सामाजिक मुद्दों से संबंधित न्यायिक आदेशों को लागू करने में कई तरह की अड़चनें सामने आती हैं। सरकारी उदासीनता और शक्तिशाली निहित स्वार्थी तत्व इस समस्या को और जटिल बना देते हैं।
बाल श्रम के मामले में भी कुछ ऐसा ही देखने को मिला है। बाल श्रम उन्मूलन के लिए उच्चतम न्यायालय ने अब तक जो आदेश जारी किए हैं अगर उन पर गौर किया जाए तो पता चलेगा कि उनमें से ज्यादातर को या तो भुला दिया गया है या उन पर कोई कार्रवाई नहीं की गई।
तकरीबन दो दशक पहले सर्वोच्च न्यायालय ने बंधुआ मजदूरों के कई परिवारों को रिहा किया था, जिनमें बच्चे भी शामिल थे। बाद में बाल श्रम की समस्या को उभारते हुए तमाम याचिकाएं दायर की गईं। उनके बाद अदालत ने प्रत्येक क्षेत्र में हालात का जायजा लेने के लिए समितियां गठित कीं। लेकिन, बच्चों के हक में दिए गए इन आदेशों को पूरा देश भुला चुका है क्योंकि अदालत या किसी दूसरे विभाग ने इन पर कोई कार्रवाई ही नहीं की।
एक दशक पहले तक बाल श्रम पर उच्चतम न्यायालय की पैनी नजर हुआ करती थी और जोखिम भरे कामों में अगर बच्चों को लगाया जाता था तो कड़ी कार्रवाई के लिए भी वह मुस्तैद रहा करता था। बाल श्रम का गोरख धंधा कम से कम 25 क्षेत्रों में फैला हुआ था।
पटाखा, स्लेट-चौक की खानें, शीशे, कालीन, दरी, हीरे की नक्काशी, रत्न और रेशम उद्योगों में बच्चों को लगाया जाना आम है। इन मुद्दों को जनहित याचिकाओं, खासतौर पर एम सी मेहता बनाम तमिलनाडु राज्य और बंधुआ मुक्ति मोर्चा बनाम यूनियन बैंक ऑफ इंडिया मामले में प्रमुखता के साथ उठाया गया है। जब यह मामला अदालत में विचाराधीन था, उसी दौरान शिवकाशी में आगजनी से कई बच्चों की मौत हो गई थी।
यही वजह है कि न्यायालय ने पटाखे समेत दूसरे उद्योगों में भी बाल श्रम से जुड़े खतरों का पता लगाने के लिए समिति गठित की। अदालत ने इस मामले में नियोक्ताओं को आदेश जारी किया कि हर मारे गए बच्चे के लिए मुआवजे के तौर पर 20,000 रुपये दिये जाएं। इस मुआवजे को बाल श्रम पुनर्वास कल्याण कोष में जमा करने का आदेश दिया गया।
अधिकारियों को यह भी सुनिश्चित करने को कहा गया कि हर बच्चे के परिवार के एक वयस्क सदस्य को बच्चे के बदले में नौकरी दी जाए। यह राज्य सरकार पर छोड़ दिया गया कि वह मामले पर किस तरीके से कार्रवाई करती है। राज्य सरकार को भी हर बच्चे की ओर से 5,000 रुपये कल्याण कोष में जमा करने का आदेश दिया गया। इस मामले में 10 और निर्देश जारी किए गए थे।
इन निर्देशों को काफी पहले ही भुला दिया गया और स्थितियों में भी काफी कम सुधार ही आया है। श्रम मंत्रालय में काफी कम अधिकारियों को यह आदेश याद रहा होगा कि बाल श्रम उन्मूलन के लिए कल्याण कोष का गठन किया जाना था। संविधान में भी इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि 14 साल से कम उम्र के बच्चों को काम पर लगाना कानूनी अपराध है।
फैक्टरी ऐक्ट के अनुसार 14 से 18 साल के बच्चे भी डॉक्टरी जांच और सलाह के बाद ही काम कर सकते हैं। इंप्लयॉयमेंट ऑफ चिल्ड्रन ऐक्ट के मुताबिक 15 साल से कम उम्र के किसी बच्चे को परिवहन, माल ढुलाई और पोत पर नियुक्त नहीं किया जा सकता है। साथ ही परिवहन के काम में लगे 16 से 18 साल के बच्चों को भी काम की पाली के बीच 12 घंटे का अंतराल मिलना चाहिए।
अगर परिवार के लोग चाहें तो भी बच्चों को जोखिम भरे कामों में नहीं लगाया जा सकता है। बाल कानून में माता पिता और नियोक्ताओं के बीच किसी समझौते पर भी रोक लगा दी गई है। संविधान के अनुच्छेद 39 (एफ) और 45 में स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि बच्चों को शोषण से बचाया जाना चाहिए और 14 साल से छोटे बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा दी जानी चाहिए।
वर्ष 1991 में दिए गए एक फैसले में अदालत ने कानून और जमीनी सच्चाई में सामंजस्य स्थापित करने की कोशिश की। न्यायालय ने कुछ निर्देश जारी किए जिनमें कहा गया था कि छोटे बच्चों को किस तरीके के काम दिए जा सकते हैं। बच्चों को पैकिंग के काम में लगाया जा सकता है पर यह ध्यान रखना जरूरी है कि उत्पादन वाले स्थान से उन्हें दूर रखा जाए।
उन्हें ऐसी किसी जगह भी काम पर नहीं लगाया जाना चाहिए जहां दुर्घटना की आशंका बनती हो। साथ ही यह भी निर्देश जारी किया गया कि काम के लिए बच्चों को कितना न्यूनतम भुगतान किया जाए। अदालत ने सुझाव दिया कि कम से कम वयस्कों को किए जा रहे भुगतान का 60 फीसदी तो बच्चों को दिया ही जाना चाहिए। साथ ही राज्य सराकरों से यह भी कहा गया कि अगर मुमकिन हो सके तो वे इससे अधिक भुगतान भी सुनिश्चित करें।
सरकार को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि हर बच्चे के लिए 50,000 रुपये तक का बीमा कराया जाए, जिसके प्रीमियम भुगतान की जिम्मेवारी नियोक्ता की हो। शिक्षा, चिकित्सकीय सुविधा से जुड़े सुझाव भी दिए गए थे। इन सभी आदेशों और निर्देशों को याद करने का मकसद बस यही जताना है कि इन्हें अब भूला जा चुका है।
वहीं अपने सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ ऐसे आदेश भी दिए थे जिनकी मदद से देह व्यापार से जुड़ी स्त्रियों के बच्चों का कारोबार रोका जा सके। सामाजिक बहिष्कार झेल रहे इन बच्चों को अलग स्कूल और हॉस्टल सुविधा दिलाने के लिए एक समिति का गठन किया गया जो इन मुद्दों पर अध्ययन कर रिपोर्ट सौंपने वाली थी। जब इस समिति ने रिपोर्ट सौंपी तो जो दो न्यायाधीश इस याचिका पर सुनवाई कर रहे थे उनमें मतभेद उभर कर सामने आने लगे।
इस मामले को किस तरीके से सुलझाया जाए इस बारे में दोनों की अलग अलग राय थी। इसे देखते हुए इस सवाल को मुख्य न्यायाधीश को सौंप दिया गया। पर जैसा कि अधिकांश उन मामलों का हश्र होता है जिसे बड़ी बेंच को सौंपा जाता है, इसके साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। ऐसा लगता है मानो अदालतों का ध्यान अब जनहित याचिकाओं की ओर कुछ खास नहीं है।