिक और सांस्कृतिक मामले के ब्यूरो तिब्बतियों की पहचान को बनाए रखने के लिए फंड मुहैया कराता है। इसके अलावा, तिब्बती शरणार्थियों को नॉर्वे चर्च जैसे संगठन की ओर से भी सहायता राशि मुहैया कराई जाती है। नॉर्वे चर्च मुख्य रूप से तिब्बती कृषि को जैविक विधियों के माध्यम से बचाए रखने के लिए फंड करती है।
भारत सरकार ने आधिकारिक तौर पर कहती है कि तिब्बत चीन का हिस्सा है और हम तिब्बत शरणार्थियों के लिए कोई औपचारिक मौद्रिक समर्थन नहीं करते हैं। हालांकि शुरुआती खर्चों को भारत सरकार ने वहन किया था लेकिन भारत सरकार की भूमिका उन्हें पट्टे पर दिए गए जमीन तक ही सीमित थी और साथ ही सरकार शरणार्थियों पहचान और पर्यटन से जुड़े दस्तावेज मुहैया कराती है।
हालांकि तिब्बती शरणार्थियों में वे ही लोग भारत में जमीन ले सकते हैं जिन्होंने यहां की नागरिकता हासिल कर ली है। थुबटेन सैम्फल, लेखक और तिब्बत नौकरशाही के सदस्य हैं और उनका कहना है, ‘दलाई लामा की मौजूदा छवि ऐसी है कि ज्यादातर चीनियों की परेशानी का सबब वही हैं।’
उनकी यही छवि है, जिसकी वजह से उन्हें शांति के लिए नोबेल पुरस्कार भी मिला और अमेरिका की ओर से कांग्रेसी गोल्ड मेडल भी दिया गया। पिछले साल टाइम्स पत्रिका में 100 शीर्ष प्रभावशाली व्यक्तियों की फेहरिस्त में इनका नाम दूसरी बार शामिल हुआ।
अगले दलाई लामा के लिए नाम ढूंढ़ना काफी जद्दोजहद का काम है और यह सिर्फ तभी शुरू हो सकेगा जब खुद दलाई लामा पदा छोड़ देंगे। कोई यह नहीं जानता कि अगले दलाई लामा की पहचान कहां हो पाएगी। क्या वे चीनी तिब्बती होंगे? लेकिन दलाई लामा ने अपने पुनर्जन्म पर बार-बार जोर दिया है, ताकि वे ‘एक आजाद देश में ही पैदा हो सकें’।
केंद्रीय तिब्बती प्रशासन (सीटीए) या निर्वासित तिब्बत सरकार (टीजीआईई)
टीजीआईई किसी भी देश में पंजीकृत या मान्यता प्राप्त संस्था नहीं है। इसका मुख्यालय हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में है, जिसके प्रमुख दलाई लामा है, जो निर्वासित संसद के निर्वाचित प्रमुख हैं।
कहां से पूरी होती हैं वित्तीय जरूरतें
द ग्रीन बुक
टीजीआईई की तरफ से सभी तिब्बत शरणार्थियों को भारत और विदेशों में यह दस्तावेज जारी किया गया है। टीजीआईई को ‘स्वैच्छिक योगदान’ देने के लिए इस दस्तावेज का इस्तेमाल किया जाता है। वर्ष 2007-08 में कुल 6.15 करोड़ रुपये एकत्र किए गए थे। ग्रीन बुक का अपने पास होना अनिवार्य नहीं है, लेकिन बिना इस दस्तावेज के कोई भी टीजीआईई के लिए मतदान नहीं कर सकता और न ही इसकी सेवाओं का इस्तेमाल कर सकता है।
स्वैच्छिक योगदान राजस्व
भारत में शरणार्थी
ऐसे शरणार्थी जिनके पास स्थायी रोजगार नहीं है उनके लिए 58 रुपये
वेतन भोगियों के लिए 58 रुपये और संचयी वेतन का 2 फीसदी या आधार वेतन का 4 फीसदी, जो अधिक हो।
विदेशों में शरणार्थी
ऐसे शरणार्थी जिनके पास स्थायी रोजगार नहीं है उनके लिए 46 डॉलर
सहकारिता सोसायटी के वेतन भोगियों के लिए 96 डॉलर सालाना और मुनाफा कमाने वाले कारोबारों के लिए मुनाफे का 15 प्रतिशत
तिब्बत शरणार्थियों की आय का स्तर (2004 में गणना)
10 फीसदी गरीबी रेखा के नीचे (रोजाना 1 डॉलर से कम आय वाले)
35 प्रतिशत की सालाना आय 8,000 रुपये से अधिक है
वैयक्तिक औसत सालाना आय 13,000 रुपये
ग्रीन बुक के फायदे
मठों में 6 से 25 वर्ष की आयु के बीच पढ़ने वाले छात्रों को भत्ते के तौर 200 रुपये मासिक मिलते हैं
बारहवीं तक शिक्षा निशुल्क
उच्च शिक्षा के लिए छात्रवृति, खासतौर पर पेशेवर
पाठयक्रमों के लिए
कम-आय वर्ग के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य देख-रेख मुफ्त और प्रमुख चिकित्सा उपचार के खर्च के लिए कर्ज मुहैया कराया जाना (मामले के आधार पर)
विदेशी दानदाता
अमेरिकी सरकारी विभाग (जनसंख्या, शरणार्थी और प्रवासन ब्यूरो और शिक्षा एवं संस्कृति मामलों का ब्यूरो) से सालाना लगभग 35 लाख डॉलर का योगदान
नॉर्वे, मूल रूप से नॉर्वीजियन चर्च सहायता के रूप में 5 लाख डॉलर की राशि
स्विट्जरलैंड, डेनमार्क, जर्मनी, ताइवान, जापान, भारत और दूसरे देशों के लोगों और संस्थाएं
भारत सरकार निपटारे के लिए किराये की जमीन के मामले में सहायता देती है और कुछ राशि शुरुआती शरणार्थियों को बसाने पर खर्च करती है
कहां, कहां से होकर आता है पैसा
दान राशि बहुत सारे पंजीकृत दान दाता ट्रस्टों के जरिये पहुंचती है। निर्वासित सरकार इन संस्थानों से पैसा लेती है और उनके खाते पर ही खर्च भी करती है।
धार्मिक नेता दलाई लामा का धर्मार्थ ट्रस्ट
तिब्बती प्रशासनिक कल्याण सोसायटी
सामाजिक और संसाधन विकास कोश
केंद्रीय तिब्बती राहत समिति
तिब्बती बाल कल्याण शैक्षिक कोश
तिब्बती स्वैच्छिक स्वास्थ्य संघ
दलाई लामा की धार्मिक और सांस्कृतिक सोसायटी
भारत में तिब्बती
तिब्बत शरणार्थियों की कुल संख्या
भारत, नेपाल और भूटान में तकरीबन 1.4 लाख
विदेश – अमेरिका : 10,0000
ब्रिटेन – 4,000
स्विट्जरलैंड और दूसरी जगहों पर 2,500
