मोबाइल फोन पर चल रहे वीडियो की न तो पिक्चर क्वालिटी बहुत अच्छी है और न ही उसकी आवाज साफ सुनाई पड़ रही है।
वीडियो में लकड़ी की एक नाव हल्के भूरे रंग के समंदर में संघर्ष करती नजर आ रही है। समंदर की लहर इतनी तेज है जो किसी जहाज को भी डगमगा सकती है। कुछ सेकंड बाद सब कुछ सहज हो जाता है।
फिल्म की रोशनी थोड़ा और मद्धम हो जाती है और फिल्म खत्म हो जाती है। वह व्यक्ति अपना फोन वापस अपनी जेब में रख लेता है। यह वाकया किसी अंग्रेजी फिल्म की कहानी का है लेकिन हम जो आपको बयां करने जा रहे हैं वह इससे एकदम उलट है।
कच्छ की खाड़ी के किनारे सलाया नाम का एक बंदरगाह शहर है। दोपहर का वक्त है, सूरज अपने पूरे शबाब पर है। लेकिन ऐसी गर्मी में भी लोग पूरी तरह से अपने काम में रमे हुए हैं। ये लोग इतना दम लगाकर काम कर रहे हैं कि इनके मुंह से निकल रही आवाज हवा में गूंज रही है। कुछ इसी तरह का माहौल यहां से 60 किलोमीटर दूर उत्तर में मौजूद मांडवी शहर में भी है।
मांडवी भी खाड़ी के किनारे ही बसा हुआ है। यहां पर भी वही काम होता है और काम की रफ्तार कभी मंद नहीं पड़ती है, यह बदस्तूर चलता रहता है। दरअसल, यह इलाका देसी परंपरागत जहाजरानी (शिपिंग) उद्योग का केंद्र है। यहां पर बनी लकड़ी की नावों के खरीदार बहुत दूर तक फैले हुए हैं।
आपको बता दें कि यहां निर्मित लकड़ी की नाव संयुक्त अरब अमीरात, यमन, ओमान, इरिट्रिया, मोजांबिक, तंजानिया, जंजीबार और केन्या जैसे देशों को बेची जाती हैं। वैसे जामनगर, मुंद्रा और कांडला देश में जहाज बनाने के बड़े केंद्र के रूप में स्थापित हो चुके हैं तथा मांडवी और सलाया जैसे केंद्र फिलहाल बड़े खिलाड़ियों के रेडार पर नहीं हैं। लेकिन फिर भी इनको नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
सलाया बोट एसोसिएशन के सचिव एडम एच. भाया डॉकसाइड घुमाने का प्रस्ताव हमारे सामने रखते हैं। वह खुद नाविक (सेलर) हैं और दावा करते हैं कि पिछले दो दशकों से इस उद्योग को संवारने में उनका योगदान रहा है।
वह यह भी बताते हैं कि उनके पिता और दादा भी नाविक ही थे। लेकिन वह यह भी बताते हैं कि वक्त के साथ इस पेशे में भी बदलाव आया है। यह कारोबार सदियों तक कई बंदिशों से आजाद रहा है लेकिन देश की आजादी के बाद इसको लेकर कुछ कानून बना दिए गए।
बन गए हैं कानून
इनके चलते पंरपरागत नाव जिसको अरबी में ‘धोबी’ और गुजराती में ‘वाहनवती’ कहते हैं, उसको आज की तारीख में यंत्रीकृत नौका के तौर पर पंजीकृत कराना पड़ता है। एक जहाज की सामान ले जाने की क्षमता भी उसके आकार पर निर्भर करती है। इसकी रेंज 50 टन से 1,700 टन तक होती है।
वैसे 600 डॉक्स होम पर मौजूद 600 जहाजों के किसी एक खास हिस्से पर अधिक ध्यान दे पाना संभव नहीं हो पाएगा। इनमें कई अलग-अलग खूबियां, विशेषताएं हैं। मसलन इनमें खास तौर से मलेशिया मे आई लकड़ी लगाई गई है। उसमान जुसुप जसार्या सलाया में बन रहे सबसे बड़े जहाज के काम का मुआयना करने में जुटे हैं।
1,400 टन क्षमता वाले इस जहाज का नाम एमएसवी अल यासीन टू है। जसुप अपने बड़े बेट अब्दुल रााक जसार्या के साथ जहाज के मुआयने में लगे हैं। अब्दुल रज्जाक पुराने एमएसवी अल यासीन को चलाते हैं। वह जहाज की डेक पर दौड़ रहे अपने पोते की ओर इशारा करते हैं। वह हंसते हुए कहते हैं, ‘वह भी नाव चला सकता है।’
इन क्षेत्रों में इन लोगों के लिए पढ़ाई लिखाई के बहुत ज्यादा मायने नहीं हैं। बच्चों को तकरीबन 6 साल की उम्र से इस काम के बारे में सिखाना शुरू कर दिया जाता है। अप्रेंटिस करने वाले बच्चे और उनसे बड़ी उम्र के किशोर और युवा डेक पर चाय बनाने और खाना बनाने के काम में भी लग जाते हैं तो कुछ को मशीनों की दुकान पर वक्त देना होता है और कुछ को बढ़ईगिरी का काम सीखना होता है।
150 टन क्षमता वाले एमएसवी अल-सरफराज के मसूद भाया अपने चार्ट के बारे में बताते हैं। अगर मौसम अच्छा रहता है तो कराची जाने में एक रात का वक्त लगता है। दुबई और मस्कट जाने में एक हफ्ते से कम का समय खर्च होता है तो यमन और सोमालिया पहुंचने में 15 दिन तक लग जाते हैं।
आपको यह जानकर बेहद हैरानी होगी कि सोमालिया, भारत के साथ बड़े पैमाने पर कारोबार करता है। शायद, यह सुनकर आपको झटका भी लगा हो, लेकिन विश्व बैंक की मानें तो सोमालिया का सबसे बड़ा कारोबारी साझेदार हमारा मुल्क है। भारत उसे चावल, दाल, गेहूं, चीनी और आटा तो मुहैया कराता ही है।
ऊपर से, हमारे कारोबारी सोमालिया से एकमात्र निर्यात होने वाली बकरियों को अरब मुल्कों तक भी ले जाते हैं। यह सारा कारोबार कच्छ के उन्हीं बहादुर नाविकों की बदौलत ही मुमकिन हो पाता है, जो बड़ी-बड़ी मुश्किलों का सामना करके कानून-व्यवस्था से अछूते उस देश तक सामान ले जाते हैं। वैसे, इस काम में मुंबई, मंगलूर और कालीकट के कुछेक नाविक भी उनके साथ-साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करते हैं।
मांडवी-कच्छ वाहनवती एसोसिएशन के प्रेसीडेंट, कासम अली मोहम्मद मौलिक का कहना है, ‘पहले हम दुबई के साथ बड़े पैमाने पर कारोबार करते थे। लेकिन यह कारोबार शिप की कमी की वजह से मंदा पड़ गया। अगर आप अपने पोत के साथ 1,000 टन से ज्यादा का सामान ले जाएंगे तो यह आपके लिए थोड़ा ही मुनाफा दे पाएगा।
यमन, सोमालिया, इरिट्रिया और केन्या तक के लिए कंटेनर को ले जाने के लिए कोई शुल्क नहीं है।’ सोमालिया के एक टन के सामान वाले कंटेनर के लिए 1,300 रुपये माल भाड़ा चुकाना पड़ता है। हालांकि यह माल भाड़ा सोमालिया के ट्रिप के लिए ही है।
सोमालिया से इतर कहीं और जाने के लिए इससे थोड़ी ज्यादा रकम तो चुकानी ही पड़ेगी। इस ट्रिप के जरिए 20 से 40 प्रतिशत के बीच मुनाफे का अनुमान लगाया जाता है। आमतौर पर जहाज सितंबर से मई महीने तक दुनियाभर में अपना सफर तय करते रहते हैं। उनकी कोशिश कम से कम पांच ट्रिप करने की होती है। यहां आपको एक अजीब तरह की तारमम्यता दिखती है।
मसलन जिंस से जुड़े कारोबार हिंदू धर्म के लोग करते हैं और नौका या जहाज से मुस्लिम संप्रदाय का ही ज्यादा जुड़ाव दिखता है। ऐसे ही कारोबार से जुड़े मसूद भाया बड़े गंभीर अंदाज में कहते हैं, ‘अगर सोमालिया में हमारे जहाज नहीं जाएंगे तो कोई कारोबार नहीं होगा।’
एक ऐसे देश में जाने से डर नहीं लगता जहां जगह जगह मशीन गन से लैस सेना के लोग नजर आते हैं और ग्रेनेड लॉन्चर लगे हुए हैं, इस पर अब्दुल रज्जाक का कहना था, ‘हमें समुद्री डाकू भी परेशान नहीं करते क्योंकि वे हमारी अहमियत को समझते हैं।’ हालांकि उन्होंने कुछ ऐसे ही लूट के हादसे को स्वीकारा भी जिनसे उनको मुकाबला करना पड़ा था।
सोमालिया तक की समुद्र यात्रा करने के लिए यह जरूरी हो जाता है कि आपके पास ईंधन की भरपूर मात्रा हो। वहां बड़ी मुश्किल से फ्यूल स्टोर मिलते हैं और अगर आपको ऐसे स्टोर मिल भी जाएं तो आपको ईंधन के लिए मुंहमांगी कीमत की चुकानी पड़ सकती है। यहां समुद्री डाकुओं और आतंकियों के हमले से बचाव के मद्देनजर कई देशों के युद्धपोत निगरानी के लिए गश्त करते रहते हैं।
इस सफर पर गए नाविकों का कहना है कि हजारों मील की दूरी तक फैले समुद्र में मछलियां पकड़ने के लिए बहुत बेहतर मौका होता है। जहाज पर आपको नियमित रूप से टूना मछली के स्वाद को ही चखना होगा। अगर शार्क हो तो फिर क्या कहने, तब तो सफर का मजा दोगुना हो जाएगा।
अगर आप किस्मत वाले हैं तभी आपको सफर के दौरान इंडो-पैसिफिक मार्लिन मछली के स्वाद का लुत्फ उठाने का मौका मिलेगा। वैसे तो बहुत पहले से ही इन जहाजों से नौका यात्रा करना जोखिम भरा माना जाता था।
नाविकों के 2 एसोसिएशन का कहना है कि औसतन 5 से 6 जहाज हर साल डूब जाते हैं। लेकिन जहाज के साथ जाने वाले नाविकों की रक्षा में थोड़ा सुधार हुआ है इसकी वजह है ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम (जीपीएस) का ईजाद। आज जीपीएस को जहाजों के लिए बेहद जरूरी माना जाता है। इसके साथ ही सुरक्षा के लिहाज से रेडियो सेट, लाइफ जैकेट और आग बुझाने वाले उपकरणों को भी जहाज पर रखा जाता है।
क्या हैं चुनौतियां
इस वक्त सबसे गंभीर मुद्दा जो सामने आता है वह है ईंधन की बढ़ती कीमतों का। ईंधन की बढ़ती कीमतों की वजह से छोटे जहाजों को कोई मुनाफा नहीं हो रहा है। नाविकों से जुड़े संगठन अपनी मुश्किलों को बयां करते हुए कहते हैं कि जहाज में जितनी क्षमता होती है उससे भी बेहद कम सामान मिल पाता है। इसके अलावा बिचौलिए भी मुनाफे का हिस्सा मार लेते हैं।
सबसे ज्यादा चिंता की बात तो यह है कि लोग अब इस कारोबार को छोड़कर दूसरे कारोबार में जा रहे हैं। एक जहाज के मालिक अब्दुल करीम कटारिया का कहना है, ‘जहाज के मालिक, एक नाविक के लिए जहाज के खर्चो के अलावा कम से कम हरएक महीने 4,000 रुपये देने की गारंटी तो देते ही हैं। बहुत अनुभवी नाविक तो 25,000 रुपये तक कमा लेते हैं। लेकिन अब यहां पैसे कमाने के दूसरे तरह के मौके भी मौजूद हैं, मसलन निर्माण से जुड़े कामों के लिए।’
इत्तेफाक से करीम इस काम से जुड़े अपने परिवार के अंतिम सदस्य रह गए है। उनका कहना है कि उन्होंने अपने इकलौते बेटे को पढ़ाना ही बेहतर समझा। उनका बेटा एमबीए करने के बाद दिल्ली में काम कर रहा है। उनका कहना है, ‘उम्मीद है मेरा बेटा एक दिन वापस आएगा और इस काम से जुड़े कारोबारी पहलू को सुधारने का काम करेगा।’
मैं मांडवी के 76 साल के बुजुर्ग शिवजी भूडा फोफिंडी से मिलने गया। वह दो वजहों से बेहद खास हैं। पहली तो ये कि वे एक हिंदू नाविक हैं और वह उस पीढ़ी के अंतिम नाविक हैं जो पूरी तरह से पवन ऊर्जा से चलने वाले जहाज चलाते थे। शिवजी की शहर में बहुत प्रतिष्ठा है।
उनका कहना है कि नाविक का काम बेहद महत्त्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि वहीं निर्धारित करता है कि समुद्र की लहरों के खिलाफ भी अपने जहाज को कैसे सुरक्षित मंजिल तक पहुंचाना है। वह अपने दिनों की याद करते हुए कहते हैं कि उनके समय में चुनौतियां और भी ज्यादा होती थीं।
वह हंसते हुए कहते हैं, ‘कंपास का इस्तेमाल करना तो बहुत आसान है। लेकिन आज तो नाविकों की दिक्कतें और भी ज्यादा तब बढ़ जाती हैं जब उनकी जीपीएस बैटरी खत्म हो जाती है और उन्हें भटकने के लिए मजबूर होना पड़ता है।’इन सारी बातों के बाद एक आश्वासन जरूर मिलता है कि यह उद्योग भविष्य बेहतर राह पर जा रहा है।