अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन और चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग के बीच आभासी बैठक की खबरें बाहर आ रही हैं और यह स्पष्ट है कि उनका विचार-विमर्श अनुमान से अधिक मजबूत रहा। दोनों नेताओं के रस्मी बयानों से इतर अमेरिका-चीन रिश्तों को लेकर अधिक सकारात्मक कदम उठाए गए हैं।
दोनों पक्ष अब अहम द्विपक्षीय तथा वैश्विक मसलों पर उच्चस्तरीय तथा द्विपक्षीय संबद्धता का प्रदर्शन कर रहे हैं। सबसे अहम है नेताओं के बीच यह सहमति कि उन्हें अपनी-अपनी नाभिकीय स्थिति पर ढांचागत वार्ता में शामिल होना चाहिए। इसकी घोषणा अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जैक सुलिवन ने की। उन्होंने कहा कि दोनों नेता इस बात पर सहमत हैं कि परमाणु स्थिरता पर बातचीत करने की जरूरत है। यह बात इसलिए अहम है क्योंकि चीन अब तक परमाणु हथियारों को लेकर चर्चा से इनकार करता रहा है। उसकी दलील रही है कि उसके परमाणु हथियारों तथा अमेरिका और रूस के परमाणु हथियारों में काफी अंतर है।
यह बदलाव दर्शाता है कि हाल के वर्षो में चीन ने परमाणु हथियार भंडार बढ़ाने की दिशा में तेजी से कदम उठाए हैं। अनुमान है कि उसके पास 2030 तक ऐसे 1,000 हथियार होंगे। उसने लंबी दूरी की मिसाइलों की तादाद बढ़ाई है जिनमें हर प्रकार के हथियार ले जाने की क्षमता है। महज कुछ सप्ताह पहले उसने हाइपरसोनिक हथियार का सफल परीक्षण किया जो अमेरिका के ऐंटी-बैलिस्टिक मिसाइल सिस्टम को भेद सकता है। चीन का मानना है कि उसने इतने परमाणु हथियार जुटा लिए हैं कि वह अमेरिका से बराबरी पर बात कर सके। भारत को इस घटनाक्रम को गंभीरता से लेना होगा। हमारे सीमित परमाणु प्रतिरोध की विश्वसनीयता के लिए इसका अलग महत्त्व है।
ध्यान देने वाली दूसरी बात यह है कि ताइवान के संवेदनशील मसले पर अमेरिका अपनी पुरानी स्थिति पर लौट गया जहां वह कहता रहा है कि केवल एक चीन है और वह स्वतंत्र ताइवान का समर्थन नहीं करता। सकारात्मक बदलाव का तीसरा महत्त्वपूर्ण संकेत जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चुनौतियों से संबंधित है। अमेरिका के जलवायु परिवर्तन पर विशेष दूत जॉन केरी तथा वरिष्ठ चीनी प्रमुख जलवायु वार्ताकार शी चेेनहुआ ने 10 नवंबर को ग्लासगो वार्ता के समापन की संध्या पर दोनों देशों के बीच एक संयुक्तघोषणापत्र का उल्लेेख किया था। इसमें जलवायु परिवर्तन पर सहयोग को लेकर एक महत्त्वाकांक्षी द्विपक्षीय कार्यक्रम तथा मीथेन उत्सर्जन में कमी की योजना शामिल है। घोषणापत्र में चीन ने कहा है कि वह कोयला आधारित ताप बिजली का उत्पादन समाप्त करने का इरादा रखता है जबकि अमेरिका ने कहा है कि उसकी योजना 2035 तक बिजली क्षेत्र को कार्बन रहित करने की है। वन क्षेत्र का विस्तार करने को लेकर भी सहयोग की बात हुई। ध्यान देने वाली बात यह है कि इनमें से कई पहल ग्लासगो संधि में भी शामिल हैं। कोयला आधारित बिजली उत्पादन कम करना भी उसमें शामिल है। स्पष्ट है कि केरी और शी चेनहुआ दोनों जलवायु परिवर्तन वार्ता के पहले से ही बहुत गहनता से इस दिशा में प्रयत्नशील हैं। शी चेनहुआ ने ग्लासगो में घोषणापत्र जारी होने के बाद संवाददाताओं को संबोधित किया और अमेरिका-चीन सहयोग के बारे में निम्रलिखित बातें कहीं:
‘एक सफल सीओपी26 सुनिश्चित करने और सभी पक्षों के बीच जलवायु सहयोग बढ़ाने के लिए मैंने अपने अमेरिकी समकक्ष जॉन केरी के साथ कई दौर की चर्चा और वार्ता की। इस वर्ष हम 24 ऑनलाइन तथा तीन आमने-सामने की बैठक कर चुके हैं।’ उन्होंने यह भी कहा कि चीन के प्रांतीय गवर्नरों तथा अमेरिकी राज्यों के गवर्नरों के बीच भी बैठक हुई हैं।
शी चेनहुआ की बातें इसलिए ध्यान देने लायक हैं क्योंकि इससे चीन का रुख उसके ही उस रुख से एकदम अलग नजर आता है जो उसने कुछ महीने पहले उस समय दिखाया था जब अमेरिका ने कहा था कि जलवायु परिवर्तन पर सहयोग को द्विपक्षीय रिश्तों के अन्य पहलुओं से नहीं जोड़ा जा सकता जो कि अपने आप में प्रतिस्पर्धी हैं। चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने यह कहते हुए इस बात को नकार दिया था कि अमेरिका चीन से यह आशा नहीं कर सकता कि चीन जलवायु परिवर्तन तथा अन्य मसलों पर सहयोग करे जबकि शेष विषयों पर अमेरिका उसके साथ शत्रुतापूर्ण आचरण करे। यानी या तो चीन को लग रहा है कि अमेरिका के साथ उसके समग्र रिश्ते सकारात्मक हो रहे हैं या फिर वह अपने पुराने कड़े रुख से पीछे हट रहा है। दोनों बातों से एक ही निष्कर्ष निकलता है: वह यह कि दोनों देशों ने बेहतर संबद्धता तथा विस्तारित सहयोग की दिशा में रिश्ते बढ़ाने का निर्णय लिया है।
खबरों के मुताबिक बाइडन ने व्यापार तथा चीनी कंपनियों को बाजार विस्तार में अनुचित समर्थन देने के मसले को उठाया। शी चिनफिंग ने राष्ट्रीय सुरक्षा के आधार पर चीनी कंपनियों के साथ भेदभाव किए जाने की शिकायत की। हकीकत यह है कि अमेरिका और चीन का व्यापार 2020 में 615 अरब डॉलर के जबरदस्त स्तर पर रहा। अमेरिकी कंपनियां चीन में निवेश करती हैं और अमेरिकी वित्तीय कंपनियां भी चीन के वित्तीय बाजारों के खुलेपन का लाभ गंवाना नहीं चाहतीं। खासतौर पर 16 लाख करोड़ डॉलर के बॉन्ड बाजार को। अमेरिका में भी एक प्रभावशाली चीन समर्थक लॉबी है। अमेरिकन चैंबर ऑफ कॉमर्स, शांघाई के मुताबिक चीन में स्थित 72 फीसदी अमेरिकी कंपनियों की अगले तीन वर्ष में अपना उत्पादन बाहर ले जाने की कोई योजना नहीं है। करीब 60 फीसदी चीन में अपना निवेश बढ़ाना चाहती है। ज्यादातर का मानना है कि अमेरिका-चीन के रिश्ते इतने खराब नहीं होंगे कि उन्हें अपनी कारोबारी योजना बदलनी पड़े।
चीन के मीडिया ने पहले ही शिखर बैठक में शी चिनफिंग की बातों को रेखांकित किया है जिनमें उन्होंने अमेरिका की वृहद नीति के वैश्विक आर्थिक सुधार पर पडऩे वाले असर को लेकर चिंता जताई थी। उन्होंने कहा कि चीन और अमेरिका के लिए यह जरूरी है कि दोनों देश वृहद-आर्थिक नीति को लेकर संवाद करें ताकि वैश्विक सुधार की मदद की जा सके। अमेरिका को घरेलू वृहद नीतियों के प्रसार वाले प्रभाव पर ध्यान देना चाहिए और जवाबदेह वृहद आर्थिक नीति अपनानी चाहिए। इससे यह भी समझा जा सकता है कि अमेरिकी वित्त मंत्री जैनेट येलेन और चीन के उपप्रधानमंत्री और शी चिनफिंग के मुख्य आर्थिक सलाहकार लिउ ही बैठक में क्यों मौजूद थे।
अमेरिका के सामने अत्यधिक मजबूत चीन है जो वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ एकीकृत है। उसे अपनी बाहरी नीति को समायोजित करना होगा ताकि यह हकीकत सामने आए। इन दोनों शक्तियों के बीच अधिक सूक्ष्म रिश्ते भारत के भूराजनीतिक गणित तथा अमेरिका के साथ उसके रिश्तों के मूल्य और क्वाड जैसे मंचों को नए सिरे से प्रभवित करेंगे। हालांकि अमेरिका के साथ हमारे रिश्तों के आगे भी महत्त्वपूर्ण बने रहने की अनेक वजह हैं लेकिन चीन के परिप्रेक्ष्य में उनका प्रतिवारक मूल्य कम हुआ है।
(लेखक पूर्व विदेश सचिव और सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के सीनियर फेलो हैं)
