भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) ने हाल ही में जब केंद्रीय बैंक से यह कहा कि वह रीपो दर से छेड़छाड़ न करे तो उसका यह कदम गलत था। रीपो दर वह दर है जो अर्थव्यवस्था में मुद्रा की कीमत निर्धारित करती है जिसे आम बोलचाल की भाषा में ब्याज दर कहा जाता है।
एमपीसी द्वारा ब्याज दरों में इजाफा नहीं किए जाने का सत्ताधारी दल के लिए क्या असर हो सकता है? भारतीय जनता पार्टी को इसकी वजह से कितनी सीट का नुकसान उठाना पड़ेगा?
अनुशंसा का अर्थ यह है कि अब बैंक केंद्रीय बैंक से पहले की तुलना में अधिक सस्ती दरों पर धनराशि प्राप्त कर सकेंगे। ऐसा वैरिएबल रिवर्स रीपो रेट (वीआरआरआर जो रिवर्स रीपो दर का ही एक प्रकार है) की तकनीक अपनाने के बावजूद है। इसका अर्थ एक ओर जहां यह हुआ कि बैंक सस्ती दरों पर ऋण दे पाएंगे तो वहीं इसका एक अर्थ यह भी होगा कि मुद्रास्फीति में इजाफे का जोखिम बढ़ेगा क्योंकि उत्पादन में वृद्धि की गति मांग की तुलना में धीमी हो सकती है। खासतौर पर यह बात खानेपीने की वस्तुओं पर लागू होती है।
अर्थशास्त्रियों ने यकीनन ‘अच्छी’ मुद्रास्फीति के लिए एक दर तय की है जो दो फीसदी और छह फीसदी के बीच है।
परंतु एक तथ्य यह भी है कि संपूर्ण अर्थव्यवस्था के लिए मुद्रास्फीति के आंकड़े समग्र रूप से बहुत मायने नहीं रखते। सांख्यिकीविद इसे भार औसत कहते हैं जहां ‘भार’ से तात्पर्य वस्तुओं की विभिन्न श्रेणियों के महत्त्व से होता है। कोई श्रेणी जितनी महत्त्वपूर्ण होती है, उसका भार भी उतना ही अधिक होता है।
भारत में खाद्य उत्पादों का समग्र भार 47 फीसदी है। मुझे पता नहीं है कि यह 45 या 50 या फिर 60 फीसदी क्यों नहीं है। ऐसी स्थिति में जब देश में लाखों की तादाद में गरीब लोग मौजूद हैं, इसे कम से कम इतना तो होना ही चाहिए।
बहरहाल, 47 का भार भी कम नहीं है लेकिन क्या यह पर्याप्त है? जिन लोगों की वार्षिक आय 12 लाख रुपये से अधिक है उन्हें इस बारे में कुछ भी पता नहीं होगा। परंतु दैनिक मजदूरी पाने वाले लोगों को इसका अहसास होगा और साथ ही उन लाखों परिवारों को भी जिनकी वार्षिक आय 12 लाख रुपये से कम है।
राजनीतिक प्रभाव
बीते सात आम चुनावों को याद करें तो कुल मुद्रास्फीति 10 फीसदी या उससे अधिक रही है और खाद्य वस्तुओं के लिए यह 20 फीसदी रही है। सात में से चार चुनावों में इसने बहुत महत्त्वपूर्ण प्रभाव डाला है। यदि सन 1999 के आम चुनावों को छोड़ दिया जाए, जिसमें भाजपा को करगिल युद्ध के बाद जीत मिली थी, तो अर्थ यही निकलता है कि मुद्रास्फीति छह में से चार चुनावों में एक अहम कारक रही।
राजनेता इस बात से अच्छी तरह अवगत हैं। सरकार भी इस बात को जानती है। उन्हें यह भी पता है कि यदि सरकारी दर एक्स है तो मुद्रास्फीति की वास्तविक प्रभावी दर 2 एक्स है। (मैंने एक नया जुमला ईजाद किया है वास्तविक प्रभावी मुद्रास्फीति दर, जिसे मैंने वास्तविक प्रभावी विनिमय दर के तर्ज पर गढ़ा है।)
सन 1989 के बाद राजनीतिक जोखिम के बावजूद सरकारों ने इस आशा में जोखिम उठाना उचित समझा कि उच्च आर्थिक वृद्धि की बदौलत उच्च मुद्रास्फीति की लागत से निपटा जा सकेगा। आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि सन 2009 में यह दांव सफल भी साबित हुआ। 2007 की दूसरी छमाही और पूरे वर्ष 2008 के दौरान मुद्रास्फीति के 10 फीसदी से अधिक होने के बावजूद लोकसभा में कांग्रेस की कुल सीट 145 से बढ़कर 208 पर पहुंच गईं। पार्टी का मत प्रतिशत भी बढ़ा। इसका कारण यह रहा कि उत्पादन और रोजगार भी लगभग समान गति से बढ़ रहे थे।
कांग्रेस पार्टी ने 2014 में भी यही तरीका अपनाने की कोशिश की और 44 को छोड़कर शेष सभी सीट पर पार्टी को हार का सामना करना पड़ा। इसकी वजह यह रही कि 2010 से 2013 के बीच खाद्य महंगाई बढ़कर 65 फीसदी तक हो गई थी।
इसके विपरीत 2014 से 2019 के बीच भारतीय जनता पार्टी ने आय में गिरावट के बावजूद खाद्य मुद्रास्फीति को पांच फीसदी से कम रखा। 2019 में पार्टी को 303 सीट पर जीत मिली जो 2014 की 275 सीट पर मिली जीत से भी कहीं अधिक थी।
ज्यादा प्रमाणों पर नजर डालें तो सन 1995 में कुल मुद्रास्फीति की दर 10 फीसदी से अधिक थी। परिभाषा के मुताबिक खाद्य मुद्रास्फीति और अधिक थी। उस वर्ष भी कांग्रेस चुनाव हार गई थी। सन 1989 में भी ऐसा ही हुआ था। कांग्रेस को 217 सीट पर हार का सामना करना पड़ा था जबकि 1984 के चुनाव में पार्टी को 414 सीट पर जबरदस्त जीत मिली थी।
ऐसे में सन 1986-87 में राजीव गांधी, 1994-96 में नरसिंह राव और 2011-13 में मनमोहन सिंह, इन सभी ने उच्च मुद्रास्फीति के बावजूद वृद्धि पर दांव लगाया और इन सभी को आम चुनाव में हार का सामना करना पड़ा।
अब सवाल यह उठता है कि नरेंद्र मोदी क्या अनुभव करेंगे? उन्हें मनमोहन सिंह को 2009 में मिली जीत के अनुभव का जायका मिलेगा या 2014 की हार का।