वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने गत सप्ताह कहा कि भारत को भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) के आकार के चार या पांच बैंकों की आवश्यकता है तभी महामारी के बाद की बढ़ती और बदलती चुनौतियों से निपटा जा सकेगा। उन्होंने यह भी कहा कि महामारी के पहले हुए सरकारी बैंको के एकीकरण की एक प्रमुख वजह थी बड़े आकार पर कारोबार सक्षम बनाना। यह स्पष्ट नहीं है कि क्या सरकार कुछ और सरकारी बैंकों का विलय करने के बारे में विचार कर रही है। उदाहरण के लिए पिछले दौर के विलय में ओरियंटल बैंक ऑफ इंडिया का पंजाब नैशनल बैंक के साथ विलय किया गया था जबकि यूनियन बैंक ऑफ इंडिया में कॉर्पोरेशन बैंक और आन्ध्रा बैंक का विलय किया गया था। इसके अलावा इलाहाबाद बैंक का विलय इंडियन बैंक में किया गया था। परंतु इन विलयों से अनुपात में कोई बदलाव नहीं आया। फिलहाल तो एसबीआई का बहीखाता उसके बाद के तीन बड़े बैंकों के समग्र बहीखाते से भी बड़ा है।
शायद सरकार की इच्छा बहुत बड़े सरकारी बैंक कायम करने की है लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि तेजी से बदलते तकनीकी और वित्तीय परिदृश्य में इससे अर्थव्यवस्था को क्या फायदा होगा। अर्थव्यवस्था के विकास के साथ बैंकों का आकार भी बढ़ेगा और कुछ बैंक अन्य बैंकों की तुलना में तेजी से विकसित होंगे लेकिन यह संभव नहीं लगता कि अगले कुछ वर्षों में भारत में एसबीआई के आकार के चार या पांच बैंक हों। हालांकि इससे ऋण प्रवाह पर असर पडऩे की आशंका नहीं। कारोबारी घरानों को भारी भरकम ऋण के संदर्भ में बेहतर यही होगा कि संघ के रुख का अनुसरण करना बेहतर होगा, जो न केवल बेहतर सतर्कता की क्षमता देता है बल्कि सघनता के जोखिम को भी कम करता है। शायद सरकार का विचार यह होगा कि बड़े बैंक देश के बुनियादी क्षेत्र की जरूरतों को आसानी से पूरा कर सकेंगे। परंतु तथ्य यह है कि बैंक अक्सर बुनियादी क्षेत्र की परियोजनाओं को उनके कारोबार की बुनियादी प्रकृति की वजह से ऋण देने के अनिच्छुक होते हैं। बुनियादी परियोजनाओं को पूरा होने में आमतौर पर बहुत अधिक वक्त लगता है जिससे बैंकों के लिए परिसंपत्ति-देनदारी की विसंगति उत्पन्न हो जाएगी, भले ही उनका आकार कुछ भी हो। इसके अलावा सरकार एक विकास वित्त संस्थान की स्थापना कर रही है ताकि बुनियादी क्षेत्र की सहायता की जा सके। इसके अलावा दीर्घावधि के कर्ज को आदर्श रूप से तो बॉन्ड बाजार से जुटाया जाना चाहिए और उसका बीमा तथा पेंशन फंड से भी वित्त पोषण किया जा सकता है।
व्यापक स्तर पर देखें तो बड़े बैंक व्यवस्थित जोखिम पैदा कर सकते हैं और कुछ इतने बड़े हो जाएंगे कि उनकी विफलता बहुत भारी पड़ेगी। यदि बैंक बहुत बड़े न हों तो बैंकिंग नियामक और सरकार के लिए हस्तक्षेप करना आसान होता है। चूंकि वित्तीय तकनीक के क्षेत्र में बदलाव तेजी से हो रहे हैं इसलिए बड़े बैंकों को शायद अनुकूलन में दिक्कत हो। इस स्थिति में विलय के जरिये आकार बढ़ाने के बजाय ध्यान क्षमता सुधार पर होना चाहिए। इस संदर्भ में ध्यान देने वाली बात यह है कि वित्त मंत्री ने आम बजट में दो सरकारी बैंकों के निजीकरण की बात की थी। इस दिशा में ज्यादा कुछ नहीं हुआ है। खबर है कि सरकार ने रिजर्व बैंक के साथ मशविरा शुरू कर दिया है। सरकार यदि प्रक्रिया को तेज करे तो बेहतर होगा। ऐसे में सरकारी बैंकों के विलय के एक और दौर से बचना चाहिए। सरकारी बैंकों के कामकाज की शैली में लगभग कोई सुधार नहीं हुआ है। ऐसे में बड़े बैंक सरकार के लिए बड़ी समस्याएं खड़ी करेंगे। बैंकिंग क्षेत्र का आकार आर्थिक वृद्धि के साथ बढ़ेगा ही और राज्य का लक्ष्य प्रभावी नियमन के साथ समुचित वातावरण मुहैया कराने का होना चाहिए।
