भूख से होने वाली मौतें अतीत की बात हो सकती है लेकिन कुपोषण पर अब भी काबू नहीं पाया जा सका है। दुनिया में अनाज, दाल, फल, सब्जी एवं दूध जैसे अधिकांश खाद्य उत्पादों के मामले में भारत के पहला या दूसरा बड़ा उत्पादक होने के बावजूद यह स्थिति है। जनसंख्या के एक बड़े हिस्से का खानपान न तो पर्याप्त है और न ही पोषण के स्तर पर संतुलित ही होता है। प्रोटीन, विटामिन, खनिज या अन्य बड़े-छोटे पोषक तत्त्वों की कमी चौतरफा पाई जाती है। खासकर विकास, ऊतकों की मरम्मत एवं बीमारियों की रोकथाम में मददगार माने जाने वाले लौह एवं जिंक और विटामिन ए एवं सी जैसे पोषक तत्त्वों की कमी गंभीर चिंता की बात है। इन तत्त्वों की कमी होने से बच्चों का शारीरिक एवं मानसिक विकास प्रभावित होता है और महिलाओं एवं स्तनपान कराने वाली माताओं समेत वयस्कों की भी सेहत पर बुरा असर पड़ता है। ऐसे में वैश्विक भूख सूचकांक 2020 में भारत को 107 देशों में से 94वें स्थान पर देखकर शायद ही किसी को अचरज हुआ होगा। भारत इस रैंकिंग में नेपाल, पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे छोटे पड़ोसी देशों से भी पिछड़ गया है। यह सूचकांक बुनियादी तौर पर खराब पोषण एवं उसके दुष्प्रभावों का संकेतक है। वर्ष 2016 में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-4 ने भी पौष्टिकता की भारी कमी का जिक्र किया था। उस सर्वे में यह पता चला था कि पांच साल से कम उम्र के 38.4 फीसदी बच्चों का कद अपनी उम्र के हिसाब से नहीं है और करीब 21 फीसदी बच्चों का वजन उनकी लंबाई के अनुपात में नहीं था। आधी से अधिक महिलाओं यानी 53 फीसदी में खून की कमी थी।
निस्संदेह सरकार विभिन्न कल्याण कार्यक्रमों के जरिये गरीबों एवं जरूरतमंदों को बेहद रियायती दर या मुफ्त अनाज मुहैया कराकर जरूरत से कम भोजन (अल्पपोषण) की समस्या से लडऩे की कोशिश कर रही है। हर साल सितंबर महीने को ‘पोषण माह’ और सितंबर के पहले हफ्ते को ‘पोषण सप्ताह’ के तौर पर मनाया जाता है। लेकिन इन कार्यक्रमों के जरिये अल्पपोषण के शिकार लोगों को सिर्फ पेट भरने वाले अनाज ही मिल रहे हैं, पौष्टिक आहार नहीं।
स्कूली बच्चों के लिए चलाई जा रही मध्याह्न भोजन योजना दुनिया में अपनी तरह की अनोखी योजना है लेकिन आंगनवाड़ी जैसी संस्थाओं के जरिये लागू की जा रही ऐसी तमाम पोषण-केंद्रित योजनाओं की तरह मध्याह्न भोजना योजना भी इसी समस्या से जूझ रही है। इनमें संतुलित पोषण पर जरूरी ध्यान नहीं दिया जाता है। इन कार्यक्रमों से अल्पपोषण की समस्या भले ही कम हो गई है लेकिन कुपोषण पर काबू नहीं पाया जा सका है। कुपोषण को सिर्फ पौष्टिक आहार के ही सेवन से दूर किया जा सकता है।
औसत भारतीयों के खराब पौष्टिक स्तर के लिए आंशिक तौर पर इस बात को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है कि अधिकांश उपलब्ध एवं व्यापक उपभोग वाले आहार असल में पोषण में बेहद कम हैं। अतीत में देश के व्यापक कृषि शोध नेटवर्क ने तमाम फसल किस्में उनके पोषण स्तर को उन्नत करने के बजाय उपज बढ़ाने और बीमारियों एवं कीटनाशकों के असर को कम करने की नीयत से ही विकसित की थीं। इस विसंगति को अब चुनिंदा फसल किस्मों में परंपरागत या आधुनिक पादप जनन पद्धतियों की मदद से पोषण बढ़ाने वाले जीन डालकर संवद्र्धित करने की कोशिश की जा रही है। ऐसी जीन-परिवर्तित एवं पोषण-संवद्र्धित फसलें (जैव-सुदृढ़) वाणिज्यिक रूप से उपलब्ध आहार से अलग होती हैं क्योंकि इनमें कृत्रिम तरीके के बजाय आनुवांशिक रूप से समाविष्ट अतिरिक्त पोषक तत्त्व होते हैं।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के शीर्ष वैज्ञानिकों के मुताबिक जैव-सुदृढ़ीकरण फूड सप्लीमेंट के बजाय जरूरी पोषण देने का सर्वाधिक टिकाऊ एवं कम लागत वाला तरीका है। आईसीएआर के महानिदेशक टी महापात्र और उप महानिदेशक डी के यादव ने ‘आहार एवं पौष्टिक सुरक्षा के लिए फसलों के जैव-सुदृढ़ीकरण’ पर प्रकाशित एक शोधपत्र में कहा है कि विभिन्न फसलों के लिए चलाए गए अखिल भारतीय समन्वित शोध कार्यक्रमों के तहत विकसित पोषण-वद्र्धित किस्में स्वस्थ विकास के लिए समुचित कैलरी एवं जरूरी पोषक तत्त्व मुहैया कराती हैं। उन्होंने बताया है कि इन कार्यक्रमों के तहत अब तक 70 से अधिक जैव-सुदृढ़ खाद्य फसलों का विकास किया जा चुका है और उन्हें खेती के लिए जारी कर दिया गया है।
जैव-सुदृढ़ फसलों के लाभों की पुष्टि बच्चों एवं महिलाओं पर वास्तविक असर के आकलन के लिए किए गए अध्ययनों में भी हुई है। ऐसे ही एक अध्ययन में 12-16 साल की उम्र के किशोरों को लौह क्षमता से युक्त बाजरे से बनी रोटी ‘भाकरी’ खाने को दी गई। इसके सेवन से उनकी सेहत में खासा सुधार देखने को मिला। भारत में लौह तत्त्व की कमी व्यापक स्तर पर पाई जाती है जबकि मांसपेशियों एवं मस्तिष्क उत्तकों के सही ढंग से काम करने के लिए यह बेहद जरूरी होता है। एक और अध्ययन में जिंक-वद्र्धित गेहूं 4-6 साल के बच्चों को खिलाया गया जिससे न्यूमोनिया एवं उल्टी के लक्षणों में काफी कमी दर्ज की गई। सरकार फिलहाल चुनिंदा इलाकों में लौह-वद्र्धित चावल के वितरण के लिए अगले तीन वर्षों के लिए 174 करोड़ रुपये की लागत से एक प्रायोगिक योजना चला रही है। इस कार्यक्रम को वर्ष 2024 तक संचालित करने की योजना है। जैव-सुदृढ़ चावल का बढ़ा हुआ इस्तेमाल वर्ष 2030 तक भूख-मुक्तविश्व बनाने के सार्वभौम रूप से स्वीकृत एवं संयुक्त राष्ट्र-समर्थित लक्ष्य को पूरा करने में काफी मददगार हो सकता है। इसके लिए जैव-सुदृढ़ फसलों की खपत बढ़ाने की जरूरत होगी। जैव-सुदृढ़ फसल उगाने के लिए किसानों को प्रोत्साहन देने और उनके स्वास्थ्य लाभों के बारे में उपभोक्ताओं को जागरूक करने की भी जरूरत होगी। सबसे जरूरी यह है कि जैव-सुदृढ़ उपज की मंडियों में अलग से खरीद-बिक्री हो और उत्पादकों को ऊंचे भाव मिलें। स्वास्थ्यवद्र्धक आहार का तमगा मिल जाने पर उनकी उपज के साथ-साथ उनकी खपत भी स्वाभाविक रूप से बढऩे लगेगी।
