नई दिल्ली में नौकरी कर रहे सुरक्षा गार्ड राजकुमार कर्ज लेने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं। पूर्वी दिल्ली के मयूर विहार इलाके के चिल्ला में एक छोटा मकान खरीदने के लिए उन्हें छह लाख रुपये की दरकार है।
चिल्ला कभी एक गांव हुआ करता था लेकिन आज यह उपेक्षित झुग्गी झोपड़ी बस्ती में तब्दील हो गया है। राजकुमार के पास भारतीय जीवन बीमा निगम की तीन पॉलिसी है।
इनमें से एक पॉलिसी अगले दो साल में परिपक्व होने वाली है। भारतीय जीवन बीमा निगम ने उन्हें तीन लाख रुपये का कर्ज देने का भरोसा दिया है।
बाकी रकम का इंतजाम उन्हें खुद करना होगा। बिहार राज्य में मधेपुरा के रहने राजकुमार के नाम कुछ जमीन है, लेकिन वह उसे फिलहाल बेचना नहीं चाहते। उनका कहना है कि इस जमीन की उन्हें तब जरूरत होगी जब इस शहर में उनके जैसे लोगों का रहना संभव नहीं हो पाएगा।
यानी यह बुरे वक्त में काम आएगा। वह मकान खरीदने के इच्छुक हैं क्योंकि वह किराए का भार नहीं उठा सकते, जो फिलहाल दो हजार रुपये के स्तर पर पहुंच गया है।
रियल एस्टेट सेक्टर पर भले ही मंदी की मार पड़ी हो, लेकिन इस शहर में पिछले कुछ महीनों के दौरान मकान का किराया काफी बढ़ गया है।
सुरक्षा गार्ड राजकुमार जिस अपार्टमेंट में डयूटी निभाते हैं, वहां हाल ही में नितिन वर्मा ने शिफ्ट किया है और इसे खरीदने के लिए उन्होंने जितना कर्ज लिया है उसे चुकाने के लिए बतौर ईएमआई (होम लोन चुकाने के लिए हर महीने दी जाने वाली किस्त) वह करीब 25000 रुपये चुका रहे हैं।
उन्हें इस बात का भरोसा नहीं है कि इस कठिन समय में यानी अर्थव्यवस्था में छाई मंदी के कारण वह अपनी नौकरी बचा पाने में सक्षम हो पाएंगे या नहीं। लेकिन वह मकान खरीदने के इच्छुक थे क्योंकि 15 हजार रुपये महीना किराया देना उन्हें भारी लग रहा था।
संयोग से उनके पास भी केरल के किसी इलाके में पुश्तैनी मकान है और एक फ्लैट भी, जिसे उन्होंने पांच लाख रुपये में खरीदा है।यह कैसे कहा जा सकता है कि ये लोग बेघर हैं और अब इनके सिर पर छत की जरूरत को कैसे पूरा किया जा सकता है?
शहरी विकास मंत्रालय का आवास और गरीबी निवारण विभाग इन लोगों की खातिर एक योजना बनाने की कोशिश में जुटा है। विभाग के आंकड़ों के मुताबिक ऐसे लोगों की संख्या 2.47 करोड़ है। विभाग फिलहाल अफोडर्ेबल हाउसिंग पर दीपक पारेख की रिपोर्ट का अध्ययन कर रहा है।
रिपोर्ट में हालांकि किराए के मकान के बारे में कुछ नहीं कहा गया है जबकि सच्चाई यह है कि शहरों का तेजी से विकास हो रहा है और जमीन का अभाव हो गया है। वह चाहता है कि शहर में जितने लोग रह रहे हैं उन सभी के पास अपना मकान हो यानी सिर पर छत हो। क्या यह संभव है?
आवास विभाग को पता है कि हाउसिंग ने बड़ी संख्या में रियल एस्टेट निवेशकों को आकर्षित किया है। और ज्यादातर लोगों को ऐसा निवेशक बनने को मजबूर किया गया है। इसी वजह से कीमतें और किराए दोनों में तेज रफ्तार से बढ़ोतरी हुई है।
ऐसे में लोग बुरी तरह से मकान की खोज कर रहे हैं और अपनी वास्तविक जरूरत के मुकाबले कई गुना ज्यादा कमाने के लिए संघर्ष करने को मजबूर हो रहे हैं। किराए का आवास और तय किराये को विकसित देशों की तरह नीति निर्माता अब तक समाधान की नजर से नहीं देखते।
आवास सचिव किरण ढींगरा ने कहा कि अब तक यह हमारे एजेंडे में शामिल नहीं हो पाया है। उनका कहना है कि सिंगापुर और कुछ अमेरिकी शहरों के उलट, जहां सामुदायिक और सरकारी स्वामित्व वाले किराए के आवास हैं, यहां हमारे पास काफी मात्रा में जमीन है।
नौवीं योजना में अफोडर्बल हाउसिंग के लिए विभाग को 500 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं। इस रकम से विभाग सिर्फ 18 लाख आवास बना सकता है और यह आवास की मांग के समंदर में बूंद जैसा ही होगा क्योंकि ‘बेघरों’ की संख्या काफी बड़ी है।
पारेख कमिटी शहरी आवास की निरंतरता को उसी नजर से देखते हैं जैसा कि बैंकर को देखना चाहिए। कमिटी ने अफोडर्ेबल हाउसिंग सेगमेंट के लिए जमीन अधिग्रहण के नियमों में सरलीकरण और कृषि भूमि को बदलने के नियमों में बदलाव की सिफारिश की है।
कभी दिल्ली विकास प्राधिकरण के उपाध्यक्ष रहे एक व्यक्ति ने कृषि भूमि के वाणिज्यिक इस्तेमाल पर होने वाली आलोचना पर हंसते हुए कहा कि शहरी जमीन भी कभी खेती की जमीन थी।
जब तक हमारी थाली में भोजन है, यह तर्कसंगत लगता है। लेकिन राजकुमार के लिए भोजन तेजी से गायब हो रहा है। ऐसे समय में हर व्यक्ति के सिर पर छत सुनिश्चित करने केदौरान भोजन पर विचार किया जा सकता है।