काबुल हवाई अड्डे पर हुए बम धमाके में कम से कम 13 अमेरिकी सैनिकों समेत लगभग 100 लोगों के मारे जाने के घंटों बाद अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने कहा, ‘हम न माफ करेंगे और न भूलेंगे। हम तुम्हें खोज निकालेंगे और तुम इसकी कीमत चुकाओगे।’ ऐसा कहते हुए बाइडन ने अपना गुस्सा और आक्रामकता दिखाने की पूरी कोशिश की।
लेकिन दुख की बात है कि वह वही नजर आए जो वह हैं यानी भेड़ की खाल में भेड़। ध्रुवीकरण के दौर में बाइडन के प्रतिबद्ध मतदाता अभी भी उनके आंसुओं में प्रेरणा देख सकते हैं। लेकिन ज्यादातर लोगों को उन पर दुख होगा या वे हंसेंगे। उनका गुस्सा जिन अफ-पाक जिहादियों पर है, वे इससे बेपरवाह रहेंगे। इसकी तुलना 1975 के सैगॉन प्रकरण से न करें। वहां कम से कम आपका सामना एक नियमित सेना और वायुसेना से था जिसे चीन समेत वामपंथी तबके का पूरा समर्थन था। वहां एक पूरा नेतृत्व था जिसे व्यापक जन समर्थन हासिल था।
यह तो अव्यवस्थित, हथियारबंद गिरोह के सामने बिना शर्त समर्पण है। उन्हें न कोई अंतरराष्ट्रीय समर्थन है, न वहां मुल्क चलाने का कोई ढोंग है और न ही कोई जमीनी पकड़। शर्म से बचने के लिए आप यह कह सकते हैं कि आपने पाकिस्तान के समक्ष समर्पण कर दिया। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने जरूर इसे आजादी करार दिया है और उनका कहना है कि अफगानों ने गुलामी की जंजीर तोड़ दीं। यह कहां से आजादी लगती है? यदि अफगानों ने इसे आजादी माना होता तो वे सड़कों पर उतरकर जश्न मनाते और विजेता तालिबान का स्वागत करते।
वे देश से बाहर जाने की जद्दोजहद में काबुल हवाई अड्डे पर एकत्रित हैं। माएं अपने बच्चों को कंटीले तारों के पार उछाल रही हैं। परिवार नालियों में छिपकर अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे हैं। यहां तक कि बमबारी के अगले दिन भी लोग हवाई अड्डे पहुंचे। बाइडन प्रशासन इसे चाहे जैसे देखे लेकिन यह अमेरिका की सबसे शर्मिंदा करने वाली हार है।
यह बचाव कि वे ट्रंप प्रशासन की गलतियों की कीमत चुका रहे हैं, उतना ही थोथा है जितना कि बाइडन का गुस्सा और संकल्प का दिखावा। पहली बात, डॉनल्ड ट्रंप बिना शर्त समर्पण और पीछे हटने पर राजी नहीं हुए थे। दूसरा, दोहा में फरवरी 2020 में हुए समझौते में उनके प्रशासन ने तालिबान द्वारा खुद को इस्लामिक अमीरात ऑफ अफगानिस्तान कहे जाने को नकारा दिया था।
आज यह टूटी बिखरी महाशक्ति अफगानिस्तान में अपनी सबसे कीमती और संवेदनशील संपत्तियों की पहचान और जानकारी इस आशा में साझा कर रही है कि उनका संरक्षण किया जाएगा। यह एक महाशक्ति का पतन है। यह सन 1989 के सोवियत संघ जैसा नहीं है क्योंकि अमेरिका के भीतर इसे खास तवज्जो नहीं दी जाएगी।हमने बाइडन को भेड़ की खाल में भेड़ इसलिए कहा क्योंकि ट्रंप या नामांकन के मामले में अपनी ही पार्टी के पुराने प्रतिद्वंद्वियों की तुलना में बाइडन एक ऐसे योद्धा हैं जो जोखिम लेने से बचता है। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के संस्मरण बताते हैं कि कैसे बाइडन ने उन्हें सलाह दी थी कि वह ऐबटाबाद में ओसामा बिन लादेन के ठिकाने पर छापा न मारें।
उन्हें डर था कि अगर ऑपरेशन नाकाम रहता है तो क्या होगा? एक अन्य डेमोक्रेट राष्ट्रपति जिमी कार्टर के साथ ऐसा हो चुका था। तेहरान में अमेरिकी दूतावास से बंधकों को छुड़ाने के लिए शुरू ऑपरेशन र्ईगल क्लॉके साथ ऐसा हो चुका था। उन्हें लग रहा था कि ओसामा को पकडऩे के लिए शुरू ऑपरेशन की दशा भी कार्टर के ऑपरेशन जैसी हो सकती है।
यहां भी कई हेलीकॉप्टर शामिल थे और अनुभव से हम जानते हैं कि वे खासे अविश्वसनीय हो सकते हैं। ईरान भेजे गए हेलीकॉप्टर में से तीन नष्ट हो गए थे और ऑपरेशन रद्द किए जाने के बाद भी एक हेलीकॉप्टर एक मालवाहक विमान से जा टकराया जिससे आठ जवान मारे गए। बाइडन दोबारा यह जोखिम लेना नहीं चाहते थे। इसलिए मैंने उन्हें भेड़ की खाल में भेड़ कहा।
बाइडन ने दयालुता, सहानुभूति और निष्पक्षता को राजनीतिक उपयोग की वस्तु बनाकर ट्रंप को हराया। काबुल हमले के ठीक पहले और बाद के उनके बयान देखिए। किसी में अफगानों के लिए ये मूल्य नजर नहीं आते। उन्होंने कहा कि अमेरिका अफगानिस्तान में राष्ट्र निर्माण करने नहीं गया था। अच्छा? तो ओबामा प्रशासन के आठ सालों में सेना वापस क्यों नहीं बुलाई गई? या कम से कम ओसामा की मौत के बाद? सन 2004 के बाद 16 वर्ष तक अमेरिका और भारत समेत उसके साझेदार वहां राष्ट्र निर्माण ही कर रहे थे। आपने नाकाम होकर पीछे हटने का निर्णय लिया लेकिन कोई शर्त या समझौता नहीं किया। बाइडन ने कहा कि उनके पास सोचने के लिए सप्ताहांत समेत तमाम विषय हैं और उन्हें ऐसे सवालों से परेशान न किया जाए। इसके बाद उन्होंने अफगानिस्तान की अशरफ गनी सरकार की आलोचना की कि उनका आचरण शर्मिंदा करने वाला रहा। अपने पराजित सहयोगी के बारे में ऐसी बातें कौन कहता है? वह भी उसे अकेला छोडऩे के बाद। उन्होंने अफगान सेना के बारे में भी ऐसा ही कहा जबकि बीते दो दशक में अमेरिका और सहयोगियों की तुलना में उसके 30 गुना जवान मारे गए। अफगान सेना आसानी से हार गई लेकिन अमेरिका के हवाई सहायता, आधुनिकीकरण करने, इलेक्ट्रॉनिक खुफिया जानकारी और हवाई परिसंपत्तियों की देखरेख के वादे से पीछे हटने के बाद। अफगान सेना बिना हवाई और इलेक्ट्रॉनिक बचाव के घिर गई।
यहां तक कि वहां रखी वायुसेना की परिसंपत्तियों की देखरेख के लिए तय ठेकेदार भी भाग गए। नतीजा, लड़ाई के निर्णायक आखिरी दिनों में अफगान वायुसेना नदारद रही। अब तालिबान के हाथ अचानक ब्लैकहॉक हेलीकॉप्टरों, नजदीकी मदद पहुंचाने वाले विमानों और हजारों हमवी के साथ लाखों राइफलों और मशीन गन का खजाना लग चुका है। भला कौन सा सैन्य कमांडर ऐसे पीछे हटता है? फिर भी वह पूरे प्रकरण को यूं खारिज कर रहे हैं?
जोखिम से दूर रहने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए यह क्रूरता ही मानी जाएगी कि उसके विमान युद्ध क्षेत्र के ऊपर मंडरा रहे हों लेकिन मदद के लिए आसमान की ओर तक रहे अफगान सैनिकों की मदद न कर रही हो। यह कितना विचित्र है इसे समझने के लिए द न्यूयॉर्क टाइम्स में प्रकाशित अफगान सैन्य अभियानों के युवा प्रमुख जनरल सामी सादात का मर्मस्पर्शी लेख पढि़ए। हताश बाइडन शायद युवा जॉर्ज बुश के शब्दों को ही जुबान दे रहे थे, ‘हम उन्हें उनके बिलों से बाहर निकालेंगे…’ बस अब यह खोखला प्रतीत होता है। यदि बाइडन अपनी धमकी पर कायम रहते हैं तो पहली परिस्थिति में यह निष्कर्ष पेश कर दो कि मामला केवल इस्लामिक स्टेट ऑफ खुरासान प्रॉविंस (आईएसकेपी) का है। उसके बाद किसी नेता या नेतृत्व को चिह्नित करके हवाई हमला कर दो। उन्हें पाकिस्तान की मदद की जरूरत होगी। दूसरा कोई रास्ता नहीं है।
एक अमेरिकी राष्ट्रपति बुश जूनियर के बढ़चढ़कर किए गए दावों की खातिर अमेरिका दो दशक तक पाकिस्तान पर निर्भर रहा। इसकी कीमत उसने खून और उसके बदले पैसे मेंं चुकाई। अब उसके पिठ्ठुओं से हारने के बाद बाइडन पाकिस्तानी सेना का सहारा लेंगे ताकि अपने लोगों को संतुष्ट कर सकें। सवाल यह है कि आईएसकेपी के मौजूदा मुखिया को मारने के बाद अमेरिका क्या करेगा? जल्दी ही कोई और उसकी जगह ले लेगा।
अफगानिस्तान दोबारा वैश्विक इस्लामिक चरमपंथ की नर्सरी बन जाएगा। कोई भी जो यह सोचता है कि पाकिस्तान के संरक्षण में तालिबान इन समूहों के बीच एक सुरक्षित राष्ट्र बनाएगा तो आप गलती कर रहे हैं। क्या दोबारा वही दुष्चक्र शुरू हो जाएगा: पाकिस्तान आतंक के खिलाफ जंग का अगुआ बनेगा तो हार तय है। हो सकता है इससे अमेरिका में बाइडन का जनाधार प्रभावित न हो। ट्रंप के मामले में हमने देखा कि हार होने पर भी जनाधार प्राय: नेता को क्षमा कर देता है। लेकिन इससे अमेरिका की शक्तिशाली छवि को क्षति पहुंचेगी। भारत समेत सभी अमेरिकी सहयोगियों को झटका लग सकता है। यदि वह इतने मेंं ही भाग खड़ा होता है और बुरी स्थिति में फंसे सहयोगी को दोष देता है तो ताइवान जापान और दक्षिण कोरिया चीन के खिलाफ उस पर कैसे भरोसा करेंगे? या भारत भी कैसे भरोसा करेगा। ऐसे में क्वाड की क्या अहमियत रह जाएगी? बाइडन काबुल पर बमबारी करने वाले आतंकियों के साथ चाहे जो करें या न कर पाएं लेकिन उन्होंने वैश्विक रणनीतिक चिंतन बदल दिया है।