तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी का यश पश्चिम बंगाल के हर कोने में पहुंच गया। बल्कि यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि बंगाल का राजनीतिक माहौल ममतामय हो गया है।
वामदलों के नेताओं को ममता की तलाश है, उन पर कंबल डालकर पिटाई करने के लिए। कांग्रेस को उनकी तलाश है, उनसे हाथ मिलाने के लिए। एकला चलो रे का राग अलापने वाले अस्पताल में बीमार चल रहे हैं। पश्चिम बंगाल में राजनीतिक मौसम बदलने वाला है।
पिछले कुछ वर्षों से ममता बनर्जी बंगाल के वामदलों के लिए सफेद उल्लू मानी जाने लगी थीं। जिस तरह से सफेद उल्लू सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है, उसी तरह ममता बनर्जी की करतूतें वामदलों के गठबंधन के लिए शुभ सिध्द होंगी, ऐसा बंगाल में कहा जाने लगा था। और ऐसा क्यों, इसका कारण खोजने ज्यादा दूर जाने की जरूरत भी नहीं थी।
जब ज्योति बसु बंगाल के मुख्यमंत्री थे, तब ममता बनर्जी राइटर्स बिल्डिंग में बसु के दफ्तर में घुस गईं। वहां उन्होंने धरना देने की कोशिश की। सवाल था दो महिलाओं के साथ बलात्कार का। ज्योति बसु दफ्तर से निकले। एक नजर बनर्जी पर डाली और पुलिस वालों से कहा- इन्हें बाहर कर दीजिए। ममता बनर्जी को उठाकर बाहर फेंकना पड़ा।
कुछ माह बाद वाम दल गठबंधन को उखाड़ फेंको का नारा देकर फिर उन्होंने राइटर्स बिल्डिंग पर धावा बोला। इस बार पुलिस ने गोलियां चलाईं। कुछ लोग मारे भी गए। फिर कुछ साल बाद ममता बनर्जी ने झल्लाकर अपनी मोटर की बोनट पर चढ़कर ऐलान किया कि वह आत्महत्या करने वाली हैं- सरकार के खिलाफ नहीं, अपने समर्थकों की भीड़ पर काबू पाने के लिए, जो उन्होंने बुलाई थी।
संसद में लोकसभा के उपसभापति, चरणजीत सिंह अटवाल के ऊपर एक बार उन्होंने अपने सारे कागज फेंक दिए थे। तब से अटवाल साहब उनसे दूर बैठते हैं। और अभी सिंगुर में चल रहे आंदोलन को लेकर जब उन्होंने सभा की, तो रास्ता तो रोका ही, साथ ही समर्थकों को कैंची और टाटा नमक (पाठकों को याद होगा: शुध्द नमक) साथ लाने को कहा।
फिर भाषणों के बाद उन्होंने नारा दिया कि जिस तरह गांधी जी ने नमक आंदोलन चलाया था, उसी तरह वह टाटा का नमक बेकार कर उनके खिलाफ आंदोलन चलाने वाली हैं। फिर उन्होंने और उनके समर्थकों ने पूरे हाइवे पर टाटा नमक के पैकेट काटकर नमक छिड़का। वामदलों ने हंस-हंसकर पेट पकड़ लिया।
लेकिन यदि देश-काल को एक मिनट परे रखें तो इसमें कोई दो राय नहीं कि ममता बनर्जी कांग्रेस के उन नेताओं में से एक हैं, जो दिल से वामदलों से घृणा करती हैं। एक जमाने में बंगाल पर राज करने वाली कांग्रेस पिछले कुछ दशकों में दो हिस्सों में बंट गई है।
ममता बनर्जी के पीछे वह धड़ा है जो वामदलों के खिलाफ है और प्रणव मुखर्जी तथा प्रियरंजन दासमुंशी के पीछे वह धड़ा जो देखने में वामदलों के खिलाफ है लेकिन मन ही मन ममता बनर्जी को बाहर रखने के लिए वाम दलों से हाथ मिलाने के लिए हमेशा तैयार खड़ा रहता है। बंगाल में इस गुट को व्यंग्य से तरबूज कहा जाता है: बाहर से हरा, लेकिन काटो तो लाल।
ममता की कारस्तानियों की वजह से तरबूज गुट कांग्रेस में हावी रहा है। लेकिन इससे कांग्रेस को नुकसान ही हुआ है, फायदा नहीं। खिन्न और निराश होकर ममता ने 1998 में जब तृणमूल कांग्रेस की स्थापना की तो भारतीय जनता पार्टी (जो उस समय सहयोगी ढूंढ़ रही थी) ने उसे अच्छा साथी पाया। लेकिन तृणमूल का 2006 के विधानसभा चुनाव में सफाया होने के बाद ममता और भाजपा की दूरी बढ़ती गई।
जब टाटा के लिए राज्य सरकार ने सिंगुर में भूमि अधिग्रहण शुरू किया तो ममता बनर्जी ने नोट कर लिया कि जमीन खोने वाले अधिकतर काश्तकार मुसलमान थे। अत: काश्तकारों और मुसलमानों की जमीन के अधिग्रहण के खिलाफ आंदोलन करने में दोगुना फायदा था। इसीलिए भविष्य में भी शायद ही ममता बनर्जी , लालकृष्ण आडवाणी और अरुण जेटली के साथ मंच पर आएंगी।
अब जब ममता बनर्जी नैनो और टाटा को बंगाल से बाहर धकेलने में सफल हो चुकी हैं, और उन्हें उद्योग विरोधी की संज्ञा दी जा चुकी है, तब लग रहा है कि उनके पास और कोई विकल्प भी नहीं है- सिवाय कांग्रेस के साथ जाने का। गत चुनावों के नतीजों ने यह सिध्द कर दिया है कि बंगाल में वामदलों की सरकार को तभी खदेड़कर बाहर निकाला जा सकता है जब कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस एकजुट होकर चुनाव लड़े।
विधानसभा का चुनाव 2011 में है। उससे पहले एक और बड़ी चुनौती से कांग्रेस को जूझना होगा: ममता बनर्जी के साथ लोकसभा चुनाव या उनके बिना? एक तरफ खाई है तो दूसरी तरफ गङ्ढा। यदि बनर्जी के बिना चुनाव लड़ेंगे तो पिछली लोकसभा से भी कम सीटें आएंगी (इस लोकसभा में 42 सीटों में से 6 पर कांग्रेस विजयी हुई थी) लेकिन यदि अगली लोकसभा में वामदलों से मिलकर भाजपा को बाहर रखने के लिए सरकार बनानी पड़ी तो फिर?
जिस सरकार या पार्टी में ममता बनर्जी सहयोगी हैं, उसका तो मुंह भी वामदल नहीं देखेंगे। कांग्रेस के साथ परिणय सूत्र में ममता बनर्जी बंधने को तैयार भी हों तो सोनिया गांधी इसके लिए राजी होंगी या नहीं, इस पर सवालिया निशान है। लेकिन घड़ी की सुई भागी चली जा रही है। समय ज्यादा नहीं है और मौसम बदल रहा है।