जब संकट का दौर खत्म हो जाता है और हम उसे झेल चुके होते हैं तो पीछे मुड़कर देखने पर कुछ ऐसी बातें निकलकर सामने आती हैं, जो हमें बुनियादी निष्कर्षों की ओर ले जाती हैं।
हालांकि संस्थागत समाधान के कई तरीके होते हैं लेकिन वे संकट के केंद्र में रहे एक साधारण से संदेश को भी जटिल बना देते हैं। मौजूदा संदर्भ में अगर मुझसे पूछा जाए कि वह साधारण संदेश क्या है तो तो मुझे एक पुरानी कहावत ही याद आती है कि ‘एक ही टोकरी में सारे अंडों को न रखें’।
जब हम इस संकट के विभिन्न मोड़ और घुमाव के बारे में विश्लेषण करते हैं और अनुमान लगाते हैं कि आने वाले सप्ताहों और महीनों में क्या कुछ होने जा रहा है तो हमें पता चलता है कि अर्थव्यवस्था, सेक्टर, कंपनियां, हाउसहोल्ड में से जिन पर संकट का कम असर पड़ा वे उनकी तुलना में ज्यादा ‘विविधीकृत’ थे, जिन पर बहुत ज्यादा प्रभाव पड़ा।
इसी संदर्भ में सबसे पहले आइये संपूर्ण अर्थव्यवस्था के लिहाज से देखते हैं। कुछ साल पहले ब्राजील-रूस-भारत-चीन बीआरआईसी (ब्रिक) देशों को उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं के रूप में देखा जाता था।
इसकी प्रमुख वजह थी- इनके घरेलू बाजार का आकार और उसकी विकास दर। इसके साथ ही यह भी तर्क दिया जा रहा था कि यह सभी देशों के बीच संतुलन भी स्थापित करेंगे।
अगर कोई वैश्विक संकट आ जाए तो ये अर्थव्यवस्थाएं किसी भी खतरे से पूरी दुनिया का बचाव करेंगी, संकट चाहे जहां से आया हो। भारत और चीन को इस रूप में देखा गया कि ये दोनो देश घरेलू अर्थव्यवस्था के माध्यम से सभी झटकों को बर्दाश्त कर लेंगी।
जब तेल और अन्य जिंसों की कीमतें आसमान छूने लगीं तो ब्राजील और रूस ने अपने दम पर इस वर्षों में स्थिति को काबू में रखा और इन दो बड़ी अर्थव्यवस्थाओं ने अपनी ताकत बरकरार रखी। उनकी प्रतिरोध क्षमता ऊर्जा और जिंसों के निर्यात पर निर्भर रही, जिसके चलते स्पष्ट रूप से गिरावट के दौर में उनका प्रदर्शन बेहतर रहा।
ये देश भारत और चीन की तुलना में ज्यादा विविधीकृत अर्थव्यवस्थाएं हैं। ये दो अर्थव्यवस्थाएं दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं के रूप में कायम रहेंगी,
जहां विकास दर कमोवेश उन देशों की तुलना में सम्मानजनक स्थिति में रहेगी जिन्होंने 2006-07 के दौरान अर्थव्यवस्था की बढ़त के दिनों में बहुत ही नाटकीय विकास किया था और अब वे मंदी के दौर से गुजर रहे हैं।
चीन भी अपने आप में विविधीकरण का एक बड़ा उदाहरण है। कई साल से विकास के विभिन्न कारकों ने काम करना शुरू किया और उनकी भूमिका बलवती होनी शुरू हो गई। हालांकि निर्यात बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका में रहा, लेकिन इसके साथ ही वहां घरेलू मांग भी पर्याप्त मात्रा में बढ़ती रही।
अगर निर्यात बास्केट पर गौर करें तो अमेरिका अब भी बहुत ही महत्त्वपूर्ण बाजार है। यहां से एशिया की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में निर्यात बढ़ा है।
जहां तक घरेलू मांग की बात है, उपभोक्ता की जितनी कमाई होती है उसी की तुलना में निवेश होता है। इन दोनो ही प्रवृत्तियों के चलते अमेरिकी मंदी आई है और मौद्रिक और वित्तीय नीतियों पर प्रभाव पड़ा है। इसमें घरेलू मांग की अहम भूमिका रही है।
अगर क्षेत्रवार और कंपनी के स्तर पर देखें तो इस बात के तमाम उदाहण हैं कि छोटे बाजारों पर बहुत ज्यादा ध्यान कें द्रित किया गया, जिसके चलते बहुत ज्यादा नुकसान हुआ।
अगर हम अमेरिका के ऑटोमोबाइल उद्योग के बेलआउट के आस पास नजर डालें तो पता चलता है कि तीनों कंपनियों ने एसयूवी सेगमेंट में ही ज्यादा काम किया।
बड़ी संख्या में तुलनात्मक रूप से कम ईंधन की खपत वाले वाहन बनाए। यह बेहतर भी रहा, जब अच्छे दिन चल रहे थे। लेकिन जैसे ही ईंधन की कीमतें आसमान छूने लगीं, रातोंरात इनकी मांग गायब सी हो गई।
हकीकत यह है कि इन कंपनियों के पास कोई ऐसा उत्पाद नहीं था, जिससे ये इस तरह के बाजार में हुए नाटकीय बदलाव को झेल सकें।
इसके चलते ये कंपनियां मंदी का शिकार हो गईं। वर्तमान परिस्थितियों में सभी ऑटोमोबाइल कंपनियां पूरी दुनिया में संकट की स्थिति में हैं। यह सही है कि इनमें से जो भी कंपनी छोटी और कम ईंधन वाले वाहनों को तैयार करने में सक्षम होंगी, वे सबसे पहले आर्थिक नुकसान की भरपाई कर लेंगी।
ऐसा ही कुछ हाल है भारत के रियल एस्टेट डेवलपर्स का। जब बाजार की हालत अच्छी थी तो इन कंपनियों ने खुद को मध्यवर्ग से दूर कर लिया और कीमतें पहुंच से बाहर हो गईं।
खर्चीली और सुख सुविधाओं से लैस परियोजनाएं आईं। इसके चलते मांग में भी कमी आई और साथ ही खर्चीला होने की वजह से लोगों पर कर्ज भी बढ़ा।
अगर बाजार में खरीदार थे भी तो पैसे की कमी और बाजार की हालत के चलते परियोजनाओं में देरी की वजह से दिक्कतें आईं।
एक बार फिर यह कहना उचित होगा कि मौद्रिक और वित्तीय प्रोत्साहन की नीति अगर निम्न और मध्यम कीमतों वाले हाउसिंग बाजार को ध्यान में रखकर तैयार की जाए तो तमाम नामचीन डेवलपर्स को कोई तात्कालिक फायदा नहीं होगा क्योंकि वे इन वर्गों को करीब छोड़ चुके हैं।
निर्यातकों की स्थिति को कुछ इसी लिहाज से देखा जा सकता है। यह खरीदार और विक्रेता- दोनों लिहाज से कीमतों पर बहुत ज्यादा निर्भर करता है, लेकिन इस पर कम ध्यान दिया गया। बहुत से निर्यातकों ने उत्पादों की बहुत ही कम रेंज रखी, यहां तक कि उनके केवल एक ही खरीदार होते थे।
उन खरीदारों को छोड़ दिया गया जिनकी आर्थिक स्थिति बहुत बढ़िया नहीं थी। चीन में निर्यात की बहुत सी इकाइयां बंद हो गईं क्योंकि उनके ज्यादातर या प्रमुख खरीदार संकट में हैं। भारत के विनिर्मित उत्पादों के निर्यातकों की स्थिति भी कमोबेश ऐसी ही है।
भारत की ज्यादातर आईटी और आईटीईएस सेक्टर की कंपनियों के विकास में अमेरिकी वित्तीय क्षेत्र की प्रमुख भूमिका रही। अमेरिका से आने वाले राजस्व में गिरावट आने के साथ ही पिछली वित्तीय तिमाहियों में उनकी हालत खस्ता नजर आने लगी।
अंत में, व्यक्तिगत स्तर पर विविधीकरण के माध्यम से जोखिम से निपटने का तरीका अपनाया जा सकता है। यहां तक कि निम्न आय वर्ग को भी ध्यान में रखकर भी इसे तैयार करना होगा। कामगार गांवों से शहरों की ओर जा सकते हैं, यहां तक कि उद्योग और सेवा क्षेत्र में संभावनाओं की तलाश में और भी दूरी तय कर सकते हैं।
लेकिन चीन और भारत जैसे देशों ने शायद ही ग्रामीण अर्थव्यस्था के साथ तालमेल बिठाया है। रणनीति के स्तर पर जो कार्यकुशलता, विशेषज्ञता के माध्यम से हासिल की जाती है, उसे निश्चित रूप से जोखिम को ध्यान में रखकर तैयार की जानी चाहिए।
व्यक्तिगत और हाउसहोल्ड्स की स्थिति में उनके सारे रास्ते बहुराष्ट्रीय निगमों से होकर गुजरते हैं। इसमें आय के स्तर पर कुछ बदलाव किए जाने की जरूरत है।
ऐसी हालत में किसी भी आर्थिक हालत में बदलाव का प्रभाव बहुत कम पड़ेगा। नीतिगत स्तर पर सरकार और नियामकों को प्रभावी विविधीकरण को ध्यान में रखकर काम करने की जरूरत है।
हो सकता है कि संकट से बचना मुश्किल हो लेकिन हमें इसकी जानकारी होनी चाहिए। हमें यह पता होना चाहिए कि अर्थव्यवस्था, सेक्टरों, कंपनियों और हाउसहोल्ड्स के स्तर पर पड़ने वाले प्रभावों से किस तरह निपटा जाए।
(लेखक स्टैंडर्ड ऐंड पूअर्स एशिया पैसिफिक के मुख्य अर्थशास्त्री हैं और यह उनके निजी विचार हैं।)