गत सप्ताह राष्ट्रीय मुद्रीकरण पाइपलाइन (एनएमपी) को लेकर कुछ उचित आलोचना सामने आई क्योंकि विनिवेश को लेकर सरकार का प्रदर्शन कमजोर रहा है। इस समाचार पत्र ने पहले भी दलील दी है कि इसके क्रियान्वयन को लेकर तमाम जटिल सवाल उठेंगे। एनएमपी को पारदर्शी, लाभकारी और निजी क्षेत्र के निवेशकों के लिए आकर्षक बनाना होगा।
मौजूदा हालात में यह आसान नहीं है। सार्वजनिक-निजी भागीदारी (पीपीपी) को लेकर विगत 15 वर्षों में जो दिक्कतदेह अनुभव हुए हैं उनसे यही पता चलता है कि देश में सरकारी और निजी क्षेत्र के बीच संपर्क निष्क्रिय सा है। परिसंपत्ति का निजीकरण करने से कम से कम सरकार पूरी तरह बाहर हो जाएगी और शायद निष्क्रियता की समस्या भी कम होगी। लेकिन मुद्रीकरण पीपीपी के समान ही है जहां सरकार बहुलांश हिस्सेदार बनी रहेगी और निजी क्षेत्र संबंधित परिसंपत्ति का परिचालन करेगा।
ऐसे में एनएमपी को कारगर करने के लिए सरकार को अपने स्तर पर संस्थागत और नियामकीय क्षमता में निवेश करने होंगे। यहां सरकार के वरिष्ठ अधिकारियों का दावा है कि एनएमपी को पेश करने की प्रेरणा सरकारी परिसंपत्तियों का किफायती इस्तेमाल है और इसमें राजस्व को लेकर कोई परख नहीं होगी। मुद्रीकरण प्रशासन किफायत लाने की कोई आसान राह नहीं मुहैया कराता। बल्कि इसके बजाय यह प्रशासनिक सुधारों और संस्थागत नवीनीकरण को और जरूरी कर देता है। क्षमता विस्तार की यह कवायद टाली भी नहीं जा सकती: एनएमपी को लेकर समझौते तैयार होने के पहले समुचित विशेषज्ञता स्थापित होनी चाहिए।
यदि इन समझौतों को स्थायी और कल्याणकारी बनाना है तो इनमें कुछ सिद्धांतों को शामिल करना होगा। पहली बात, इन्हें इस प्रकार बनाना होगा कि आर्थिक शक्ति का केंद्रीकरण न हो या एकाधिकार न हो पाए। यह बात खासतौर पर प्रासंगिक है क्योंकि जिन परिसंपत्तियों की पेशकश की गई है उनमें से कुछ स्वाभाविक एकाधिकार को बढ़ावा दे सकती हैं।
ढेर सारे हवाई अड्डे एक ही औद्योगिक समूह को देने की जो गलती हुई है उसे दोहराया नहीं जा सकता। दूसरी बात, मुद्रीकरण के प्रस्ताव की दीर्घावधि की प्रकृति का अर्थ यह है कि अनुबंध की अवधि के दौरान शर्तों पर दोबारा बातचीत अवश्य होगी। परंतु अतीत में राजनीतिक संपर्क वाले रसूखदार कारोबारियों ने जिस प्रकार इस प्रक्रिया को ठेस पहुंचाई और जहां नीलामी या अन्य लाइसेंस हासिल करने वालों ने अपने राजनीतिक संपर्क का इस्तेमाल सौदों को अपने लिए बेहतर बनाने में किया उसे देखते हुए नीलामी के डिजाइन में ही इसकी गुंजाइश समाप्त की जानी चाहिए।
अंत में, विवाद निस्तारण का सवाल आता है। यह सार्वजनिक-निजी समझौतों की नाकामी की प्रमुख वजह रही है। हाल के वर्षों में संबंधित मंत्रालयों के सत्ता की चाह रखने वाले अफसरशाहों के चलते नियामकीय स्वायत्तता खो सी गई है। यदि एनएमपी को कारगर बनाना है तो परिसंपत्ति मुद्रीकरण वाले हर क्षेत्र में स्वतंत्र और सशक्त नियामकों की आवश्यकता होगी जिनका अफसरशाही से कोई लेनादेना न हो।
न्यायिक क्षमता का विस्तार, खासतौर पर उच्च न्यायालय के स्तर पर ऐसा करना भी टाला नहीं जा सकता। अगर नियमन की स्वतंत्रता और विवाद निस्तारण की तेज गति सुनिश्चित नहीं की गई तो निवेशक इसमें रुचि नहीं लेंगे। तब यह सांठगांठ वालों और संभावित कुलीनों की रुचि का क्षेत्र बनकर रह जाएगा। हाल के वर्षों में सरकार के प्रशासनिक सुधार करने के प्रयासों में बल नहीं रहा। शायद वह परिस्थितियों के दबाव में आ गई। अब उनमें दोबारा तेजी पैदा करने का वक्तआ गया है। इस बार इसकी वजह हैं 6 लाख करोड़ रुपये।