वर्ष 2006 में बनी ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता (आईबीसी) को अब तक अंतिम रूप नहीं दिया जा सका है। कुछ बहुचर्चित ऋण के मामलों में भारी भरकम कटौती या कमजोर वसूली को लेकर इसकी काफी आलोचना हुई है। वित्त मंत्रालय से संबद्ध संसद की स्थायी समिति ने सुधार के सुझाव रखे। कंपनियों के निस्तारण के दो मॉडल हैं। एक है ब्रिटेन का क्रेडिट-इन-पजेशन मॉडल जहां संकटग्रस्त परिसंपत्ति पर नियंत्रण कर्जदाताओं को सौंप दिया जाता है। दूसरा है कि डेटर-इन-पजेशन मॉडल। यह अमेरिकी मॉडल है जहां कर्जदार का नियंत्रण बना रहता है।
भारत में कर्जदाता निस्तारण पेशेवरों के साथ मिलकर ऐसी कंपनियों का भविष्य तय करते हैं। राष्ट्रीय कंपनी लॉ पंचाट (एनसीएलटी) निर्णय करने वाली संस्था होती है। विचार यह है कि बैंकों ने काफी गड़बड़ी कर दी, अब बेहतर है कि निस्तारण का काम स्वतंत्र प्राधिकार के हाथ में हो। परंतु ऐसा लगता है कि निस्तारण पेशेवर कमजोर कड़ी हैं। संसदीय समिति ने इनके बारे में तीखी टिप्पणियां की हैं। उनमें से कई स्नातक भर हैं। नियामकीय प्राधिकारियों ने अब तक 203 निगरानियों के बाद 123 निस्तारण पेशेवरों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की है। समिति एक स्वनियमन संस्था चाहती है ताकि निस्तारण पेशेवरों के पेशेवर मानकों को भारतीय सनदी लेखाकार संस्थान के अनुरूप किया जा सके।
एनसीएलटी के मुताबिक इसकी प्रक्रिया देरी से प्रभावित होती है। 71 फीसदी मामलों में 180 दिनों की देरी हुई। एनसीएलटी को पहले तो मामले स्वीकारने में ही काफी समय लगता है। समिति चाहती है कि मामलों को 30 दिन में ही स्वीकार किया जाए। इसकी एक वजह यह है कि न्यायपालिका की तरह एनसीएलटी में भी कई पद खाली हैं। एनसीएलटी में 62 सदस्यों में से 34 सदस्य कम हैं।
ऋणशोधन प्रक्रिया में जितना समय लगता है, कर्जदाताओं को उतना ही कम मूल्य मिलेगा। निस्तारण को बैंकों से आईबीसी के हवाले किया गया क्योंकि बैंकों को संकटग्रस्त परिसंपत्ति निस्तारण के काम के अनुरूप नहीं माना जाता था। हमने डेट रिकवरी पंचाट और सरफेसी अधिनियम जैसी नई व्यवस्था देखी हैं जहां मामलों में नाटकीय सुधार नहीं आया। हालांकि आईबीसी के तहत प्रदर्शन बेहतर है।
समिति कुछ मामलों में देखने को मिली भारी कटौती को लेकर चिंतित है। यह एक मानक की तरह होगा या कम से कम कटौती की सीमा तय हो। यह व्यावहारिक नहीं है। किसी भी निस्तारण में बैंक ऐसी किसी भी राशि के लिए तैयार हो जाएंगे जो नकदीकृत मूल्य से अधिक हो।
नकदीकरण का अनुमानित मूल्य सही होना महत्त्वपूर्ण है और साथ ही बोली के लिए अधिक से अधिक पक्षों को जुटाना भी। नकदीकरण मूल्य के एक नमूने और नीलामी प्रक्रिया का स्वतंत्र मूल्यांकन करना जरूरी है। क्या अनुमानित नकदीकृत मूल्य समुचित है? क्या नीलामी प्रक्रिया को सभी बोलीकर्ताओं के लिए खोलने के समुचित प्रयास किए गए? इनका उत्तर ही आईबीसी प्रक्रिया के प्रभाव पर प्रकाश डालेगी। भारतीय ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया बोर्ड (आईबीबीआई) में एक स्वतंत्र मूल्यांकन अधिकारी की नियुक्ति करना उपयोगी साबित हो सकता है। ठीक अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के तर्ज पर।
समिति खंड 29 (ए) की अनदेखी करती है जो प्रवर्तकों को बोली लगाने से रोकती है, भले ही वे जानबूझकर देनदारी में चूक करने वाले न हों। हम पहले भी दलील दे चुके हैं कि प्रावधानों की समीक्षा करने की जरूरत है। जिन मामलों में प्रवर्तकों के नियंत्रण के बाहर की वजहों से कर्ज फंसा हो वहां उन्हें आईबीसी के तहत नीलामी प्रक्रिया में हिस्सा लेने का अवसर देना उचित होगा।
समिति ने सुझाव दिया कि सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों को की जाने वाली पूर्व निर्धारित पेशकश को निगमों तक बढ़ाया जाना चाहिए। उक्त व्यवस्था में बैंक और फर्म मामले के एनसीएलटी तक पहुंचने के पहले ही निस्तारण के लिए तैयार हो जाते हैं। निस्तारण पेशेवर यह आकलन करेंगे कि यह निस्तारण उचित है या नहीं। यदि बैंक और फर्म निस्तारण पर सहमत होती हैं तो आईबीसी प्रक्रिया क्यों अपनाना? क्योंकि एनसीएलटी की मंजूरी हासिल करने से बैंकरों को अपने आप को बचाने में मदद मिलेगी। लेकिन तब निस्तारण में देरी होती है और मामले के वाद में जाने की संभावना रहती है।
हमें देश में किसी भी न्यायिक या अद्र्धन्यायिक प्रक्रिया में देरी तथा अन्य जटिलताओं की अपेक्षा करनी चाहिए। ऐसे में बैंकों का सबसे बेहतर दांव यही है कि वे इस सिद्धांत पर काम करें कि बचाव, उपचार से बेहतर होता है। बैंकों में जोखिम प्रबंधन में सुधार की जरूरत है। यह कोई आसान मामला नहीं है। इसके लिए अन्य बातों के अलावा बैंकों के संचालन में काफी सुधार की आवश्यकता है। बोर्ड की बनावट, स्वतंत्र निदेशकों का चयन, स्वतंत्र निदेशकों के लिए क्षतिपूर्ति (सरकारी बैंकों में), तथा बोर्ड की जवाबदेही तथा अन्य मसलों को हल करना होगा। आरबीआई को बोर्ड संचालन के हालिया प्रयासों को आगे बढ़ाना चाहिए।
एक अलग मोर्चे पर देखें तो स्थायी समिति को रिपोर्ट की गुणवत्ता के लिए सराहा जाना चाहिए। रिपोर्ट आईबीसी के उदय और उसके अतीत के बारे में पूरी जानकारी देती है, उसके सामने उभरे मुद्दों के बारे में जानकारी देती है, विभिन्न अंशधारकों की प्रतिक्रिया उद्धृत करती है, और तब जाकर अपनी अनुशंसाएं करती है। डेटा की स्थिति और उसका विश्लेषण रिपोर्ट को कई लोगों के लिए उपयोगी होता है।
यह दुख की बात है कि संसदीय समितियों की रिपोर्ट का बेहतर प्रसार नहीं होता। संसद के काम का अहम हिस्सा ये समितियां करती हैं। इसके बावजूद संसद की छवि उसी कोलाहल से बनती है जिसे मीडिया कवर करता है। संसद को अपनी रिपोर्टों के बेहतर प्रचार की कोशिश करनी चाहिए और जनता में इन्हें लेकर जागरूकता पैदा करनी चाहिए। केवल संसद की वेबसाइट पर रिपोर्ट अपलोड कर देने से बात नहीं बनेगी। दूरदर्शन, लोकसभा टीवी, राज्य सभा टीवी आदि को अहम रिपोर्ट पर समितियों के चेयरमैन, विद्वानों और पत्रकारों के साथ बहस आयोजित करनी चाहिए।
संसद को उदार भुगतान के साथ कॉलेज के छात्रों को इंटर्नशिप की पेशकश भी करनी चाहिए ताकि युवाओं को संसदीय कामकाज का अनुभव हो। उसे कॉलेज के शिक्षकों से संपर्क कर समितियों की रिपोर्ट से छात्रों को असाइनमेंट दिलवाना चाहिए। संसद को चाहिए कि विद्वानों को प्रतिनियुक्ति पर अपने साथ जोड़े और समितियों में चुनिंदा विषयों पर काम कराए।
लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए राजनेताओं और विधायिका को लेकर नकारात्मक धारणा बदलनी होगी। ऐसा करने का एक तरीका यह भी हो सकता है कि शिक्षित वर्ग के लोगों के साथ जो जन भावना को प्रभावित करते हैं संवाद और विचार विनिमय बढ़ाया जाए।