अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में जो बाइडन को राष्ट्रपति पद के लिए आवश्यक वोट मिल गए हैं और वह चुनाव जीत चुके हैं। व्हाइट हाउस में यह बदलाव अमेरिका की गहरे टकराव से जूझ रही राजनीति को इससे निजात पाने में कितना मददगार होगा? क्या डेमोक्रेटिक प्रशासन के आगमन के साथ ही टं्रप की छाप धुंधली पडऩे लगेगी? क्या वह समाज की उन खामियों का फायदा उठा रहे थे जो आर्थिक अवसरों में कमी और बढ़ती असमानता के बाद उभर रही थीं? यदि अमेरिकी सीनेट में रिपब्लिकन पार्टी का दबदबा रहता है और सर्वोच्च न्यायालय में अति रूढि़वादी न्यायाधीश रहते हैं तो नए राष्ट्रपति के पास करने को क्या कुछ होगा? सत्ता परिवर्तन के बाद अमेरिका की विदेश नीति, खासकर चीन को लेकर उसकी नीति में क्या बदलाव आएंगे? भारत के लिए यह बात अहम है क्योंकि उसके लिए भूराजनीतिक गुंजाइश सीमित हो रही है। व्हाइट हाउस में बदलाव अमेरिका को महामारी पर नियंत्रण में किस प्रकार मदद करेगा क्योंकि उसके बिना आर्थिक स्थिति में सुधार आसान नहीं होगा। शासन में रुचि के मामले में ट्रंप बिल्कुल विफल दिखे और राजनीतिक रूप से भी पथभ्रष्ट नजर आए।
व्यक्तिगत और राजनीतिक संरक्षण के उपाय के रूप में संस्थान हमेशा महत्त्वपूर्ण रहे हैं। ट्रंप के कार्यकाल में वरिष्ठ स्तरों पर कुछ बड़े बदलाव देखने को मिले। नियुक्तियों और नीति निर्माण में मतिभ्रंश और मनमानापन ट्रंप के कार्यकाल की पहचान बन गया। यह कल्पना करना कठिन है कि उनकी अनुपस्थिति में वे तौर तरीके जारी रहेंगे। इसकी जगह सामान्य शासन प्रक्रियाओं की वापसी सुखद होगी और कामकाज पटरी पर लौटेगा। अगर कुछ नहीं बदलेगा तो वह है डेढ़ सदी पुराने राजनीतिक परिदृश्य का प्रतिबिंब जहां गहन नस्लीय, वैचारिक और आर्थिक खाई ने अमेरिका को गृहयुद्ध में धकेल दिया था। यह विभाजन सतह के नीचे था और तनाव के दिनों में हिंसा और क्रुद्ध झड़पों में सामने आता रहा। यह तनाव काफी समय से उबल रहा था। आर्थिक हालात, जनांकीय बदलाव और घटते वैश्विक कद ने इसमें इजाफा किया। ट्रंप ने राजनीतिक लाभ के लिए इन परिस्थितियों को और भड़काया। हालात को नियंत्रण में करने में अब दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति और समय लगेगा।
जो बाइडन ने 6 नवंबर को जो भाषण दिया उसमें सद्भाव और राष्ट्रीय एकता की बातें थीं। वह पहले ही राजनीतिक बहस में सभ्यता और विनम्रता पेश कर चुके हैं जिनके बिना सामाजिक स्तर पर हुई क्षति को दूर करना संभव नहीं है। परंतु वास्तविक मेल मिलाप को बढ़ावा देने के लिए आर्थिक और सामाजिक सुधार का एक महत्त्वाकांक्षी एजेंडा आवश्यक है। इसके अलावा कानून प्रवर्तन और न्यायिक प्राधिकार के रुख में बदलाव और एक जीवंत-बहुलतावादी समाज के रूप में अमेरिका के भविष्य को लेकर व्यापक सहमति आवश्यक है।
सीनेट में रिपब्लिकन पार्टी का नियंत्रण बरकरार रह सकता है। ऐसे में विधायी तरीके से बदलाव की कोशिशों में यकीनन गतिरोध उत्पन्न हो सकता है। अन्य देशों की तरह अमेरिका की विडंबनाओं में से एक यह भी है कि कैसे आर्थिक रूप से तंग समुदाय (यहां मध्य और निम्र मध्यवर्गीय श्वेत) उस राजनीति को लेकर आश्वस्त रह सकते हैं जो उनकी हालत और खराब करती है लेकिन उनमें भी जो वरीयता वाले होते हैं उन्हें अपनी संपत्ति बचाए रखने और ज्यादा संपत्ति जुटाने का भी पूरा अवसर मिलता है। क्या आर्थिक अवसरों में इजाफा उस नस्लीय और जातीय विभाजन को खत्म करने में सहायक होगा जो अमेरिका में घर कर गया है?
नए राष्ट्रपति हालात में बदलाव करने में सक्षम हो सकते हैं। वह देश के कमजोर बुनियादी ढांचे को बदल सकते हैं। इस काम में उस मौजूदा फंड का इस्तेमाल कर सकते हैं जो ऐतिहासिक रूप से निचले स्तर पर है। या फिर वे देश की शिक्षा, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में निवेश कर सकते हैं। रिपब्लिकन पार्टी इस नीतिगत प्रस्थान पर मौन सहमति दे सकती है।
विदेश नीति के मोर्चे पर हमें शैली और विषयवस्तु के स्तर पर अहम बदलाव देखने को मिल सकता है। अधिक चुनौतीपूर्ण घरेलू नीति के बीच बाह्य मोर्चे पर सक्रियता अपरिहार्य होगी। वहां राष्ट्रपति के समक्ष कांग्रेस ये न्यायालय रूपी कोई बाधा नहीं होगी। बाइडन के पास विशाल कूटनीतिक अनुभव है और अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में वे ठोस पेशकदमी कर सकते हैं।
आशा की जा सकती है कि वह पेरिस जलवायु समझौते में वापस लौटें और अमेरिका इस वैश्विक संकट में अहम नेतृत्वकारी भूमिका निभाए। अमेरिका विश्व स्वास्थ्य संगठन से बाहर निकलने का फैसला भी बदल सकता है हालांकि उसे अमेरिकी फंडिंग दोबारा शुरू करना मुश्किल होगा। अमेरिका ईरान नाभिकीय समझौते में सक्रिय भागीदारी कर सकता है। यह भारत के लिए ऊर्जा सुरक्षा और चाबहार बंदरगाह तथा उत्तर-दक्षिण परिवहन कॉरिडोर जैसी बुनियादी परियोजनाओं के रूप में दोहरी अच्छी खबर होगी।
खाड़ी के देश निराश होंगे और इजरायल चौकन्ना होगा। बाइडन यूरोपीय संघ और नाटो के सहयोगियों के अलावा जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ रिश्ते बहाल करने के लिए कड़ी मेहनत करेंगे। चीन से विवाद जारी रह सकता है, हालांकि इसकी उतनी अहमियत नहीं रहेगी। आगे चलकर चीन के साथ उच्चस्तरीय वार्ता भी दोबारा शुरू हो सकती है ताकि बेहतर संतुलन कायम हो सके और जलवायु परिवर्तन के अहम मसले पर आगे चलकर साझा समझ बन सके। हालांकि व्यापारिक मोर्चे पर अधिक बदलाव की आशा नहीं है। विश्व व्यापार संगठन में सुधार का एजेंडा जरूर दोबारा सक्रिय हो सकता है।
भारत के लिए बाइडन प्रशासन स्थिर सहयोगी की भूमिका में रहेगा। दोनों के सामरिक हित जुड़े हुए हैं। चीन के साथ हालात को देखते हुए, जलवायु परिवर्तन, साइबर सुरक्षा और अंतरिक्ष सुरक्षा और अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद को देखते हुए भारत, अमेरिका के लिए महत्त्वपूर्ण बना रहेगा।
कांग्रेस में भारत को दोनों दलों का समर्थन मिलता रहेगा लेकिन मानवाधिकार, कश्मीर और प्रेस स्वतंत्रता की खराब होती हालत पर अब भारत को कड़ी निगरानी से गुजरना होगा। कुलमिलाकर भारत और अमेरिका की मजबूत साझेदारी के लिए अधिक स्थायित्व भरा आधार तैयार होगा। अमेरिका के नए राष्ट्रपति तक शीघ्र पहुंच और बदलाव के दौरान काम कर रही टीम के साथ करीबी जुड़ाव पर काम करना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि भारत के लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण द्विपक्षीय रिश्ते को लेकर हमें नए सिरे से चौंकना न पड़े।
(लेखक पूर्व विदेश सचिव एवं सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के वरिष्ठ फेलो हैं)
