अर्थशास्त्र के शुरुआती सिद्धांतों में से एक है ‘सहायक सिद्धांत’। इस सिद्धांत में कहा जाता है कि राज्य का हर कार्य सरकार के न्यूनतम संभव स्तर पर किया जाना चाहिए। इस तर्क के मुताबिक मच्छरों पर नियंत्रण का काम शहर के स्तर पर जबकि प्रतिभूति बाजार नियमन का काम केंद्र के स्तर पर होना चाहिए। भारतीय संविधान में एक संघीय दृष्टि निहित है। देश में बहुत विविधता है और हर स्थान स्थानीय मुद्दों का हल तलाशने में सक्षम है। इसके साथ ही एक राष्ट्र के रूप में एक खास स्तर की एकरूपता आर्थिक आधुनिकीकरण में मदद करती है, इससे वैश्वीकरण के साथ जुडऩे में मदद मिलती है और बड़ा आर्थिक स्तर हासिल करने में भी सहायता मिलती है।
कंप्यूटर तकनीकविद विविधता वाली प्रणालियों के लिए अंत:संबंधों और पारस्परिक संचालन को लेकर व्यवस्था के बारे में विचार करते हुए नरम रुख रखते हैं। उनका प्रस्ताव है कि एक बार किसी प्रणाली के निचले स्तर से ऊपरी स्तर की ओर विकसित होने के बाद एपीआई (ऐप्लीकेशन प्रोग्रामिंग इंटरफेस) और डेटा मानक विकसित करना संभव होगा। इनके माध्यम से ऊंचे स्तर का परस्पर संचालन प्राप्त किया जा सकेगा।
भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची की ‘केंद्रीय’ सूची उस क्षेत्र को परिभाषित करती है जिसमें केंद्र सरकार काम कर सकती है। इनमें से कुछ विषयों में जहां केंद्र को कानूनी अधिकार हासिल होते हैं, वहीं काम को पूरा करने के लिए राज्यों के साथ सहयोग भी आवश्यक होता है। बेंगलूरु हवाई अड्डे का विस्तार और आधुनिकीकरण तथा कोंकण रेलवे परियोजना इसके उदाहरण हैं।
अगला स्तर ‘अनुवर्ती सूची’ का है। जहां संविधान केंद्र को वरीयता देता है। भले ही केंद्र सरकार को भूमि अधिग्रहण जैसी समस्याओं से निपटने के कानूनी अधिकार प्राप्त हैं लेकिन फिर भी राज्य सरकारों के साथ सहयोग और चर्चा करना समझदारी होगी।
आखिर में आती है ‘राज्य सूची’ जहां विधायी अधिकार राज्य सरकार के पास होते हैं और केंद्र सरकार की भूमिका केवल सलाह देने और धन मुहैया कराने की होती है। योजना आयोग से शुरुआत करके केंद्र सरकार ने इन क्षेत्रों में अपनी भूमिका निर्मित करने के लिए राज्यों को होने वाले संसाधनों के प्रवाह को केंद्र के नीतिगत नजरिये की स्वीकार्यता से जोड़ा। सर्व शिक्षा अभियान इसका उदाहरण है। संविधान को लेकर संघीय दृष्टि से एक उल्लेखनीय महत्त्व और जटिलता वाला विषय है भूमि। यह सभी देशों में सबसे अहम परिसंपत्ति होती है। जमीन के इस्तेमाल में आर्थिक किफायत अपनाने से जीडीपी को बड़े लाभ हासिल होते हैं। भूस्वामित्व और अनुबंधों की निगरानी करने वाले मौजूदा संस्थान अच्छी तरह काम नहीं कर रहे। देश में लंबित कानूनी मामलों में करीब दो तिहाई भू-स्वामित्व से संबंधित हैं।
राज्य के भू रिकॉर्ड में अधिकारों का रिकॉर्ड, ट्रांसफर डीड और स्थानिक रिकॉर्ड शामिल हैं। सरकार की सूचनाओं में डेटा की गुणवत्ता की समस्या आती है, दावों के निपटान लंबित होते हैं और स्थानीय सरकार के विभिन्न विभागों के बीच एकीकरण या निरंतरता की कमी रहती है।
संविधान में भू-रिकॉर्ड प्रबंधन, भू-अधिकार, भूस्वामी और किरायेदार के संबंध तथा किराया जुटाने के कार्य राज्य के व्यक्तिगत कार्य हैं। कर्नाटक और आंध्र प्रदेश समेत कई राज्यों ने इन संस्थानों में सुधार लाने में उल्लेखनीय कार्य किया है। केंद्र सरकार ने डिजिटल इंडिया लैंड रिकॉर्ड मॉडर्नाइजिंग प्रोग्राम (डीआई-एलआरएमपी) कार्यक्रम की शुरुआत 2008 में की थी। इरादा यही था कि भू-रिकॉर्ड को कंप्यूटरीकृत किया जाए, पंजीयन को भू रिकॉर्ड रखरखाव प्रणाली के साथ मिलाया जाए और स्थानिक आंकड़ों के साथ एकत्रित किया जाए।
इसके क्रियान्वयन में राज्य विषय और अनुवर्ती विषय का एक विचित्र मिश्रण है। केंद्रीय विधान का एक हिस्सा यानी पंजीयन अधिनियम 1908 दस्तावेजों के पंजीयन के मामले में प्रमुख है। चूंकि यह अनुवर्ती सूची में है इसलिए इस अधिनियम में राज्यों के हिसाब से कई संसोधन हैं। इस क्षेत्र में संस्थान निर्माण में होने वाली प्रगति के लिए ऐसे हल जरूरी हैं जो स्थानीय हालात से तथा संस्थागत परिदृश्य में इन जटिलताओं से निपट सकें।
इस दिशा में मील का एक अहम पत्थर है नैशनल जेनरिक डॉक्युमेंट रजिस्ट्रेशन सिस्टम (एनजीडीआरएस) जिसकी शुरुआत डीआई-एलआरएमपी के तहत 2016 में की गई। एनजीडीआरएस एक लचीला सॉफ्टवेयर है जो पंजीयन प्रक्रिया के सभी अंशधारकों को एक साथ जोड़ता है। यह ऐसे डिजाइन के साथ काम करता है जहां राज्यों को यह इजाजत होती है कि इसमें स्थानीय जरूरतों के मुताबिक बदलाव कर सकें। सहकारी संघवाद के मजबूत व्यवहार का उदाहरण पेश करते हुए एनजीडीआरएस को केंद्र सरकार ने राज्यों की सक्रिय भागीदारी के साथ विकसित किया।
एनजीडीआरएस भू रिकॉर्ड को वित्तीय संस्थानों के डेटाबेस, राजस्व कार्यालयों, आयकर कार्यालयों, भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण आदि से जोड़ सकता है। इस प्रकार जमीन के स्वामित्व में एक नये स्तर की पारदर्शिता आ सकती है। यह पंजीयन को सहज बनाता है और दस्तावेजों की आपूर्ति को भी। इसमें कई गुण हैं जिनकी मदद से यह राज्यों की विशिष्ट आवश्यकताओं का समायोजन कर सकता है। इसमें उन परिसंपत्तियों का डेटाबेस शािमल है जिनकी खरीद-बिक्री नहीं हो सकती। उदाहरण के लिए आदिवासी इलाकों की जमीन, सरकारी जमीन और मॉर्गेज की हुई जमीन। कई विपक्ष शासित राज्यों समेत इसे 12 राज्यों में शुरू किया जा चुका है।
भूमि के मामले में ये अहम घटनाक्रम हैं। शहरों और राज्यों के स्तर पर तथा केंद्र के स्तर पर नीति निर्माताओं को निरंतर विचार करने और नवाचार करने की आवश्यकता है ताकि इस कठिन क्षेत्र में विशिष्ट स्थानीय परिस्थितियों से जुड़े हल तलाशने का सिलसिला जारी रहे तथा डेटाबेस तथा लेनदेन को इस प्रकार दर्ज किया जा सके कि राष्ट्रीय और वैश्विक कंपनियां उस तक पहुंच बना सकें तथा इसके साथ ही स्थानीय सरकार की शक्ति और उसकी महत्ता को भी सुरक्षित रखा जा सके। इसके लिए शोधकर्ताओं और नीति निर्माताओं की आवश्यकता होगी जो एक समय में एक स्थान पर गहरी पकड़ रखते हों तथा एक दूसरे से चर्चा करते हों।
देश के अन्य क्षेत्रों में भी डिजिटल पहल हुई हैं। ऐसे में व्यक्तिगत स्तर पर लोगों के आंकड़ों का राज्य सरकार के हाथों में होना एक विशिष्ट चुनौती है। अबाध लेनदेन का लक्ष्य हासिल करने और विवाद कम करने के अलावा इस क्षेत्र में डेटा की निजता के बारे में व्यापक तौर पर काम करने की जरूरत है जो भारत तथा अन्य क्षेत्रों में एक बड़ी चुनौती बनकर उभरी है। ऐसा संतुलन कायम करने की आवश्यकता है जो नुकसान को सीमित कर सके। भू नीति पर शोध करने वालों तथा डेटा की निजता की नीति पर यकीन करने वालों को एक साथ आकर इसे अगले स्तर पर ले जाने की आवश्यकता है।
(लेखक सीपीआर में मानद प्राध्यापक और पूर्व अफसरशाह हैं)
